संवेदनाएँ प्रकट करना ही काफी नहीं बुनियाद खत्म करना जरूरी है

– डॉ. दीपक आचार्य
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हमारे आस-पास जो हो रहा है, जो दिख रहा है, सुन रहे हैं और देश-दुनिया में जो हो रहा है। उस पर पैनी निगाह रखने के साथ ही संवेदनशीलता जरूरी है। जो घटनाएं हमारे काल में हो रही हैं उसके लिए हम ही जि मेदार हैं और इनका निवारण व समूल उन्मूलन करने का दायित्व भी हमारा है।
पूरे देश को एक राष्ट्रपुरुष के रूप में देखना, भारतमाता की रक्षा करना, देश की एकता और अखण्डता को कायम रखना प्रत्येक भारतवासी का सर्वोपरि प्राथमिक दायित्व है जिससे हम बरी नहीं हो सकते। किसी और को न हम जि मेदार ठहरा सकते हैं और न ही ठहराना चाहिए
बात चाहें देश भर में आईपीएल की हो, पसरते भ्रष्टाचार की हो, आतंकवादी गतिविधियों की हो अथवा नक्सली ताण्डव की। हर मामले को गंभीरता से देखना और अपनी स्पष्ट व ठोस भूमिका में आना, निर्भय होकर बेबाक टिप्पणी करना और देश को उन तमाम प्रकार की समस्याओं से उबारना हमारे ही जि मे है।
आने वाली पीढ़ियाँ और इतिहास किसी और को दोष नहीं देगा, न किसी को माफ करने वाला है। हमारे वक्त में होने वाली तमाम घटनाओं का जि मा हम पर ही है। यह नहीं हो सकता कि अच्छा-अच्छा होने का श्रेय प्राप्त करते चले जाएं और बुरे कामों या घटनाओं के लिए औरों को दोषी ठहराते रहें, नाकारा बने रहकर चुपचाप सब देखते चले जाएं, एक-दूसरे पर लांछन लगाते रहें, जी भर कर कीचड़ उछालते रहें और समय गुजार दें।
जहाँ कहीं जो कुछ हो रहा है उसके प्रति प्रत्येक भारतवासी की पूरी जि मेदारी है। कोई भी भारतवंशी यह कहकर पिंड नहीं छुड़ा सकता कि यह उसका काम नहीं है या उसके इलाके में ऐसा नहीं हो रहा है। शरीर का एक अंग कहीं बिगड़ने लगता है तो इसका असर पूरे शरीर पर पड़ता है। आज नहीं तो आने वाले कल में पड़ेगा।
इसलिए यह जरूरी है कि देश के किसी भी कोने में इस प्रकार की घटनाएं हों, प्रत्येक देशवासी को उतना ही गंभीर रहना चाहिए जितना उस घटना विशेष वाले क्षेत्र के लोग। एक-दूसरे के दु:ख-सुख में भागीदारी निभाना और मदद देना हम सभी का पावन कर्त्तव्य है।
किसी दिन एकांत में सोचें कि ईश्वर ने हमें मनुष्य क्यों बनाया है, हमारे क्या फर्ज हैं अपने बंधुओं, परिवार, समाज, क्षेत्र तथा देश के प्रति। ईमानदारी से ऐसा एक दिन भी हमने यदि कर लिया तो आत्मा की आवाज हमें हर मामले में चेता देने में समर्थ है।
सत्य का उद्घाटन अपने भीतर से करें और मनोमालिन्य के अंधकार को हटा कर हृदयाकाश में आलोक परिपूरित करें। जो होता है उस पर कुछ दिन संवेदनाएं प्रकट करने, घड़ियाली आँसू बहाने का क्या औचित्य है। जिन लोगों को माँ-बाप, भाई-बहन, पति-पत्नी, रिश्तेदारों, भारत का भविष्य बनने वाले बच्चों से हाथ धोना पड़ा, लहू की धाराएँ फूट पड़ी और पावन धरती का वक्ष:स्थल रक्तरंजित हो गया।
कई परिवारों की अस्मिता मिट्टी में मिल गई, अरमान स्वाहा हो गए और भविष्य अंधकारमय हो गया। और हम हैं कि कभी गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए स्वाँग रच रहे हैं, कभी घड़ियाली आँसू बहाकर संवेदनाओं का ज्वार उड़ा रहे हैं, मौत के ताण्डव में भी पब्लिसिटी और पब्लिक ओपिनियन की चिंता में लगे हुए हैंं।
सुरक्षा के जाने कितने चक्रव्यूहों में संरक्षित और सुरक्षित होकर आम आदमी की जिन्दगी और मौत को देखने के आदी हो गए हैं। इंसानियत की बातें कहने और करने में बड़ा भारी अंतर आ चुका है। अपने ही देश में हम सुरक्षित नहीं हैं। इन तमाम हालातों के लिए कोई और नहीं बल्कि हम खुद ही जि मेदार हैं जिन्होंने अपने स्वार्थ और क्षुद्र लाभों के लिए देश के प्रति बेपरवाही की है और इसी तरह बेपरवाह बने रहे तो वो समय दूर नहीं जब आतंकियों, बुकियों, नक्सलियों के हौसले और अधिक बुलंद हो चलेंगे और तब हम सभी का क्या हश्र होगा, यह बताने की किसी को जरूरत नहीं है।
ये सारे ऐश-आराम, भोग-विलासिता, डण्डे और झण्डे, शाल-साफे और टोपियां, पद-मद, बैनर-पोस्टर, लोकप्रियता का भरम और जमा की गई अनाप-शनाप दौलत धरी की धरी यहीं रह जाने वाली है। आत्मचिंतन का विषय आज यह है कि इस स्थिति के लिए हम कितने जि मेदार हैं, कब तक ऐसे ही देखते रहेंगे सब कुछ लुटता-पिटता और मरता हुआ।
हमें हमारी इच्छाशक्ति जगाने की जरूरत है, पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों को छोड़ने की जरूरत है, स्पष्ट और बेलाग निर्णय लेने की जरूरत है। जो देश हित में करना चाहिए उसके लिए किसी और मौके की प्रतीक्षा क्यों की जाए? यह भी देखना होगा कि इन समस्याओं के मूल में क्या है। इन झाड़ियों ने विष वृक्ष का स्वरूप कैसे और क्यों अपना लिया है। असल में इसकी बुनियाद को देखेंगे तो वहाँ जो कुछ मिलेगा, उससे हमें ही शर्मसार होना पड़ेगा।
आज जरूरत है तो इंसानियत का पैगाम गूंजाने की, आदमी को आदमी के रूप में स्वीकार करने की। देश का हर आदमी अनमोल है, हमारी जीवंत ऊर्जा है और इसे संरक्षित करने के लिए वह सब कुछ किया जाना चाहिए जो खास लोग अपने लिए कर रहे हैं।
भारतवर्ष की एकता, अखण्डता और शांति सबसे पहले हैं, बाकी सब इसके बाद में। इस सत्य को स्वीकार करते हुए अपने कर्मों में शुचिता लाएं, तो देश का भला अपने आप होने लगेगा। वरना लहू के आँसू कहीं न कहीं गिरकर देश की अस्मिता को चुनौती देते रहेंगे और हम नालायकों की तरह मूक बने रहकर ऐसे ही देखते रहेंगे जैसे कि हमें लकवा मार गया हो।
आज हम अपने आपको कितना ही महान और लोकप्रिय मानकर चलें, यही हालत बनी रही तो इतिहास माफ नहीं करेगा और आने वाली पीढ़ियाँ हमारे लिए जाने कितनी गालियों का आविष्कार कर हमें कोसते रहेंगे। निर्णय खुद को करना है-मानवता और देश बड़ा है या हमारे स्वार्थ।
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