हिंसा बल है दुष्ट का, गुणवानों का खेद

दर्शन हों सत्पुरूष के,
शास्त्र सुनै चित लाय।
उद्योग, सरलता, सौम्यता,
हितकारी कहलाय।। 147।।

रोगी, ऋणी और आलसी,
और हो संयमहीन।vijender-singh-arya
लक्ष्मी वहां टिकती नही,
जो उत्साह से हीन।। 148।।

शक्तिहीन को चाहिए,
क्षमा-भाव अपनाए।
सामर्थ्यवान को चाहिए,
धर्मवान बन जाए।। 149।।

सरलता के व्यवहार को,
कमजोरी मानै यातुधान।
लज्जाशील मनुष्य का,
इसलिए करै अपमान।। 150।।

अतिदानी, अतिश्रेष्ठ हो,
अति करै अभिमान।
लक्ष्मी ढिंग रहती नही,
कुदरत का है विधान ।। 151।।

अधर्म से कमा द्रव्य को,
करै धर्म के काम।
अगले जनम में न मिलें,
मन वांछित परिणाम ।। 152।।

नोट:-जो मनुष्य जन्मान्तर में प्राप्त होने वाले सुख के उपाय दान, यज्ञ आदि कर्मों को अधर्म से कमाए हुए धन के द्वारा संपन्न करता है, वह मरने के पश्चात (दूसरे जन्म में) उस दान, यज्ञ आदि कर्म के शुभ फल को नही भोगता है, क्योंकि धन का उपार्जन अनुचित उपाय से करने के कारण। इसलिए वेद ने कहा है-अग्नेनय सुपथा राये-अर्थात हे प्रभो! धन की प्राप्ति के लिए हमें उत्तम मार्ग से चलाओ, यानि कि हम उत्तम उपाय से धन कमाएं।
विदुर नीति पृष्ठ 365 श्लोक संख्या 66 सातवां अध्याय।
गम के पहाड़ भी,
हों दुर्गम स्थान।
एक मनोबल संग तो,
शत्रु करै पयान ।। 153।।

उद्योग, संयम, निपुणता,
स्मृति, विश्वास।
उन्नति के ये मूल हैं,
रखना हमेशा पास।। 154।।

तपसी का बल तप कहें,
वेदज्ञों का वेद।
हिंसा बल है दुष्ट का,
गुणवानों का खेद।। 155।।

खेद से अभिप्राय यहां क्षमा करने से है।
श्रद्घा बल है भक्त का,
विद्वानों का ज्ञान।
नारी का बल शील है,
समझै कोई गुणगान।। 156।।
क्रोध को जीते प्रेम से,
कृपण को कर दान।
असत्य को जीते सत्य से,
अज्ञान को जीते ज्ञान।। 157।।

अभिमानी और आलसी,
नारी, चोर डरपोक।
भाजन नही विश्वास के,
अंत मनावै शोक।। 158।।

आचार्य और वृद्घजन,
का जो करे सम्मान।
बढ़ते रहवें ज्ञान, बल,
हों यशस्वी आयुष्मान।। 159।।

क्षीण करै जल शैल को,
मन को बचनों के बाण।
रोग क्षीण करै स्वास्थ्य को,
पाप क्षीण करै मान।। 160।।

आलस करै स्वाध्याय में,
है विद्वान का दोष।
पतिव्रता करे हास तो,
दोषों में महादोष।। 161।।

प्रेम दान सत्कार से,
जो दिल लेवै जीत।
उसका जीवन सफल है,
वह मीतों का मीत।। 162।।

अधर्म का धन त्याग कै,
सज्जन खुशी मनाय।
जैसे केंचुली त्याग कै,
व्याल प्रसन्नता पाय।। 163।।

काम अर्थ में लीन जो,
उन्हें न धर्म सुहाय।
काम अर्थ में धर्म हो,
सीधा स्वर्ग में जाए।। 164।।

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