कंगन शोभा न हाथ की, हाथ की शोभा दान
व्यक्ति को जब ज्ञान, भक्ति और प्रेम की समन्वित पराकाष्ठा प्राप्त होती है तो देवत्व का जागरण होता है, जिससे भगवत्ता प्राप्त होती है। तब यह सात्विक तेज दिव्य आत्माओं के मुखमण्डल पर आभामण्डल (ORA) बनके छा जाता है। इसे ही सौम्यता कहते हैम, दिव्यता कहते हैं। भगवान राम, भगवान कृष्ण, महात्मा गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, गुरु नानक, महर्षि देव दयानन्द, मीराबाई, इशामसीह इत्यादि दिव्य आत्माएँ इसके प्रामाणिक उदाहरण हैं। जो पुण्यात्माएँ इस दिव्यता अथवा सौम्यता को प्राप्त हो जाती हैं, उनके सानिध्य में आकार विरोधी प्रवृत्ति के प्राणी भी अपना स्वभाव भूल जाते हैं। इसका सशक्त और वंदनीय उदाहरण भगवान शिव हैं।
गुण से मिलती श्रेष्ठता,
मत आसन पै डॉल।
कौआ न कोयल बन सके,
कर्कश बोले बोल ॥582॥
आत्मश्लाघा जो करे,
नर ओछो कहलाय।
हीरा सदा खामोश रहै,
बोली और ही लगाय ॥583॥
सोने का आश्रय मिले,
हीरे का बढ़े मोल।
चाहे कोई सर्वज्ञ हो,
निराश्रित का नहीं मोल ॥584॥
भाव यह है कि गुणी व्यक्ति भी आश्रय के बिना समाज में वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता जिसकी उसको अपेक्षा होती है।
सत्याचरण है तप बड़ा,
भ्रष्टाचार महापाप।
यदि मनुष्य में प्रेम है,
तो सब गुण आवें आप ॥585॥
वस्त्रहीन को वस्त्र दे,
भूखे को अन्न-दान।
औषधि देवै रोगी को,
सबसे दान महान ॥586॥
कंगन शोभा न हाथ की,
हाथ की शोभा दान।
धन से तृप्ति ना मिले,
तृप्ति दे सम्मान ॥587॥
उनकी पीड़ा हरी हरै,
जो करते उपकार।
पग-पग पर लक्ष्मी करे,
यश धन की बौछार ॥588॥
केतकी में कांटे बहुत,
फल से भी कंगाल।
एक सुगंध के कारनै,
लिपटे रहत हैं व्याल ॥589॥
भाव यह है कि यदि व्यक्ति में एक भी गुण श्रेष्ठ हो तो अन्य दोष छिप जाते हैं। 

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