हिंदू राष्ट्र के स्वप्न द्रष्टा : बंदा वीर बैरागी —- अध्याय — 6

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लक्ष्मण देव से बने बैरागी माधोदास

क्रांतिकारी नेताओं को जन्म देने में भारत भूमि प्राचीन काल से ही उर्वरा भूमि के रूप में जानी जाती रही है । यहां पर ऋषियों ने भी क्रांति की है । जिन्होंने अपने अद्भुत आविष्कारों से संसार को चमत्कृत किया और उसको नए – नए आविष्कारों का लाभ देकर अपने जीवन को धन्य किया । मानवतावाद के उपासक इन सभी क्रांतिकारी ऋषियों , राजाओं , महाराजाओं ,योद्धाओं ने क्रांति तब की जब पुरानी व्यवस्था या तो बोझिल हो गई या अत्याचारी हो उठी या पुरानी अच्छी परंपरा को किसी बाहरी आततायी आक्रांता ने आकर नष्ट – भ्रष्ट करने का प्रयास किया । क्रांति तब भी की गई जब मानवता को विकसित करने में कुछ शत्रु प्रवृत्ति की शक्तियां उपस्थित हुईं और मानवता के विरोध में मुखरित होने लगीं । क्रांति तब भी हुई जब वैदिक धर्म , संस्कृति और उसकी मर्यादाओं को तोड़ने – मरोड़ने , छोड़ने या किसी भी प्रकार से उपेक्षित करने वाली शक्तियां कहीं पर भी मुंह उठाने लगीं । इसीलिए विदेशियों ने इस क्रांति भूमि , मर्यादा और धर्म की उपासक पवित्र भूमि को ‘ सभ्यता का हिंडोला ‘ कहा है । जैक्लीयट ने ‘ बाइबिल इन इंडिया ‘ में बड़े सुंदर शब्दों का प्रयोग करते हुए मां भारती की मानो आरती उतारते हुए लिखा है :— ” प्राचीन भारत भूमि ! सभ्यता के हिंडोले !! तुझे नमस्कार हैं । पूज्य मातृभूमि तुझे शताब्दियों तक होने वाले असभ्य पाशविक एवं बर्बर आक्रमण भी विस्मृति के गड्ढे में दबाने में असमर्थ रहे हैं । अतः तुझे प्रणाम ।श्रद्धा , प्रेम – कला और विज्ञान के जनक भारतवर्ष ! तेरा अभिवादन है । प्रभु कृपा करें कि निकट भविष्य में हम तेरे प्राचीन गौरव का पाश्चात्य जगत में स्वागत कर सकें। ”

ध्वज वाहिका धर्म की और सभ्यता की सारथी , संस्कृति रक्षार्थ तूने माँ , जने हैं अनेकों महारथी ।

है संसार तेरा ऋणी नहीं मुक्त हो सकता कभी ,

हम धन्य होंगे तभी जब देरी सर्वत्र होगी आरती ।।

इस विदेशी विद्वान के यह मार्मिक शब्द मानो भारत का आवाहन कर रहे हैं कि हे पवित्र भूमि भारत ! तू मेरी मातृभूमि क्यों न हुई ? लेखक मानो भारत के बारे में यही कह रहा है कि जो लोग भारत में जन्मे हैं या भारत भूमि को अपनी मातृभूमि होने का गौरव रखते हैं , वह सचमुच बहुत सौभाग्यशाली हैं । और हम सौभाग्यशाली होंगे भी क्यों नहीं ? क्योंकि इस पवित्र मातृभूमि की रक्षा के लिए यहां पर अनेकों विद्वानों ,साहित्यकारों , राजा ,महाराजाओं , योद्धाओं ने समय-समय पर अपने सर्वोत्कृष्ट बलिदान दे – देकर इसकी उर्वरा भूमि को इतना पवित्र और उत्कृष्टतम संस्कार युक्त बना दिया है कि उसके रजकण माथे से लगकर हमको उसी प्रकार असीम आनंद की अनुभूति होती है जैसे किसी भक्त को आत्मसाक्षात्कार होने के पश्चात प्रभु दर्शन होने पर होती है या लंबे वियोग के उपरांत किसी मां को अपना बेटा मिलने पर होती है । हम तो इस पवित्र भूमि भारत भूमि की रजकण में लोट – लोट कर ही पता नहीं बचपन में कितनी बार इस पवित्र भूमि की रज को माथे से लगाने के अभ्यासी रहे , और हां इतना ही नहीं , हमारे यहां पर साधुओं की एक परंपरा है , जो तन पर राख मलकर रहते हैं । जब हमने बचपन में इस मिट्टी में लोट – लोट कर अपने शरीर पर इसका लेपन किया था , तो चाहे वह लेपन खेल – खेल में ही हो गया था , पर मानो हम उसी समय देश भक्ति के उन पवित्र संस्कारों में रच- बस गए थे , जिनसे हम इस पवित्र भूमि के प्रति सदैव ऋणी रहने के लिए संकल्पित हो गए थे । इसीलिए भारतवर्ष का कोई भी नागरिक अपनी मातृभूमि के प्रति कब ऋणी होने के भाव से संकल्पित हो जाता है , उसे पता ही नहीं होता । सचमुच यह इस पवित्र भूमि की इस पवित्र मिट्टी का ही चमत्कार है ।

राजकण हमारी धर्म धरा के देते यही संदेश हैं ,

सारी धरा पर एकमात्र धर्म धुरीण भारत देश है ।

इसके लिए जियो और इसके लिए मरते रहो ,

‘ वयम राष्ट्रे जागृयाम ‘ यह वेद का उपदेश है ।।

हमारे चरितनायक बंदा वीर बैरागी के भीतर भी यह पवित्र संस्कार बचपन में ही पड़ गए थे । जिसने भारत भूमि की पवित्र मिट्टी को बहुत ही सहजता से अपने तन पर लपेटा और देशभक्ति के उदात्त भाव से भर उठा ।

जब वह बड़ा होता जा रहा था तो उसके वह संस्कार कुछ वैसे ही फलवती और बलवती होते जा रहे थे जैसे किसान की फसल खेत में पहला पानी लगने के पश्चात लहलहाती चली आती है।

इस महान योद्धा और मां भारती के सच्चे सेवक बंदा वीर बैरागी के बारे में भाई परमानंद जी अपनी पुस्तक बंदा वीर बैरागी में लिखते हैं :– ” मुझे भारत के इतिहास के अनुशीलन से यह निश्चय सा हो गया है कि वह व्यक्ति जिसे साधारण बोलचाल में बंदा बैरागी कहा जाता है , एक असाधारण पुरूष था । मुझे उसके जीवन में वह विचित्रता दिखाई देती है , जो न केवल भारत वर्ष के प्रत्युत संसार भर के किसी महापुरुष में नजर नहीं आती । उच्च आत्माओं की परस्पर तुलना करना व्यर्थ है , फिर भी बैरागी के जीवन में कुछ ऐसे गुण पाए जाते हैं जो न राणा प्रताप में दिखाई देते हैं और न शिवाजी में । मुसलमानों के राज्य काल में वीर बैरागी का आदर्श एक सच्चा जातीय आदर्श था । हिंदू पराक्रम और पराधीन अवस्था में । बैरागी एक पक्का हिंदू था । सिखों के भीतर अपने पंथ के लिए प्रेम का भाव काम करता था । राजपूत और मराठे अपने – अपने प्रांतों को ही अपना देश समझ बैठे थे , बैरागी न तो पंथ में सम्मिलित हुआ और ना ही उसे किसी प्रांत विशेष का ध्यान था । उसकी आत्मा में हिंदू धर्म और हिंदू जाति के प्रति अनन्य भक्ति और अगाध प्रेम था । हिंदुओं पर अत्याचार होते देख उनका खून खौल उठता था । इन अत्याचारों का बदला लेने के लिए उसने उन्हीं साधनों का उपयोग किया , जिनसे मुसलमानों ने हिंदुओं को दबाने का प्रयास किया था। ”

है स्वीकार्य हिंसा हमें अहिंसा की रक्षार्थ भी ,

पापी को मिटाना है उचित देश की सेवार्थ भी ।

दाधीच धर्म लगता हमें अपने लिए उत्तम सदा

अपनाया हमने त्याग भी और सदा परमार्थ भी।।

‘ हिंदुओं पर अत्याचार होते देख बंदा वीर बैरागी का खून खौल उठता था ‘ – जब हम यह बात कहते या सुनते हैं तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि बंदा वीर बैरागी सांप्रदायिक था और उसे केवल हिंदू पर अत्याचार होना सहन नहीं था ,और वह मुसलमानों पर अत्याचार होते देखना चाहता था ?

यदि इस सूत्र वाक्य को हम कुछ इस प्रकार पढ़ें कि हिंदू वास्तविक अर्थों व संदर्भों में मानवीय होता है , उसका दृष्टिकोण , उसका जीवनोद्देश्य , उसकी सोच , उसकी समझ , उसकी मानसिकता आदि सभी सात्विक भावों से ओतप्रोत होती हैं , तो स्पष्ट हो जाता है कि इसीलिए हिन्दू कभी हिंसक नहीं हो सकता । वह प्रेम और बंधुत्व के भावों के सूक्ष्म सूत्रों के रहस्य को और उनके मर्मरस को भली प्रकार जानता व समझता है । अतः वह दूसरों के अधिकारों का हन्ता नहीं हो सकता । ऐसे मानवीय दृष्टिकोण रखने वाले जाति – समुदाय के प्रति उदार होना और उसके हितों का रक्षक होना , सभ्य समाज के प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य होता है । अतः हिंदू को देखकर खून खौल उठने का अभिप्राय है कि मानवीय भावों से ओतप्रोत किसी व्यक्ति के ऊपर हो रही हिंसा को देखकर उस हिंसा करने वाले के प्रति हिंसक हो उठना प्रत्येक क्षत्रिय का धर्म है । भारतीय संस्कृति इसी मर्म को समझा कर चलने वाली संस्कृति है।

अत्याचार कहीं भी हो , किसी भी प्रकार का हो , किसी भी क्षेत्र में हो , किसी भी शक्ति के द्वारा किया जा रहा हो, उसका प्रतिकार करना भारतीय संस्कृति सबसे पहले सिखाती है । यही कारण है कि बंदा वीर बैरागी जैसे लोग जब संन्यस्त भी हो जाते हैं और संसार से बैरागी होकर आत्मरस में डूब जाते हैं,आत्म कल्याण या मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधना में रत हो जाते हैं तो इस रास्ते से भी वह उस समय लौट आते हैं जब उन्हें कोई यह बताता है कि संसार की सज्जन शक्ति पर अत्याचार करने वाली शक्तियों में वृद्धि होती जा रही है , या सज्जन शक्ति का जीना दुर्जन शक्ति के कारण कठिन या असंभव होता जा रहा है। यद्यपि मोक्ष का मार्ग उन्हें परम शांति की ओर ले जा रहा था परंतु लोक कल्याण के लिए वह उसे भी त्याग देते हैं । उस समय वह इस बात को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं कि संसार का कल्याण कर संसार के भले के लिए यदि यह शरीर काम आ जाए तो इससे बड़ा कोई कार्य संसार में रहते हुए हो नहीं सकता। संसार के लोग इस शरीर की रक्षा करते रहते हैं और इसे दूसरे के लिए परोपकारी बनने से रोकते रहते हैं , जबकि भारत प्राचीन काल से अपने ‘ दाधीच धर्म ‘ का पालन करता आया है । इसका कारण क्या है ? – यदि इसके कारण पर विचार करें तो स्वामी विवेकानंद के शब्दों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है : —

” वे ( हिंदू लोग ) जानते हैं कि इस भौतिक सृष्टि के मूल में वह सत्य तथा दिव्य आत्म तत्व निहित है , जिसे कोई पाप कलुषित नहीं कर सकता । कोई दुराचार भ्रष्ट नहीं कर सकता और कोई दुर्वासना गंदा नहीं कर सकती । जिसे आग जला नहीं सकती और पानी भिगो नहीं सकता । जिसे गर्मी सुखा नहीं सकती और मृत्यु मार नहीं सकती । उनकी दृष्टि में मनुष्य की यह प्रकृति आत्मा उतना ही सत्य है , जितना कि एक पाश्चात्य व्यक्ति के इंद्रिय तोड़ के लिए कोई भौतिक पदार्थ ।

इसी विचारधारा में वह शक्ति निहित है जिसने उनको शताब्दियों के उत्पीड़न , विदेशी आक्रमण तथा अत्याचारों के बीच अजेय रखा है । आज भी हिंदू राष्ट्र जीवित है और उसमें भयंकर से भयंकर विपत्ति के दिनों में भी आध्यात्मिक महापुरुषों का जन्म होता ही रहता है । सैकड़ों वर्षो तक लहरों पर लहरें प्रत्येक वस्तु को तोड़ती छोड़ती हुई देश को आप्लावित करती रही हैं । तलवारें चलीं हैं और ‘ अल्लाह हू अकबर ‘ के गगनभेदी नारे लगे हैं , किंतु यह बाढ़ें चली गईं और राष्ट्रीय आदर्श में परिवर्तन न कर सकीं । हजार वर्षों के असंख्य कष्ट और संघर्षों में यह हिंदू जाति मर क्यों न गई ? यदि हमारे आचार – विचार इतने अधिक खराब हैं तो क्योंकर हम लोग अब तक पृथ्वी तल से मिट नहीं गए ? क्या भिन्न-भिन्न विदेशी विजेताओं ने हमे कुचल डालने में किसी बात की कमी रखी ? तब क्यों न हिंदू बहुत से अन्य देशों की भांति समूल नष्ट हो गए ? भारतीय राष्ट्र मर नहीं सकता , वह अमर है और उस समय तक रहेगा जब तक यह विचारधारा पृष्ठभूमि के रूप में रहेगी , जब तक उसके लोग आध्यात्मिकता को नहीं छोड़ेंगे । ”

जीवन में आया महान परिवर्तन

जब बालक लक्ष्मण देव यौवन की दहलीज पर पांव रख रहा था तो उस समय उसके जीवन में एक महान घटना घटित हुई । यह घटना उसके लिए जीवन में महान परिवर्तनकारी सिद्ध हुई । यह कुछ उसी प्रकार की घटना थी जैसी महात्मा बुद्ध के जीवन में वह घटना घटित हुई थी जब उन्होंने किसी वृद्ध को अपने जीवन में पहली बार देखा तो उन्होंने अपने सारथी से पूछा कि यह कौन है ? और इस अवस्था में क्यों पहुंच गया है ? उसके शरीर की ऐसी जीर्ण – शीर्ण अवस्था क्यों हो गई है ? तब उनके सारथी ने उन्हें बताया कि यह एक वृद्ध व्यक्ति है और जब वृद्धावस्था आती है तो व्यक्ति का शरीर इसी प्रकार का हो जाता है ।

महात्मा बुद्ध ने सारथी से बड़े सहज भाव से पूछ लिया कि हे सारथी ! क्या मेरा शरीर भी एक दिन ऐसा ही हो जाएगा ?

तब उस सारथी ने कहा कि:– ” जी महाराज ! यह निश्चित है । इस संसार में जो भी आया है , वह इस प्रकार की अवस्था को भोगता ही है । बचपन कहीं विलीन हो जाता है और देखते ही देखते जवानी भी हाथों – हाथ कहीं चली जाती है । देखते ही देखते बुढापा इस शरीर में अपना स्थाई निवास बना लेता है । महाराज ! वह लौटकर नहीं जाता , अपितु वह इस शरीर को लेकर ही जाता है । ”

इस पर महात्मा बुद्ध का हृदय परिवर्तन हो गया । उन्होंने राजभवनों में रहते हुए कभी यह न तो अनुभव किया था और न ही किसी से सुना था कि यह शरीर बालकपन से यौवन और यौवन से वृद्धावस्था में जाकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । आज पहली बार उन्हें अपने शरीर के बारे में और उसकी अवस्थाओं के बारे में बोध हुआ । मारे पीड़ा से उनका मन कराह उठा । उन्हें लगा कि संसार के इन राज्येश्वर्यों में कुछ नहीं रखा। यह भोग साधन मात्र हैं । इनसे तो रोग उत्पन्न होगा और अंत में हम मृत्यु को प्राप्त होंगे । अच्छा रहेगा कि इन रोगों से और रोगों से उत्पन्न होने वाले शोकों से हम बच जाएं । मुक्ति प्राप्त करना अर्थात मोक्ष के रास्ते पर चलना हमारे जीवन का उद्देश्य बन जाए । यही कारण रहा कि उन्होंने यहां से अपनी दिशा बदल दी ।

ऐसा ही एक परिवर्तन वाल्मीकि जी के जीवन में आया था तो ऐसा ही एक परिवर्तन महर्षि दयानंद के जीवन में भी आया था । कहने का अभिप्राय है कि महापुरुषों के जीवन में कभी – कभी ऐसी घटनाएं घटित हुआ करती हैं जो उनका जीवन ही परिवर्तित कर डालती हैं । आज युवक लक्ष्मणदेव के साथ भी कुछ ऐसा ही घटित होने जा रहा था । उन्हें पता नहीं था कि आज नियति उन्हें कहाँ ले जा रही है ? परंतु सचमुच आज उन्हें नियति एक महान रास्ते पर ले कर चल निकली थी और यह घटना कुछ इस प्रकार हुई थी कि युवक लक्ष्मण देव नित्य प्रति की भांति आज भी शिकार करने के लिए गया था।

दूर जंगल में पहुंचे लक्ष्मण देव ने देखा कि एक हिरनी चौकड़िया भरती हुई भागी जा रही थी । लक्ष्मण देव को लगा कि शिकार मिल गया । वह भी उसका पीछा करने लगे। उचित अवसर आते ही लक्ष्मण देव का तीर कमान से निकला । उसके बारे में यह विख्यात था कि रामचंद्र जी की भांति उसका कोई बाण खाली नहीं जाता था । अचूक निशाना साधना के लिए लक्ष्मण देव प्रसिद्ध हो चुका था । आज का निशाना भी सही लगा और वह हिरनी पृथ्वी पर गिर पड़ी । लक्ष्मण ने हिरनी का पेट चीर दिया । वह हिरणी गर्भिणी थी । पेट से कुछ बच्चे निकले । माता ने तड़पते हुए प्राण दे दिये । लक्ष्मण देव इस कारुणिक दृश्य को अपनी करुणामयी दृष्टि से देख रहा था ।

इस घटना का उसके संवेदनशील हृदय पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा । उसको लगा कि जैसे उसने बहुत बड़ा पाप कर दिया है । किसी की मां को मारकर लोग बच्चों की गोद छीनते हैं , लेकिन उसने तो बच्चों से उनकी मां की कोख को ही छीन लिया था। लुटे – पिटे बच्चों की ओर देखते हुए वह गहन पीड़ा से कराह उठा । उनकी पीड़ा को वह सहन नहीं कर सका । उनके तड़प तड़प कर मरने के दृश्य ने लक्ष्मणदेव् को भीतर तक झकझोर दिया । अब वह अपने आप को कोस रहे थे कि उनसे यह क्या हो गया ? उन्हें झटका लगा और उन्होंने अनुभव किया कि उनसे बहुत बड़ा अनर्थ हो गया है , जो नहीं होना चाहिए था , वह हो गया है । उन्होंने आज तक अपने धनुष बाण से बड़े-बड़े प्राणियों की हत्या की थी , परंतु नन्हे बच्चों को मरते देख कर आज पहली बार उन्हें लगा कि धनुष बाण से अत्याचार और पाप भी होता है । इस प्रकार के भावों ने हमारे इस महान योद्धा को झकझोर कर रख दिया । वह आत्म प्रवँचना में डूब गया और इन क्षणों में अपने जीवन को नई दिशा देने के संकल्प से भर उठा। उन क्षणों में उसने संसार से वैराग्य लेने का निश्चय कर लिया ।

धर्म धरा यह बोध की, देती सदा उपदेश है ,

चलते रहो चलते रहो – यह वेद का संदेश है ।

हर जीव के प्राण का सम्मान करना सीख लो ,

इस भाव से विश्व का सिरमौर भारत देश है ।।

बड़ा प्रसिद्ध उदाहरण है कि कभी कलिंग के युद्ध को देखकर सम्राट अशोक का भी हृदय परिवर्तन हुआ था । युद्ध क्षेत्र में पड़ी लाशों को देखकर हमारे उस सम्राट का ह्रदय विदीर्ण हो उठा था । उसके पश्चात उसके जीवन में भारी परिवर्तन आया , परंतु अशोक के संदर्भ में जब हम उसके हृदय परिवर्तन की बात करते हैं तो पता चलता है कि उसका यह शोक देश के लिए महाशोक के रूप में सामने आया । उसने देश- धर्म व संस्कृति को क्षति पहुंचाने वाले लोगों के समक्ष भी लगभग आत्मसमर्पण जैसी मुद्रा को अपना लिया । जिसका हमारे देश को आगे चलकर भारी खामियाजा भुगतना पड़ा । अहिंसावाद को ही इतना बढ़ा – चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया कि अहिंसा की रक्षार्थ होने वाली हिंसा से भी सम्राट मुंह फेर कर खड़ा हो गया । जिस राजधर्म के निर्वाह के लिए राजपद का सृजन किया गया था , राजपद उसी से पीठ फेर गया । यह धर्मविहीनता की स्थिति थी । जिसकी देश को भारी क्षति उठानी पड़ी , परंतु जब हम लक्ष्मण देव के हृदय परिवर्तन की बात करते हैं तो पता चलता है कि वह अशोक नहीं बन रहा था । उसके जीवन की आने वाली घटनाओं से यह सिद्ध हुआ कि उसने अहिंसा की रक्षार्थ हिंसा करने में भी संकोच नहीं किया और देश की सज्जनशक्ति को शांतिपूर्ण जीवन जीने देने के लिए समय आने पर अपना सर्वस्व निछावर करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी।

गर्भिणी हिरणी के बच्चों के तड़प – तड़प कर प्राण त्यागने के दृश्य ने उसको इस सीमा तक आंदोलित किया कि भविष्य में कभी अनर्थकारी पापाचरण से बचूंगा और किसी निरपराध व असहाय प्राणी के प्राणों का हंता नहीं बनूंगा । हमारे इस महान योद्धा का यह संकल्प एक वैदिक संकल्प था । जिसमें सभी प्राणियों के जीवन का सम्मान करने की बात कही गई है , यद्यपि जो लोग या प्राणी अन्य प्राणियों के या मानव समुदाय के जीवन के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहे हों , या उनके जीवन को कष्टपूर्ण बना रहे हों , उनके प्राणहंता बनने में किसी प्रकार का कोई अपराध नहीं है , इस सीमा को बंदा वीर बैरागी लक्ष्मण देव के रूप में भली प्रकार समझ रहे थे ।

लक्ष्मण देव के भीतर वैराग्य उत्पन्न हुआ । वह उस वैराग्य के भावों को हृदय से स्वीकार कर संसार के प्रति विरक्त हो गया । यहीं से वह ‘ बैरागी ‘ हो गया । संसार उसे कोलाहल , तड़पन और अनर्थकारी पापाचरण में लगा हुआ दिखाई दिया । जिससे हटकर आत्मकल्याण के मार्ग को अपना लेने में उसे भलाई दिखाई दी । संसार में हम जब किसी व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत उसके अंतिम संस्कार में शमशान तक जाते हैं तो सामान्यतया हमारे हृदय में भी विरक्ति के भाव उत्पन्न होते हैं । हमें लगता है कि संसार की अंतिम यात्रा यहीं तक है और यहां तक जब हम आते हैं तो हमारे पास वह धन – दौलत कुछ भी नहीं होता , जिसके लिए हम सारे जीवन संघर्ष करते रहते हैं । तब हमको लगता है कि हम सभी चीजों से अलग हट जाएं , परंतु जैसे ही वहां से हम लौटते हैं तो देखते हैं कि जिसका देहांत हुआ था , उसी के पुत्र – पौत्रादिक मृत्यु को प्राप्त हुए मनुष्य की धन संपत्ति को लेकर लड़ने झगड़ने लगते हैं। उनके लड़ाई – झगड़े को देखकर या सामान्य संसार के धन संपत्ति आदि संबंधी विवादों को देखकर हम सब वैराग्य के क्षणिक संकल्पों को भूल जाते हैं और उन विकल्पों की खोज में लग जाते हैं जो अंत में हमें ही भटकाने का माध्यम बनते हैं । लक्ष्मण देव इन सब चीजों से हटकर शिवसंकल्प धारण कर एक वास्तविक वैरागी बन चुके थे , अब उन्होंने संन्यस्त होने का मार्ग अपनाया।

भाई परमानंद जी लक्ष्मणदेव् की संन्यस्त होने की इस मानसिकता के परिणामस्वरूप उनके भीतर आए भारी परिवर्तन के बारे में लिखते हैं :–

” हमारा बैरागी संसार के सुख भोग को लात मारकर सत्संगति की खोज में तीर्थों में पर्यटन करता है और अंत में घोर तप की इच्छा में पंचवटी के वन में डेरा जा लगाता है । यह वही शुभ वन था जहां श्री रामचंद्र जी सीता और लक्ष्मण के साथ वनवास काटने गए थे । इस जंगल में रहकर बैरागी ने तप आरंभ किया । जब कभी साधुओं का मेल होता तो उनसे ज्ञान ध्यान की बातों की चर्चा करता । कुछ समय तप करने के पश्चात यहां पर उन्हें एक महात्मा मिले । जिनकी सेवा – सुश्रुषा का फल यह मिला कि बैरागी पारंगत हो गया । इस समय उनकी आयु 22 वर्ष की थी । यहां से चलकर बैरागी ने गोदावरी नदी के तट पर नांदेड नगर के समीप एक जगह अपना आसन जमा लिया । धीरे-धीरे इसकी योग्यता की चर्चा जन समुदाय में फैलने लगी । लोगों के समूह उसके पास आने लगे और इसे अपना गुरु समझने लगे । बैरागी का पद दक्षिणी में बली का सा हो गया । लोग समझते कि इसके अंदर असाधारण ईश्वरीय शक्ति है , जिसने जिन्न व भूत अपने वश में किए हुए हैं । ”

अब लक्ष्मण देव बैरागी माधोदास बन चुके थे और एक महंत की मस्ती का अनुभव कर रहे थे । उनकी डोर अपने प्रियतम से लग चुकी थी । संसार की ऐषणाओं से मुक्त होकर अब वह उस परम ऐषणा के आनंद रस में डूब चुके थे , जिसकी अनुभूति बहुत कम लोग ले पाते हैं या जिसका भाव बहुत कम लोगों के भीतर जागता है। उन्होंने उस मस्ती को प्राप्त कर लिया जिसे गीता में श्री कृष्णजी ने आत्मरस की प्राप्ति कहा है और उस मस्ती के नशे में झूम उठे जिसे हमारे वैदिक ऋषियों ने सोमरस की आनंदानुभूति कहा है ।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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