जिस रसना पै हरि बसै, मत बो उस पर शूल

माया से तदाकार हो,
बढ़ता गया अहंकार।
तदाकार हो ज्योति से
मिलै मुक्ति का द्वार ।। 186।।

जिस रसना पै हरि बसै,
मत बो उस पर शूल।
रसना को कर काबू में,
बरसते रहें नित फूल।। 187।।

यातरा है अनंत की,
बहुत ही ऊंचा ध्येय।
सफर सुहाना तब बनै,
बांध पीठ पाथेय ।। 188।।

धनी होय धर्मात्मा,
विनयशील हो वीर।
ढूंढ़े दुर्लभ ही मिलें,
पुण्यशील गंभीर ।। 189।।

‘विजय’ या संसार में,
क्यों भूलयो निज गेह।
ममता माया छूट जा,
कर उससे तू नेह।। 190।।

काल शिकारी सामने,
खींचे खड़यो है तीर।
परम तत्व को जान ले,
मिटै जनम-जनम की पीर।। 199।।

दो को हमेशा याद रख,
मृत्यु और भगवान।
दो को करके भूल जा,
पुण्यकर्म और दान।। 192।।

समरथ दानी एक संग,
जग में दुर्लभ दोय।
पीड़ा समझै और हरे,
ऐसा बिरला कोय।। 193।।

धन का संचय सब करें,
पर निज नाम ही होय।
नारायण के नाम पर,
बिरला खरचै कोय।। 194।।

आत्मनिरीक्षण रोज कर,
जो चाहे कल्याण।
निज दोषों को दूर कर,
तब होगा उत्थान।। 195।।

वाणी और व्यवहार की,
कभी न करना भूल।
जीवन भर चुभती रहे,
ज्यों हृदय में शूल।। 196।।

धैर्य और उत्साह से,
सदा रहो भरपूर।
विद्या के सूरज बनो,
व्यसनों से रहो दूर।। 197।।

पृथ्वीपति नरपति हुए,
कितने हुए महाराज।
ऐसा तो दुर्लभ भयो,
जो बनै प्रभु का साज।। 198।।

तीनों की परवाह न कर,
अपमान, उपेक्षा, विरोध।
तीनों को रख काबू में,
वाणी, बैर, विरोध ।। 199।।

अपनी पत्नी और धन,
भोजन में चित लाय।
तीनों में संतोष कर,
मन को मत ललचाय।। 200।।

जप तप दान को नित्य कर,
मत कर तू संतोष।
साथ चलें परलोक को,
भर ले इनसे कोष ।। 201।।

मन का करना दमन जो,
धन का करता दान।
जीवों पर करता दया,
है कोई संत महान।। 202।।

तन के बंधन रोग हैं,
मन के पांच विकार।
जीव का बंधन पाप है,
कर इनका उपचार ।। 203।।

नोट:-(1) तन के बंधन रोग हैं। इनका निवारण प्राणायाम तथा व्यायाम के द्वारा एवं आहार, निद्रा और ब्रह्मïचर्य पर ध्यान देने से होता है। अत: इनके प्रति सदैव सतर्क रहो।
(2) मन के बंधन विषय वासनाएं और मन के पांच विकार :-काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार हैं। इन्हें शुभ संकल्पों से जीता जा सकता है। जैसे वासना को उपासना में बदल दो, क्रोध को करूणा में बदल दो, काम को भक्ति में, लोभ को संतोष में, अहंकार को समर्पण में और मोह को त्याग में अर्थात उदारता में बदल दो।
क्रमश:

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