सद्गुण और सुख को हरै, जब आवै अभिमान
नोट : संसार में विद्या, यश, बल, त्याग ऊंचा कुल, धन, रूप तो क्षणिक हैं। जैसे केंसर की गांठें होती हैं, ठीक इसी प्रकार ये हमारे मानस में सात प्रकार के अहंकार की गांठें हैं। इनका चित्त में निर्माण मत होने दो, क्योंकि इनसे निकलना कोई खाला जी का घर नही।

पिछले जनम के पाप तै,
बुद्घि होय मलीन।
पराभूत करें देवगण,
यश धन लेवें छीन ।। 316।।

उदित होय कोई पुण्य जब,
बुद्घि निर्मल होय।
मदद करें सब देवगण,
मिट्टी सोना होय ।। 317।।

जैसे रूचि बढ़ै पुण्य में,
सिद्घ मनोरथ होय।
सारभूत यह सत्य है,
बिरला समझै कोय ।। 318।।

भावदुष्ट का वेद भी,
कर न सकें कल्याण।
नीरद बरसै टूटकै,
नमी रहित पाषाण।। 319।।

भावदुष्ट से अभिप्राय है-जिसकी भावनाएं गंदी हैं, जो जानबूझ अपराध करता है।
समझावै ब्रह्मा यदि,
पूगा न पण्डित होय।
कोयला उज्ज्वल हो नही,
वृथा साबुन खोय ।। 320।।

पूगा (अष्टाध्यायी 5/3/112) का अर्थ है-नाना प्रकार की अनियतवृत्ति वाला, काम प्रधान कुत्सित संघ वाला।

अग्नि परखै स्वर्ण को,
भद्र को परखै शील।
कुल को परखै आचरण,
नियम को परखै ढील ।। 321।।

सद्गुण और सुख को हरै,
जब आवै अभिमान।
मैं का वासा देख कै,
दूर जाए भगवान ।। 322।।

धन वैभव को कुलीनता,
समझें कुछ अज्ञान।
कुलीनता वह भावना,
जिसको लाज का ध्यान ।। 323।।

कलंकित करता पाप है,
अपयश को फेेलाय।
फल भोगै गिरै गर्त में,
मन ही मन पछताय ।। 324।।

श्रेष्ठ कर्म करता पुरूष,
महापुरूष कहलाय।
प्रफुल्लित हृदय रहे,
उत्तम कीर्ति पाय ।। 325।।

नदिया पार और संत का,
कभी न खोजो मूल।
खिलते हुए गुलाब में,
मत गिन इनके शूल।। 326।।

वीर भोगते वसुंधरा,
या भोगै विद्वान।
अथवा भोगै अनुभवी,
जिसे राज्य का ज्ञान ।। 327।।

मन वाणी और कर्म से,
जो तुम्हें कष्ट पहुंचाए।
हरि का एक दिन न्याय हो,
आक्रोष्टा जल जाए ।। 328।। क्रमश:

 

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