हे प्रभु! मुझे सत्य, यश और श्री दो

विजेंद्र आर्य का संरक्षक का संरक्षण

अपने प्यारे प्रभु के दरबार में बैठते ही-यजमान यज्ञ से पूर्व आचमन करता है। बोलता है :-
ओउम!अमृतोपस्तरणमसि, स्वाहा।
इसका अभिप्राय होता है कि हे जगजननी जगदीश्वर मैं तेरी गोद में आ बैठा हूं। मानो मां की गोद में एक बच्चा आ बैठा हो। बच्चे ने अमृतमयी मां की गोद में बैठते ही मां के पल्लू को ही अपना बिछौना (बिस्तर-पस्तरण) बना लिया है। कह रहा है मां मैं अब बहुत ही अविचल है, अविकल हूं, निश्चलता और निश्छलता की पवित्रता की अनुभूति कर रहा हूं। इसलिए जलपान करते समय मेरे हृदय में असीमानंद की अनुभूति हो रही है। आगे कहता है-
ओउम: अमृतापिधानमसि स्वाहा।
हे अमृतमयी माता तू ही मेरा बिछौना है। तो अब तू ही मेरा ओढऩा भी है। अपिधान से ओढऩा शब्द बना है। गीत गुनगुनाता आ रहा है बच्चा मां की गोद के लिए कह रहा है:-
मेरा बिछौना ओढऩा हो पवित्र परमेश्वर। अब गोद में बैठकर अनुभव कर रहा है कि उस अमृत से पवित्र बिछौना और ओढऩा और भला क्या हो सकता है, जिसे पीने के लिए बड़े बडे ऋषियों महर्षियों ने अपने जीवन खपा दिये। उसका केवल अनुभव ही किया जा सकता है। उस आनंद का वर्णन नहीं किया जा सकता। इसलिए वह वर्णनातीत है उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती इसलिए वह कल्पनातीत है। गोद में बैठकर और अमृतमयी बिछौने और ओढऩे का अनुभव करके यजमान मां से अमृतमयी दूध का पान करते करते मां की ओर देख रहा है और उससे अब कुछ मांग भी रहा है। कह रहा है :-
ओउम! सत्यम यश: श्रीर्मयि श्री श्रयताम। स्वाहा।। मुझे मां अपनी झोली में से सत्य, यश और श्री दे दे। मैं मालामाल हो जाउंगा। मेरा जीवन धन्य हो जाएगा मैं सफल मनोरथ हो जाउंगा। मुझे तेरी कृपा मिल जाएगी। सत्य (ईश्वर) मेरे जीवन का आधार हो, हर क्षण मैं उसके प्रति आभारी रहूं। दु:ख में भूलूँ नहीं। राग में और वैराग में, दिन में और रात में कहीं मुझसे मेरे जीवन का सत्य छूट ना जाए। जब सब कुछ उसके लिए समर्पित हो जाएगा तो मेरे पास जो रहेगा उसे मैं मेरी मां तुझसे दूसरे वर के रूप में मांगता हूं और वह है यश। मुझे यश दे यशस्वी बना। मेरे सद्गुणों की सौरभ मेरे जीवन का श्रंगार बना दे। सत्य जीवन का आधार हो तो यश जीवन का श्रंगार बन जाए तेरी असीम कृपा का आर्शीवाद प्रतिक्षण मेरी अनुभूति का विषय बना रहे, मेरी चेतना को झकझोरता रहे और संवेदनओं को सदा ही सक्रिय रखे। अब तीसरे वरदान के रूप में माता मैं आपसे श्री चाहता हूं। जीविकोपार्जन के लिए सत्य और यश से युक्त अर्थ मेरे लिए श्री बन जाए। हर जगह और हर काल में मुझे श्री के फल का रसास्वादन करने को मिले, तो मेरा सौभाग्य होगा। जीवन जगत की जिन घुमावदार घाटियों के बीच से निकलता आ रहा है, उन्हें जब पीछे हटकर देखता हूं तो लगता है कि इन घुमावदार घाटियों में कई शत्रु घात लगाये बैठे थे, लेकिन वह कुछ भी नहीं कर पाये-क्यों? क्योंकि मैं अपनी मां की गोद में बैठा सफर कर रहा था। मैं आराम से बच निकल आया। आज जब जंगल की बीहड़ता की अनुभूति होती है तो मां अब तो तुझसे मैं मांगने की स्थिति में भी नहीं रहा। इसलिए अब तो बस यही कहता हूं-
तेरे दर पे आया ना बनके भिखारी।
तेरे दर पे आया मैं होके आभारी
इसलिए अब मैं तुझ पर प्रतीक रूप में उन बिछौने और ओढने को समर्पित करता हूं जिसे तूने मुझे देकर अपनी कृपा का पात्र बनाया था, जो मेरे लिए संसार के महाभारत में कवच और कुण्डल बन गये थे।
मेरा मुझसे कुछ नहीं जो कुछ है सो तोय।
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मोय।
शायद मां को चुनरी भेंट करने की परंपरा किसी ऐसे आभारी साधक ने ही शुरू कर दी होगी। बास्तव में हमारे यहां प्रत्येक परम्परा के पीछे कोई न कोई सदपरम्परा छिपी होती है। जिस मां की मूर्ति बना कर लोग चुनरी भेंट करते हैं उसका बास्तविक अर्थ यज्ञ के तीनों मंत्र प्रकट करते हैं। सच यही रहा होगा कि किसी साधक ने अपनी श्रद्वा को अपने ढंग से प्रकट किया होगा, जिसे लोगों ने एक परम्परा के रूप में अपना लिया होगा।

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