मठाधीशों की समानांतर खड़ी होती व्यवस्था चिंता का विषय

संपूर्ण भूमंडल पर भारत सहित जितने भी देश हैं , उन सबमें धर्माधीश और मठाधीशों का एक ऐसा तंत्र इस समय भी स्थापित है जिसे काटना सत्तातंत्र के वश की बात नहीं है । यदि भारत में ही इस दिशा में सर्वेक्षण करवाया जाए तो पता चलेगा कि देश में जितने विधायक और सांसद हैं उनसे कई गुणा अधिक धर्माधीश और मठाधीश इस देश में विद्यमान हैं । उनकी अलग एक सत्ता है और अपने – अपने अनुयायियों का अपना-अपना क्षेत्र बनाकर वह एक विधायक या सांसद की भांति अपने – अपने क्षेत्रों में लोगों को आदेश देते हैं । चुनाव के समय इन लोगों के आदेश नेताओं के लिए बड़े ‘ कारगर ‘ सिद्ध होते हैं। यही कारण है कि कोई जनप्रतिनिधि व्यक्तिगत रूप से धर्म के ठेकेदारों के अधीन होकर शासन में बैठकर वह कार्य नहीं कर पाता ,जिसके लिए वह चुना जाता है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि भारत में स्वतंत्रता के 72 वर्ष पश्चात भी हिंदू , मुस्लिम , सिख और ईसाईयों को उनके धर्माधीश हांकते हैं और जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग इन्हीं धर्माधीशों के आदेशों का संविधान से ऊपर जाकर भी पालन करता है।

अपने अनुयायियों के बल पर ये लोग सत्तातंत्र को खरीदने या अपने समक्ष झुकाने या उनसे अपने अनुसार काम लेने से भी नहीं चूकते हैं । इस प्रकार लोकतंत्र के समानांतर इन मठाधीशों का एक संविधानेत्तर सत्तातंत्र देश में बहुत मजबूती के साथ स्थापित हो गया है । जिसे उखाड़ने के लिए इस देश में सचमुच एक नई क्रांति की आवश्यकता है। यही वह सत्तातंत्र है जो लोगों में परस्पर घृणा , द्वेष व सांप्रदायिकता जैसी बीमारी को फैलाने में सहायक हो रहा है।

यदि सत्तातंत्र इन मठाधीश और धर्माधीशों को कहीं चुनौती देने की स्थिति में आ जाता है तो तुरंत यह लोग ‘ इस्लाम खतरे में है ‘ – का नारा देकर अपने अनुयायियों को सत्तातंत्र के विरुद्ध भड़काते हैं । देश के लोकतंत्र और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के विरुद्ध भड़काने का अभिप्राय अपने अनुयायियों को राष्ट्रद्रोही बनाना है , परंतु इसके उपरांत भी सत्ता में बैठे लोग अक्सर इन मठाधीश और धर्माधीशों के समक्ष झुकते हुए दिखाई देते हैं । जिससे इन धर्माधीशों और मठाधीशों की सत्ता लोकतंत्र के समक्ष कहीं अधिक हावी और प्रभावी दिखाई देने लगती है। यह अपने अनुयायियों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए धर्म के नाम पर उन्हें एक ऐसी अफीम पिलाये रखते हैं , जिसके नशे में वह विवेकशून्य होकर इन लोगों के पीछे – पीछे चलते रहते हैं । उन्हें वैज्ञानिक युग में रहकर भी विज्ञानवाद के सिद्धांतों में भरोसा नहीं होता । फलस्वरुप यह अनुयायी लोग वही बोलते व कहते देखे जाते हैं , जिन्हें उनके तथाकथित गुरु पढ़ाते या बताते हैं । इससे देश में पाखंड , अविद्या , अज्ञान जितना 14 वीं शताब्दी में था , उतना ही आज भी विद्यमान है । यद्यपि शासन अविद्या , अज्ञान और पाखंड के विरुद्ध एक क्रांति का नाम है , परंतु शासन अपने इस मौलिक कर्तव्य से आंखें मूंदे बैठा रहता है , वह ततैयों की बीड़ में हाथ लगाना नहीं चाहता । फलस्वरूप देश के लोग मति भ्रम की स्थिति में जीने के लिए अभिशप्त बने रहते हैं।

हमारे संविधान ने पंथनिरपेक्ष शासन की स्थापना देश में की है । इसका अभिप्राय है कि देश के सत्ताधीधों का कोई अपना व्यक्तिगत संप्रदाय नहीं होगा । वह इतने विद्वान , सुशिक्षित , सुसंस्कारित और वैज्ञानिक बुद्धि के उपासक होंगे कि संप्रदाय की भावना से ऊपर उठकर देश के लोगों के मध्य न्याय करेंगे । जब देश के संविधान की इस व्यवस्था पर हम विचार करते हैं तो इसका अभिप्राय केवल यह ही नहीं है कि देश के शासन में बैठे लोग धर्माधीधों और मठाधीशों के मतिभ्रम में फंसे लोगों पर हाथ डालने से भी अपने आप को बचाएंगे और उन्हें उनके हाल पर छोड़े रखने की नीति का अनुकरण करेंगे।

पंथनिरपेक्षता का अभिप्राय है कि शासन में बैठे लोग लोगों को भी पंथीय भावनाओं से बाहर निकालेंगे और उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर देश व समाज के प्रति अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक करेंगे । मानव निर्माण शासन का उद्देश्य होगा न कि सभी मत , पंथ और संप्रदायों के अनुयायियों को उनके मठाधीश और धर्माधीशों के अनुसार चलने के लिए छोड़ देना शासन का उद्देश्य होगा। सती प्रथा और बाल विवाह प्रथा जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए कानून बनाकर अंग्रेजों ने अपने इसी शासकीय दायित्व का निर्वाह किया था। इसका अभिप्राय है कि शासन में बैठे लोगों को समाज सुधार के लिए भी कार्य करना चाहिए । समाज सुधार के लिए उन्हें किसी ‘ अवतार ‘ के अवतरित होने की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।

इस दृष्टिकोण से शासन में बैठे लोगों को यह भी समीक्षा करनी चाहिए कि यदि किसी संप्रदाय की पुस्तकें किसी दूसरे संप्रदाय के प्रति घृणा फैलाने का कार्य करती हैं तो ऐसी शिक्षाओं को देश में देने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए । उन्हें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि विवाह जैसे पवित्र संस्कार को और गृहस्थ धर्म जैसी पवित्र संस्था को तलाक का हथौड़ा किसी भी स्थिति में तोड़ने न पाए । एक दूसरे के प्रति पति – पत्नी को गंभीर बनाना और सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से गतिशील बनाए रखना भी शासन का उद्देश्य है । किसी भी महिला को या पुरुष को बालिग होने के आधार पर यह हथियार नहीं सौंपा जाना चाहिए कि वह समाज की शांति व्यवस्था को उस हथियार से काटने व चीरने लगे और समाज में अराजकता को उत्पन्न करने लगे। अतः तलाक जैसी असामाजिक , अमानवीय और पाशविक व्यवस्था को समाप्त कराने के लिए भी सरकारों को सजग और सावधान रहना चाहिए।

यदि शासन पंथनिरपेक्षता की यह परिभाषा निकालता है कि उसे पंथीय भावनाओं से अलग रहना है और पंथीय लोगों द्वारा उनकी मान्यताओं को मानने में कोई हस्तक्षेप नहीं करना है तो समझिए कि वह उन पंथीय मान्यताओं , अंधविश्वासों और पाखंड और अविद्या आदि दोषों को प्रोत्साहित करता है , जिनसे मानवता बाधित , कुंठित और अवरोधित होती है। पंथनिरपेक्षता का अभिप्राय है कि विज्ञानवाद के सिद्धांतों व मान्यताओं को जनता के मध्य स्थापित कर साम्प्रदायिक दुराग्रहों व मताग्रहों से लोगों को मुक्त किया जाएगा । हम सनातन धर्म के उपासक इसीलिए हैं कि वह धर्म अविद्यायुक्त मान्यताओं से मुक्त है ।

शासन का उद्देश्य होना चाहिए कि जो सत्य है , विज्ञान और सृष्टि नियमों के अनुकूल है , उस सिद्धांत को या मान्यता को सभी से मनवाया जाए और जो असत्य है , उसको छोड़ने छुड़वाने के लिए लोगों को प्रेरित करना , पक्षपात रहित होकर लोगों को न्याय दिया जाय । इतना ही नहीं किसी भी स्थिति में लोगों को न्याय पाने के लिए देर तक प्रतीक्षा न करवाना भी शासन का ही उद्देश्य है। जैसे अभी हमने देखा कि स्वतंत्रता के उपरांत तलाक से मुक्ति पाने के लिए मुस्लिम महिलाओं को 72 वर्ष तक प्रतीक्षा करनी पड़ी । 72 वर्ष में कितनी ही मुस्लिम महिलाओं को इस अन्याय ने मरने के लिए प्रेरित किया परंतु सरकारें आंखें मूंदकर मौन साधे रहीं । सरकारों का इस प्रकार का मौन साधना संविधान की पंथनिरपेक्ष भावना के विपरीत किया गया आचरण था । यदि शासन किसी पंथ या संप्रदाय की अवैज्ञानिक और अमानवीय मान्यताओं को प्रोत्साहित करता है तो समझिए कि वह स्वयं भी पंथसापेक्ष हो गया है।

कुल मिलाकर हमारे कहने का अभिप्राय यह है कि शासन में बैठे लोगों को समाज सुधार के कार्यों में भी न केवल रुचि दिखानी चाहिए अपितु लोगों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर मानवतावाद के प्रति समर्पित होने का पाठ भी पढ़ाना चाहिए । इस कार्य को सरकारों ने जिन मठाधीशों और धर्माधीशों के भरोसे छोड़ दिया है वह मानवतावाद का पाठ न पढ़ा कर लोगों को सांप्रदायिक भावनाओं के मकड़जाल में बांध रहे हैं । यह लोग मानव निर्माण न करके सांप्रदायिक व्यक्ति का निर्माण कर रहे हैं । जिससे देश में आग लग लग सके और उस समय ये अपनी रोटियां सेंक सकें । जितनी शीघ्रता से देश का शासन इन मठाधीशों से समाज सुधार के उनके तथाकथित अधिकार को छीन लेगा , इतनी शीघ्रता से ही देश में वास्तविकता पंथनिरपेक्ष शासन की स्थापना की जा सकेगी।

हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी शासन पंथनिरपेक्ष तभी हो सकता है जब वह पंथीय भावनाओं को समाज से मिटाने के लिए कृतसंकल्प होगा । प्राचीन काल में हमारे यहां पर राजाओं के यहां भी धर्म शास्त्रों पर चर्चा होती थी और जो विज्ञानवाद एवं मानवतावाद के विरुद्ध सिद्धांत या मान्यताएं होती थीं , उन्हें मिटाकर उनके स्थान पर जनता के हित में सिद्धांत और मान्यताओं का प्रतिपादन किया जाता था । इस परंपरा को हमारे लोग शास्त्रार्थ कहा करते थे । जिनमें जनक जैसे अनेकों राजा भी स्वेच्छा से सम्मिलित होते थे। भारत को अपने लोकतंत्र के इसी प्राचीन मूल्य को आज भी अपनाना चाहिए। संसद केवल शासन चलाने के लिए नहीं है , अपितु समाज को चलाने की जिम्मेदारी भी संसद के ऊपर ही है । इसलिए संसद को समाज में प्रचलित उन मान्यताओं और अवधारणाओं पर भी विचार करना चाहिए जो मानव के आत्मिक , बौद्धिक व सामाजिक विकास में किसी न किसी प्रकार बाधक हैं या जो उसे वास्तविक मानव नहीं बनने दे रही हैं।

हमारा मानना है कि यह मठाधीश लोग मानव को सांप्रदायिक बना रहे हैं। अतः इनके सत्ता तंत्र को उखाड़ फेंकना शासन तंत्र के लिए आवश्यक है । यद्यपि धर्मप्रेमी , न्यायप्रेमी और समाज को सुचारू रूप से सही दिशा देने के लिए ऐसे श्रेष्ठ महात्माजनों की सदैव आवश्यकता रही है और सृष्टि पर्यंत रहेगी – जिनकी बुद्धि अत्यंत सूक्ष्म हो और जो संसार व समाज के कल्याण के लिए बहुत पवित्र हृदय से अपने आप्त वचन निकालने के अभ्यासी हों । ऐसे लोगों का सम्मान करने के लिए देश की संसद के भीतर ही एक धर्मसभा की स्थापना किया जाना भी समय की आवश्यकता है । इसी से पंथनिरपेक्षता की रक्षा हो पाएगी और इसी से हम ‘ श्रेष्ठ भारत ‘ बनाने में सक्षम होंगे।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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