बवंडर में फंसे अखिलेश

अमलेन्दु उपाध्याय

akhilesh yadav

उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव आजकल मीडिया के निशाने पर हैं। हालांकि यह निशाना तो लगभग एक वर्ष पूर्व ही शुरू हो गया था लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद मीडिया की आक्रामकता में अचानक बहुत तेजी आ गई है। एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका ने तो अपनी कवर स्टोरी ही अखिलेश यादव को “वर्स्ट चीफमिनिस्टर” घोषित करते हुए की है। बदायूँ के कथित गैंग रेप के बहाने भी अखिलेश यादव को घेरने के प्रयास हुए। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अखिलेश यादव वास्तव में वी.पी. सिंह, श्रीपति मिश्रा और कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह या रामप्रकाश गुप्ता अथवा मायावती के मुकाबले भी “वर्स्ट चीफमिनिस्टर” साबित हुए हैं ? सवाल कठिन है और उत्तर बहुत आसान। एक शब्द में उत्तर है “नहीं”। फिर इतना हल्ला क्यों ? दरअसल अखिलेश यादव महाभारत के अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंस गए हैं और मजेदार बात यह है कि इस चक्रव्यूह को रचने वालों में उनके सगे संबंधी ही सबसे आगे हैं। मीडिया या भाजपा तो द्वीतीयक कारण हैं असल चक्रव्यूह की रचना तो सैफई से ही रची जा रही है।

जिस तरह की नकारात्मक खबरें इस वक्त अखिलेश यादव के खिलाफ मीडिया में प्लांट हो रही हैं इसी तरह की खबरें पिछली मुलायम सरकार में मुलायम के अनुज शिवपाल यादव के खिलाफ प्लांट होती थीं और कमोबेश उन खबरों को भी प्लांट करवाने वाली लॉबी वही होती थी जो आज अखिलेश के खिलाफ खबरें प्लांट करवा रही है। यहीं सवाल खड़ा होता है कि अगर मुलायम सिंह की पिछली सरकार की बदनामी का कारण शिवपाल थे तो आज अखिलेश सरकार क्यों बदनाम हो रही है जबकि शिवपाल तो अखिलेश राज में हाशिए पर हैं?
यदि बेलाग और स्पष्ट कहा जाए तो समाजवादी पार्टी ने अपनी एक अच्छी संभावना की राजनैतिक भ्रूणहत्या स्वयं की है। जब 2012 में सपा सरकार बनी थी और मीडिया में मंगलगान गाए जा रहे थे, अखिलेश यादव की भक्ति में हमारे प्रबुद्ध मीडिया जन लहालोट हुए जा रहे थे, उस समय हमने धारा के विपरीत जाते हुए लिखा था कि “यह अखिलेश की जीत नहीं मायावती की हार है। अगर यह अखिलेश का करिश्मा है तो माया की हार कैसे है? और जो मीडिया आज अखिलेशमय नज़र आ रहा है वही चार महीने में उनके खिलाफ उसी तरह खड़ा नज़र आएगा जैसे पिछले पांच सालों में मायावती के खिलाफ खड़ा था और पिछली सरकार में मुलायम सिंह के खिलाफ खड़ा था।“ पता नहीं हमारा उस वक्त लिखा हुआ कितना सही साबित हुआ।
दरअसल 2012 में जब अखिलेश ने सूबे की कमान संभाली थी तो उन पर उम्मीदों का पहाड़ रख दिया गया था, उनकी एक दूरदर्शी, सौम्य और ऊर्जा से भरपूर एक ऐसे नौजवान राजनीतिज्ञ की छवि गढ़ी गई थी जो उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाकर रख देगा। ऐसा करना जरूरी भी था क्योंकि यह छवि न गढ़ी जाती तो कौन सी छवि आज तोड़ी जाती। संभवतः सपा यहीं पर चूक कर गई और वास्तव में अखिलेश यादव के अंदर जो ऊर्जा और अपनी पारिवारिक परंपरा से हटकर राजनीति करने की क्षमता है, उसको उनके परिजनों ने ही कुचला। जबकि यह सपा के लिए एक सुअवसर था, वह अखिलेश को मजबूत करके अपने पुराने दाग़ धब्बे मिटा सकती थी। पूर्ण बहुमत के साथ सूबे के अवाम ने सत्ता सौंपी थी और इसका सदुपयोग करते हुए ऐसे फैसले लिए जा सकते थे जो जनता में पैठ बनाते, लेकिन हुआ इसका उल्टा। पार्टी ने अपने दाग़-धब्बे अखिलेश के माथे भी मढ़ दिए।

पिछले दो वर्ष के दौरान कई बार ऐसे अवसर आए जब सैफई राजवंश के अंतर्विरोध खुलकर सतह पर आए और साफ लगा कि सब कुछ अखिलेश का डैमेज करने के लिए ही किया जा रहा है। और तो और स्वयं मुलायम सिंह यादव भी कहीं न कहीं अखिलेश को ही डैमज करते ही नजर आए। सार्वजनिक रूप से मुलायम ने भी अखिलेश के ऊपर टिप्पणियां कीं जिनसे स्पष्ट संदेश गया कि सूबे की कमान पार्टी ने एक बच्चे के हाथ में दे दी है, जबकि वस्तुस्थिति इसके एकदम पलट है। अखिलेश के हाथ में दिखाने के लिए तो कमान थी लेकिन पर्दे के पीछे से सारा खेल तो सैफई राजवंश ही संचालित कर रहा था। वरना क्या कारण थे कि मुख्यमंत्री कार्यालय में जिन अधिकारियों की नियुक्तियां हुईं वे सभी वे अधिकारी थे जो मुलायम राज में भी मुख्यमंत्री कार्यालय में राज करते थे और जिनसे सपा कार्यकर्ताओं की जबर्दस्त नाराजगी रहती थी।

याद पड़ता है कि 1993 में देहरादून में समाजवादी पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं का एक प्रशिक्षण शिविर लगवाया गया था, जो संभवतः सही मायनों में सपा का अभी तक का इकलौता प्रशिक्षण शिविर साबित हुआ। उस प्रशिक्षण शिविर में अचानक मुलायम सिंह यादव ने कार्यकर्ताओं को ज्ञान बांटा था (हालांकि उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी) कि अगर किसी मुख्यमंत्री को सफल होना है तो उसे कुछ महत्वपूर्ण अधिकारी अपने भरोसे के तैनात करने चाहिएं जैसे मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव-गृह, वित्त सचिव, प्रमुख सचिव-मुख्यमंत्री और पुलिस महानिदेशक। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव को सूबे की कमान सौंपते वक्त यह मंत्र उन्हें देना भूल गए या जानबूझकर नहीं दिया ? क्या कहा जा सकता है कि इन अधिकारियों में से कोई भी पिछले दो वर्ष में मुख्यमंत्री की मर्जी का तैनात हुआ ? यदि ऐसा होता तो क्या मुजफ्फरनगर में जो हुआ वह हो पाता ? फिर अखिलेश यादव को एक सफ़ल मुख्यमंत्री के रूप में कैसे देखा जा सकता है ? जाहिर है इन अंदरूनी सवालों के सही जवाब सपा के अंदर ही हैं, बाहर या मीडिया में नहीं।
जिस कानून व्यवस्था को लेकर आज अखिलेश सरकार सवालों के घेरे में खड़ी की जा रही है, उसका दूसरा पक्ष भी है कि स्वयं अखिलेश यादव ने किसी भी अपराधी को न तो संरक्षण दिया है, न उसका बचाव किया है और न उनकी टीम में कोई भी व्यक्ति अपराधी चरित्र या आपराधिक इतिहास का है। इसलिए अगर इतने के बावजूद भी कानून व्यवस्था लचर है (जैसा कि कहा जा रहा है) तो समस्या अखिलेश के नेतृत्व में नहीं, सपा के हाईकमान में है। मीडिया और विपक्ष तो सिर्फ मुद्दे को लपक रहे हैं बस।

अगर चुनाव के पहले ही पार्टी का एक महासचिव सार्वजनिक तौर पर बयान दे कि अगर हम मुख्यमंत्री होते तो हड़तालियों को ठीक कर देते, तो इस वक्तव्य का असल मकसद समझा जा सकता है और चुनाव पूर्व माहौल खराब करने में इस वक्तव्य की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। या मुख्यमंत्री की पूँछ बनकर हर समय साथ लटके रहने वाले जनाधारविहीन पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी के खिलाफ कोई महासचिव सार्वजनिक बयान दे कि प्रवक्ता की हैसियत उनसे सवाल पूछने की नहीं है, तो यह हमला प्रवक्ता पर नहीं बल्कि मुख्यमंत्री पर है। और इसके बाद भी मुख्यमंत्री मन मसोस कर रह जाए तो जाहिर है कि महासचिव महोदय को शह किसी मजबूत जगह से प्राप्त है।

अब जो हालात बन रहे हैं उसमें यदि मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी अपना भविष्य सुरक्षित रखना चाहते हैं तो मुख्यमंत्री को फ्री हैंड दें। प्रशासनिक कार्यों में पर्दे के पीछे से अदृश्य शक्तियों की दखलंदाजी बंद हो ताकि मुख्यमंत्री की जो असल क्षमता है वह सामने आए वरना न जाने किस-किस के कर्मों का फल अखिलेश और सपा का भुगतना पड़ेगा। वैसे भी अगर पार्टी यह समझती है कि अखिलेश अभी अनुभवी नहीं हैं तो भी पार्टी का जितना बिगड़ चुका है उससे ज्यादा तो बिगड़ने से रहा, हां अगर अखिलेश को अपनी क्षमता दिखाने की खुली छूट दी गई तो हालात सुधर भी सकते हैं। पार्टी को अब यह भी समझना होगा कि अखिलेश में ही क्षमता है कि वह मुलायम सिंह के बाद पार्टी को एकजुट रखकर आगे ले जा सकें वरना सपा को राष्ट्रीय लोकदल बनने में अधिक समय नहीं लगेगा। इसलिए सैफई के विद्वानों को यह तथ्य अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि अखिलेश को कमजोर करने की उनकी हरकतें पूरी पार्टी (और स्वयं उन्हें भी) को नुकसान पहुंचाएंगी और नौएडा, गाजियाबाद में उनका जो साम्राज्य चल रहा है वह आखिरी ही साबित होगा। … यदुवंशी अखिलेश यादव को भी समझना होगा कि श्री कृष्ण ने युद्ध क्षेत्र में जो ज्ञान अर्जुन को दिया था वह ज्ञान उनके लिए भी है कि राजनीति में मोह से ऊपर उठकर निर्मम फैसले भी लेने होते हैं। देखना यह है कि क्या अखिलेश यादव अपने इर्द-गिर्द रचे जा रहे इस चक्रव्यूह, जिसे मीडिया, भारतीय जनता पार्टी और उनके स्वयं उनके नजदीकियों ने तैयार किया है, को तोड़ पाते हैं या अभिमन्यु की राजनीतिक गति को प्राप्त होते हैं! मीडिया के खिलाफ अखिलेश चुनाव से पूर्व ही मोर्चा खोल चुके हैं, भाजपा से उनकी पार्टी की अंदरूनी सांठ-गांठ की खबरें आईं नतीजा सामने है अब उन्हें भाजपा से भी आर-पार की लड़ाई लड़नी है। 2017 में या भाजपा की कृपा से उससे पहले ही नौबत आई तो उनकी लड़ाई अब बसपा से नहीं भाजपा से ही होगी। लेकिन इन सारी लड़ाइयों को लड़ने के लिए पहले घर की जंग जीतना होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक समीक्षक हैं। हस्तक्षेप डॉट कॉम के संपादक)

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