चित चिंतन और चरित्र को, राखो सदा पुनीत
भाव यह है कि प्रेम के बिना संसार के सारे रिश्ते ऐसे लगते हैं जैसे सूखा गन्ना। सूखा गन्ना शक्ल सूरत से तो बेशक गन्ना दिखाई देता है किंतु रस न होने के कारण वह अनुपयोगी हो जाता है। ठीक इसी प्रकार यदि सांसारिक रिश्तों में प्रेम नही है तो वे निर्रथक हैं। वास्तविकता तो यह है कि जीवन का रस प्रेम है। इस प्रेम रूपी रस से ही संसार के सारे रिश्ते जिंदा हैं अन्यथा मृत प्राय: दिखाई देते हैं। परमपिता परमात्मा ने भी इस सारी सृष्टि को प्रेम नामक तत्व में पिोया हुआ है। अत: मनुष्य को भी इसका अनुकरण करना चाहिए।
दुख तो दवा है मोह की,
अंतर्मुखी बनाय।
जब दुख के कांटे चुभें,
हरि का नाम रटाय ।। 625 ।।
प्राय: देखा जाता है कि सुख को तो सभी चाहते हैं, किंतु दुख से कभी नाक भौं सिकोड़ते हैं किंतु गंभीरता से चिंतन करने पर पता चलेगा कि दिन का महत्व तभी तक है जब तक रात है जीवन का महत्व तभी तक है जब तक मृत्यु है। ठीक इसी प्रकार सुख का महत्व तभी तक है जब तक संसार मं दुख है। बेशक दुख की कल्पना मात्र से मनुष्य के रोंगटे खड़े होते हैं किंतु दुख की सह विशेषता भी है कि वह मनुष्य की आत्मा पर मोह ममता के जटिल आवरण (पर्दे) को तोड़ता है, मोह माया के कारण भ्रमित होने से बचाता है यह एक औषधि है जो पाप कर्मों से बचाती है और मनुष्य का ध्यान संसार से हटाती है, उसे बहिर्मुखी होने की अपेक्षा अंतर्मुखी बनाती है। ध्यान रहे जब मन आत्मा को माया प्रकृति से जोड़ता है जो व्यक्ति  बहिर्मुखी होता है किंतु जब मन आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है तो व्यक्ति अंतर्मुखी हो जाता है। ऐसा तभी होता है जब मन को मोहमाया के कारण कोई आघात लगता है जैसे महात्मा तुलसी को अपनी पत्नी रत्नावली से प्रताडऩा मिली, मातृवृत्ति महाराज को अपनी पत्नी पिंगला के दुश्चरित्र के कारण आघात दुख पहुंचा, मूलशंकर को महर्षि देव दयानंद और ईश्वर भक्त बनाने वाली घटना उनकी अपनी बहन और चाचा की मृत्यु का दुख था। बूढ़े व्यक्ति के कृषकार्य शरीर और किसी मृतक की अर्थी को जाते देख कर जो कष्ट सिद्घार्थ को हुआ था उसी ने उसे महात्मा बुद्घ बनाया था। मीरा धु्रव और प्रहलाद को कष्टों के कांटों ने ईश्वर भक्त बनाया था। कहने का भाव यह है कि दुख को इतनी नफरत से मत देखो, दुख मनुष्य को साहसी और तपस्वी बनाता है, अपने गंतव्य मोक्ष धाम तक पहुंचता है। मोह माया के पर्दे को हटाता है ओर प्रभु का नाम पल-पल रटाता है।
सद्गुण को ओझल करै,
नर का निजी स्वभाव।
जाहिर हो व्यवहार से
मन में कैसे भाव।। 627 ।।
अर्थात मनुष्य सद्गुणों से चाहे कितना भी सज्जित क्यों न हो किंतु उसका स्वभाव सद्गुणों के ऊपर आकर बैठता है। उदाहरण के लिए जैसे कोई ईमानदार है, ईश्वर भक्त है, दानी है, वीर है किंतु अहंकारी है, शक्ली और चिड़चिड़े स्वभाव का है, तो लोग कन्नी काटने लगते हैं और उसकी अनुपस्थिति में उसके सद्गुणों की नही अपितु उसके गंदे स्वभाव की खासतौर से चर्चा करते हैं। इस  प्रकार व्यक्ति के सदगुण ओझल हो जाते हैं ओर स्वभाव प्रमुखता े सामने आता है। महात्मा गौतम बुद्घ ने ठीक ही कहा था-”सदगुणों को दबाकर व्यक्ति का स्वभाव सबसे ऊपर आकर बैठक जाता है। ध्यान रहे व्यक्ति के मन में सदभाव और दुर्भाव कितनी मात्रा में है यह उसके व्यवहार से स्पष्ट हो जाता है। वास्तव में कौन कैसा है यह उसके स्वभाव से पता चल जाता है। क्रमश:

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