मुआवजे के बदले अपमान क्यों?

rape victim

डॉ0 पुरूषोत्‍तम मीणा निरंकुश 

बलात्कारित स्त्री और मृतक की विधवा, बेटी या अन्य परिजनों को लोक सेवकों के आगे एक बार नहीं बार-बार न मात्र उपस्थित होना होता है, बल्कि गिड़गिड़ाना पड़ता है और इस दौरान कनिष्ठ लिपिक से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबकी ओर से मुआवजा प्राप्त करने के लिये चक्कर काटने वालों से गैर-जरूरी तथा मनमाने सवाल पूछे जाते हैं। ऐसी-ऐसी बातें पूछी और कही जाती हैं, जिनका न तो मुआवजे से कोई ताल्लुकात होता है और न ही पूछने वालों को इस प्रकार के सवाल पूछने या जानकारी प्राप्त करने का कोई वैधानिक अधिकार होता है।……….. जनता के इन नौकरों द्वारा बलात्कार की शिकार महिलाओं और मृतक की विधवा या बेटियों के संग कुकृत्य तक किये जाते हैं।

किसी भी स्त्री का बलात्कार और किसी भी परिवार के सदस्य की किसी हादसे में असामयिक मौत के बाद आमतौर पर सरकारों की ओर से मुआवजा देने की घोषणाएं की जाती हैं या निर्धारित नीति के अनुसार प्रशासन की ओर से मुआवजा दिये जाने के प्रावधान होते हैं। दोनों ही स्थितियों में मुआवजा प्राप्त करने के लिये दुष्कृत्य की शिकार स्त्री और मृतक के परिजनों को मुआवजा प्राप्त करने के लिये आवेदन करना विधिक अनिवार्यता है। यहॉं तक तो सब ठीक माना जा सकता है, लेकिन आवेदन करने मात्र से मुआवजा नहीं मिलता है। मुआवजे के लिये बलात्कारित स्त्री और मृतक की विधवा, बेटी या अन्य परिजनों को लोक सेवकों के आगे एक बार नहीं बार-बार न मात्र उपस्थित होना होता है, बल्कि गिड़गिड़ाना पड़ता है और इस दौरान कनिष्ठ लिपिक से लेकर विभागाध्यक्ष तक सबकी ओर से मुआवजा प्राप्त करने के लिये चक्कर काटने वालों से गैर-जरूरी तथा मनमाने सवाल पूछे जाते हैं। ऐसी-ऐसी बातें पूछी और कही जाती हैं, जिनका न तो मुआवजे से कोई ताल्लुकात होता है और न ही पूछने वालों को इस प्रकार के सवाल पूछने या जानकारी प्राप्त करने का कोई वैधानिक अधिकार होता है। लेकिन तकदीर और ईश्‍वर के दण्ड से दंशित और हालातों के आगे विवश ऐसे लोगों को सरकारी कार्यालयों में जनता की सेवा के नाम पर नियुक्त जनता के नौकरी की हर जायज-नाजायज बात सुननी और अनेक बार माननी भी पड़ती है। जिसके तहत जहॉं रिश्‍वत की मांग करना और रिश्‍वत प्राप्त करना तो आम बात है, लेकिन जनता के इन नौकरों द्वारा बलात्कार की शिकार महिलाओं और मृतक की विधवा या बेटियों के संग कुकृत्य तक किये जाते हैं। इस प्रकार की घटनाएँ केन्द्र और राज्य सरकारों के तकरीबन सभी विभागों में आमतौर पर आये दिन घटित होती रहती हैं। जिससे हर कोई वाकिफ है, लेकिन जिस प्रकार से दलित-आदिवासियों पर सरेआम होने वाले अत्याचारों कोे देखकर हजारों सालों से लोग मौन रहते आये हैं, उसी प्रकार से आदिकाल से महादलित बना दी गयी स्त्री या हालातों से मजबूर विवश इंसान की दुर्दशा को देखकर भी ऐसे मामलों में लोग मौन साध लेते हैं।

जमीन और जनता से जुड़ा हर जन प्रतिनिधि इन सब हालातों और क्रूरताओं से बखूबी वाकिफ होता है, यदि वो चाहे तो मन्त्री बनते ही ऐसे मामलों को चुटकी बजाते ही ठीक कर सकता है, लेकिन मन्त्री की कुर्सी पर बैठते ही वह स्वयं को राजा समझने लगता है। जिसके चलते उसे जनता के दु:ख-दर्द की आह सुनाई देना बन्द हो जाती है। अन्यथा क्या कोई भी सरकार केवल 5 कानून पारित करके, इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं कर सकती?

1. पीड़ित, पीड़ित के परिजनों या अन्य किसी की भी ओर से, किसी भी प्रारूप में-जैसे-फोन, मोबाइल या पत्र के जरिये दी गयी सूचना को मुआवजा प्रदान करने की पत्रावलि शुरू करने के लिये कानूनी रूप से पर्याप्त दस्तावेज और आधार माना जाने का कानून हो।

2. उक्त बिन्दु 1 के अनुसार सूचना प्राप्ति के एक सप्ताह के अन्दर कोई सकारात्मक तथा संवेदनशील तरीके से कार्य करने में निपुण और प्रशिक्षित लोक सेवक पीड़ित/आहत परिवार को अग्रिम सूचना देकर, पीड़ित/आहत परिवार की सुविधानुसार उनके घर या बताये किसी भी सुगम स्थान पर उपस्थित होकर स्वयं सरकारी खर्चे पर सारी औपचारिकताएँ पूर्ण करवाने के लिये कानूनी रूप से बाध्य हो।

3. उक्त बिन्दु 2 के अनुसार औपचारिकताएँ पूर्ण करवाने के बाद हर हाल में आवेदन करने की तारीख से एक माह के अन्दर-अन्दर मुआवजे की राशि का चैक पीड़िता या कानूनी रूप से पात्र व्यक्ति या व्यक्तियों के नाम सम्बन्धित तहसीलदार या उपखण्ड अधिकारी या समकक्ष अन्य प्राधिकारी द्वारा उनके निवास पर स्वयं उपस्थित होकर व्यक्तिगत रूप से प्रदान किये जाने का कानूनी प्रावधान हो।

4. उपरोक्त बिन्दु 2 एवं 3 की पालना करने के लिये नामित/घोषित अधिकारियों/प्राधिकारियों के नाम और पदनाम सार्वजनिक रूप से परिपत्रित/प्रचारित किये जावें। ऐसे प्राधिकारियों की ओर से हर एक मामले की दैनिक प्रगति/कार्यवाही प्रतिदिन अपनी वैबसाइट पर डालना अनिवार्य हो और विलम्ब करने पर नामित/घोषित अधिकारी का कम से कम छ: माह का मूल वेतन काटने का कानूनी प्रावधान हो।

5. ऐसे हर एक मामले की पहली और अन्तिम अपील सम्बन्धित जिला जज के समक्ष ही पेश किये जाने का प्रावधान हो, जिसका निर्णय जिला जज द्वारा हर हाल में एक माह के अन्दर-अन्दर किये जाने का कानूनी प्रावधान हो। अन्यथा जिला जज की एक वेतन वृद्धि रोकी जाने की कानूनी व्यवस्था हो।

यदि केन्द्र सरकार द्वारा या राज्य सरकार द्वारा उपरोक्त कानूनी प्रावधान पारित कर दिये जावें तो मुआवजे के कारण हो रहे पीड़ितों के अपमान और शोषण को हमेशा-हमेशा को रोका जा सकता है। केवल इतना ही नहीं यदि कोई लोकतांत्रिक सरकार केवल पांच कदम उठा सकती है तो अपने माथे से अपमानकारी मुआवजे के कलंक को हमेशा-हमेशा के लिये मिटा सकती है। जरूरत इस बात की है कि इसके लिये हम सरकार को मजबूर करें!

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