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इतिहास के पन्नों से

मीरपुर हत्याकांड : जब 18000 से ज्यादा हिंदुओं का हुआ था कत्लेआम

सन 1947 में जब भारत-पाकिस्तान का विभाजन हो रहा था तब मीरपुर भी तत्कालीन कश्मीर रियासत का एक हिस्सा था। इस दौरान पाकिस्तान वाले पंजाब से हजारों की संख्या में हिंदु मीरपुर पहुंचे रहे थे। वहीं मीरपुर के मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे। प्रतिवर्ष 25 नवंबर का दिन बंटवारे के दर्द को हरा कर देता है।

जम्मू-कश्मीर सरकार के रिटायर्ड डिप्टी सेक्रेटरी सीपी गुप्ता बताते हैं कि वर्ष 1947 को हुई घटना में मीरपुर निवासियों का केवल इतना ही दोष था कि उन्होंने एक दृढ़ संकल्प कर रखा था कि जब तक उनके पास बंदूक की आखिरी गोली है, तब तक वे पाकिस्तानी आक्रमणकारियों को मीरपुर शहर के अंदर प्रवेश नहीं करने देंगे, इसी प्रतीज्ञा के वशीभूत मीरपुर निवासियों ने अंतिम सांस तक आक्रमणकारियों का डट कर मुकाबला किया।

दुर्भाग्यवश युद्ध खत्म होते ही आक्रमणकारियों ने 25 नवंबर 1947 के हत्याकांड में 18 हजार से भी ज्यादा बूढ़े, युवक-युवतियां तथा अल्प आयु वाले बच्चों को भी क्रूरता से मृत्यु के घाट उतार कर हमेशा की नींद सुला दिया।*

24 नवंबर 1947 के दिन मीरपुर के 25 हजार लोगों ने उनके पास मौजूद बारुद को खत्म होते देख खुद को असहाय महसूस किया।

यह स्थिति इसलिए हुई क्योंकि उस समय की भारत सरकार और रियासत जम्मू व कश्मीर सरकार के बीच मतभेद के कारण फौजों को मीरपुर से दूर रखा।*

मीरपुर शहर के अंदर शुरू में रियास्ती सरकार के केवल 800 सिपाही थे, जिन में लगभग आधे अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ पाकिस्तानी आक्रमणकारियों के साथ जा मिले।*

बाकी लगभग 400 सिपाहियों ने अपने अल्प संख्या में अस्त्रों के साथ चारों ओर से घिरे हुए मीरपुर नगर की चौकसी की।

ऐसे मौके पर मीरपुर के लगभग एक हजार युवकों ने रक्षा चौकियों पर सिपाहियों के कंधे से कंधा मिलाकर पूरा सहयोग दिया। 6,10 तथा 11 नवंबर 1947 को शत्रुओं द्वारा किए गए हमलों का डटकर मुकाबला किया और शत्रुओं को बहुत हानि पहुंचाई, किंतु अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित बढ़ती हुई पाकिस्तानी सेना के सामने स्थानीय मदद के अभाव में उनका स्वप्न अधूरा रह गया।

17 नवंबर 1947 के दिन मीरपुर के पुलिस कैंप में रखे हुए वायरलेस सेट में अचानक खराबी हो जाने के कारण जम्मू-कश्मीर रियासत तथा भारत सरकार के साथ रेडियो संपर्क पूरी तरह से टूट गया। मौके का फायदा उठाते हुए पाकिस्तानी सेना ने शहर की पूर्वी दिशा की ओर से आक्रमण किया।

इस भयानक स्थिति में जिला मीरपुर के वजीर बजारत राव रतन सिंह ने मीरपुर से जम्मू की ओर भागने का फैसला किया। मीरपुर के शासनिक हुक्मरान मीरपुर निवासियों को मौत के मुंह में छोड़कर स्वयं सुबह चार बजे कुछ पुलिस अफसरों के साथ घोड़ों पर बैठकर जम्मू की ओर भाग निकले। चौकियों पर तैनात बचे-खुचे सिपाहियों ने भी पुलिस अधिकारियों के भागने की सूचना पाकर चौकियों को छोड़ दिया।

पुलिस के भागने का समाचार मिलते ही शत्रु ने एक भूखे भेड़िए की तरह सुबह आठ बजे शहर के अंदर प्रवेश कर के धावा बोल दिया और घरों को आग लगा दी। उन्होंने नागरिकों को शहर के एक कोने में धकेल दिया। लोग भगने लगे तो शत्रु ने पैदल चलते हुए लोगों पर अंधा- धुंध गोलियां बरसाई, जिसके कारण लगभग 18 हजार से भी ज्यादा लोग मर गए। कुछ युवतियों ने तो शहर के गहरे कुओं में छलांगे लगाई और कुछ ने अपने पुरुष वर्गों को विवश किया कि वे अपने ही हाथों से उन को मार दें ताकि वे आक्रमणकारियों के हाथों में न पड़ें।

कुछ लोगों को तो जिंदा ही आग में जला दिया गया। लगभग 3500 नागरिक जो कि गंभीर रुप से घायल हो गए थे, उन को बंदी बना लिया गया। शेष लगभग 3500 लोग जीर्ण-हीन अवस्था में ठोकरें खाते हुए सात दिन भूखे और प्यासे पैदल चलते जम्मू पहुंचे, जिन की दर्दनाक कहानी को शब्दों में आज भी वर्णन करना असंभव है। मीरपुर शहर जो 650 सालों तक एखता और शांति का प्रतीक रहा, 25 नवंबर 1947 को कुछ ही घंटों में लाशों का मरघट बन कर रह गया।

नेहरू-अब्दुल्ला की जिद्द के कारण जिहादियों ने हज़ारों निर्दोष और मासूम हिंदुओं को लूटा और उनका कत्ल किया..जन्नत पाने के इसी मार्ग को इस्लाम में पवित्र युद्ध (जिहाद) कहा जाता है।*

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