रक्त-रंजित मुद्रा की चकाचौंध-10

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मुजफ्फर हुसैन

गतांक से आगे…….

वास्तव में अधिकांश जनता इस आंदोलन को गंभीरता से लेती ही नही है। कुछ इसे सांप्रदायिक लोगों का आंदोलन मान बैठे हैं और कुछ मुट्ठी भर लोगों की सनक।  लेकिन इसके परिणाम धीरे धीरे आने लगे हैं। यदि अब भी हमारे पशुधन पर लोगों ने अपनी चिंता नही जताई तो फिर भारतवर्ष 2021 में विश्व की महाशक्ति बनेगा, यह कह पाना कठिन है। वास्तव में इसका वैज्ञानिक और आर्थिक विश्लेषण अब तक जनता के सामने आया ही नही है। स्वयं सरकार ईमानदारी से आंकड़े नही देती और इसके परिणाम के प्रति लोगों को सचेत नही करती। हमारे अर्थशास्त्री इनसानों की जनगणना के प्रति प्रतिबद्घ है। सरकार अपने कार्यक्रम के अनुसार इस मामले में पीछे नही रहती। गिनती तो वृक्षों और जानवरों की भी होती है,  लेकिन वह कितनी सही है, इसकी कोई कसौटी नही है। इस मामले में सबसे पहले सही आंकड़े सामने आने चाहिए, जिसे प्रसारित करने वाली कोई प्रतिष्ठित और विश्वसनीय संस्था होनी चाहिए। नरसिंहारावजी जब तक देश के प्रधानमंत्री रहे, भारत में मांस के व्यापार और उसके निर्यात पर खुलकर चर्चा नही हुई। वास्तविक आंकड़े और तथ्य भी सरकारी फाइलों से बाहर नही आ सके। जो भी कहा जाता था और लिखा जाता था वह केवल उस व्यापार से संबंधित लोगों से ही येन केन प्रकारेण पता चलता था। लेकिन अटल जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इस मामले में कुछ स्पष्टï बातें सामने आई। उनकी सरकार भले ही इस दिशा में कोई सकारात्मक योगदान नही दे सकी, लेकिन एक बात उजागर हो गयी कि भारत में पशुओं का कत्ल जिस पैमाने पर हो रहा है वह चौंका देने वाली बात है। सरकार की मांस निर्यात की नीति क्या है और डेरी डेवलपमेंट मिनिस्ट्री किस प्रकार मांस निर्यात मंत्रालय बन गया, इसकी भी क्रूर कहानी जनता के सामने आने लगी।

भारत अहिंसा का पालना है। यहां किसी समय दूध और घी की नदियां बहती थीं, ऐसा इतिहास बतलाता है। इसलिए पशुओं के प्रति जनता का अगाध प्रेम था। पशु पक्षी प्रेम को धर्म का अंग मानकर उनकी पूजा होती थी। इस सिद्घांत के आधार पर तो विश्व में सर्वाधिक पशु पक्षी भारत में ही होने चाहिए। हम केवल यहां दूध देने वाले पशुओं की संख्या भारत में प्रति एक हजार व्यक्ति के पीछे कितनी है।

क्रमश:

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