चित चिंतन और चरित्र को, राखो सदा पुनीत


गतांक से आगे….
यदि गंभीरता से चिंतन किया जाए तो आप पाएंगे कि परमात्मा ने मनुष्य को ज्ञान और प्रेम से अलंकृत कर इस सृष्टि में अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा है। ज्ञान यदि इस समष्टि का मस्तिष्क है तो प्रेम इसका हृदय है। इन दोनों के समन्वय में ही समष्टि का कल्याण संभव है इसीलिए कहा गया है-

ज्ञान प्रेम दो तत्व हैं,
जिनमें सिमट्यो संसार।
इन दोनों में ही छिपयो,
जीवन का विस्तार ।। 619 ।।

अर्थात परमपिता परमात्मा की इस सुंदर सृष्टि की रचना में दो तत्व ऐसे हैं जो उसकी अनमोल देन हैं, उसके बहुमूल्य उपहार हैं-वह हैं ज्ञान और प्रेम। इन दो तत्वों ने सारे संसार को एकता के सूत्र में तथा बहुमुखी और बहुआयामी विकास की श्रंखला में आबद्घ किया हुआ है।
समस्त संसार में आज तक जितना भी बौद्घिक, सांस्कृतिक अथवा आध्यात्मिक विकास दृष्टिगोचर होता हंै, इसके मूल में ज्ञान और प्रेम की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस संसार में जो जितना ज्ञानवान है वह उतना ही महान है। ठीक इसी प्रकार जो जितना विशाल हृदय वाला है अर्थात प्राणी मात्र को अपने प्रेम से स्निग्ध करने वाला है वह भी उतना ही महान होता है।
ध्यान रहे ज्ञान और प्रेम ऐसे तत्व हैं जो मनुष्य को भौतिक संपदा ही नही अपितु आध्यात्मिक संपदा से अलंकृत करते हैं। यहां तक कि उस परमानंद से भी मिलाते हैं जो हमारा उद्गम स्रोत होने के साथ साथ गंतव्य भी है।

चित चिंतन और चरित्र को,
राखो सदा पुनीत।
पाछै-पाछै हरि फिरै,
बनकर तेरा मीत ।। 620 ।।

धन आयो परिजन छूटे,
हुई भयंकर भूल।
धर्म हुआ आहत नही,
सुखी प्रेम की मूल ।। 621 ।।

भाव यह है कि जब मनुष्य का सारा ध्यान धन कमाने में केन्द्रित होता है और उसे धर्म अधर्म का ध्यान नही रहता है, वह धन के लिए धर्म का हनन करता है और यहां तक कि अपने परिजनों की उपेक्षा करके अपमानित करता है, तो इस भयंकर भूल के कारण दुष्परिणाम यह होता है कि उसके स्वजन भावनात्मक रूप से उसे सदा के लिए छोड़कर ऐसे चले जाते हैं जैसे सूखे पेड़ को छोड़कर पक्षी हमेशा के लिए चले जाते हैं, क्योंकि धर्म और प्रेम का कहीं हनन हुआ है। सारांश यह है कि अधर्म से कमाया हुआ धन मनुष्य को सुविधाएं दे सकता है, संपन्नता दे सकता है किंतु प्रसन्नता या आनंद नही। इसलिए धन कमाते समय धर्म का पालन नितांत आवश्यक है।
कृपा और पुरूषार्थ का,
यह जीवन है मेल।
इनके सहारे से चले,
इस जीवन का खेल ।। 622।।
जीवन जीने के गुर :
कांटों से बचके रहो,
फूलों से करो मेल।
जीने का दस्तूर है,
चले देर तक खेल ।। 623 ।।

फूलों की करै उपेक्षा,
कांटों से करै मेल।
लक्षण सारे विनाश के,
एक दिन बिगड़ै खेल ।। 624 ।।

प्रेम बिना रिश्ते लगै,
जैसे सूखी ईख।
जीवन का रस प्रेम है,
सीख सके तो सीख ।। 625 ।।
क्रमश:

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