फिर बेनक़ाब हुआ पाक का ‘नापाक’ चेहरा

तनवीर जाफ़री
पाकिस्तान की जेल में लगभग 22 वर्ष बिताने वाले भारतीय कैदी सरबजीत की गत् 26 अप्रैल को जेल में किए गए एक जानलेवा हमले के कारण आख़िरकार मौत हो ही गई। गौरतलब है कि सरबजीत को 1990 में लाहौर व फैसलाबाद में हुए बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। इन धमाकों में 14 व्यक्तियों की मौत हो गई थी तथा कई लोग घायल हो गए थे। इन आरोपों के अतिरिक्त सरबजीत पर पाकिस्तान ने भारत के लिए जासूसी करने का इल्ज़ाम भी लगाया था। सरबजीत को सैन्य कानून के अंतर्गत पाकिस्तान की अदालत ने उपरोक्त मामलों में संलिप्त बताते हुए मौत की सज़ा सुनाई थी दूसरी ओर सरबजीत का परिवार इसे गलत पहचान का मामला बताता रहा। उनके परिजनों का कहना था कि सरबजीत शराब के नशे में गलती से सीमा पार कर गया था। और उसे बम विस्फोट के जुर्म में नाजायज़ फंसाया गया है। बहरहाल, 22 वर्षों से अधिक समय तक चली इस कानूनी जंग में तमाम उतार-चढ़ाव आए। अपनी फांसी की सज़ा के विरुद्ध सरबजीत की ओर से मार्च 2006 में दायर समीक्षा याचिका अदालत द्वारा ख़ारिज कर दी गई। उसके पश्चात सरबजीत की ओर से दया याचिका दाखिल की गई जो मार्च 2008 में तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने वापस लौटा दी। इस बीच भारत सरकार की ओर से सरबजीत की रिहाई के लिए कूटनीतिक स्तर पर काफी प्रयास किए गए जिसके परिणामस्वरूप मई 2008 में पाकिस्तान की सरकार ने सरबजीत को फांसी दिए जाने पर अनिश्चितकालीन अवधि के लिए रोक भी लगा दी।
इसके पश्चात मई 2012 में सरबजीत की ओर से रिहाई के लिए एक और याचिका दायर की गई। इस याचिका को दायर करने के लगभग एक महीने के भीतर अर्थात् 26 जून 2012 को यह समाचार आया कि राष्ट्रपति आसिफ़ अली ज़रदारी ने सरबजीत को रिहा किए जाने के आदेश दे दिए हैं। उस समय भारत में विशेषकर सरबजीत के परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई। परंतु ज़रदारी द्वारा सरबजीत की रिहाई का आदेश दिए जाने के चार-पांच घंटे के भीतर ही सरबजीत की रिहाई की खबर पर पानी फिर गया। और पाकिस्तान की ओर से दूसरी खबर जारी की गई कि पाकिस्तान ने सरबजीत की नहीं बल्कि सुरजीत सिंह की रिहाई के आदेश जारी किए हैं। और इस प्रकार सुरजीत सिंह नामक एक और भारतीय कैदी तो पाकिस्तान से रिहा होकर भारत आ गया परंतु सरबजीत इस बार भी रिहा न हो सका। और आख़िरकार उसे पाकिस्तान में सक्रिय एवं मज़बूत होती जा रही कट्टरपंथी ताकतों द्वारा रची गई एक बड़ी साज़िश का शिकार होते हुए अपनी जान गंवानी पड़ी। सरबजीत की मौत ने एक बार फिर भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर कई तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं। हालांकि पाकिस्तान सरबजीत की मौत को महज़ क़ैदियों के बीच हुए लड़ाई-झगड़े जैसा एक साधारण हादसा बताकर अपनी साज़िश पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है। परंतु पाकिस्तान के लिए ऐसा कर पाना कतई मुमकिन नहीं।
सरबजीत सिंह लाहौर की कोट लखपत जेल में बंद एक ऐसा भारतीय कैदी था जिसपर पाकिस्तान ने बम विस्फोट कराने व 14 लोगों की हत्या किए जाने का आरोप लगाया था तथा इसी जुर्म में उसे फांसी की सज़ा भी सुनाई गई थी। सवाल यह है कि इतने संगीन अपराधों को अंजाम देने वाला कैदी दूसरे साधारण क़ैदियों के संपर्क में कैसे आया? दूसरी बात यह है कि सरबजीत पर हमला करने वाले लोगों के हाथों में धारदार व नुकीली लोहे की वस्तुएं जिन्हें हम शस्त्र भी कह सकते हैं, आखिर कैसे पहुंचीं? इसके पश्चात जब सरबजीत पर हमला हो गया और उसके सिर पर गंभीर चोट के निशान भी देखे गए तथा वह फ़ौरन बेहोश भी हो गया ऐसे में उसे तत्काल बेहतरीन चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने हेतु किसी बड़े अस्पताल में क्यों नहीं ले जाया गया? पाकिस्तान पर आरोप यह भी है कि उसने न सिर्फ सरबजीत को जानबूझ कर एक साज़िश के तहत लगभग 6 क़ैदी हमलावरों के संपर्क में आने के हालात पैदा किए बल्कि हमला हो जाने के बाद उसके इलाज में वक़्त गुज़ारने की रणनीति अपनाकर उसका रक्तस्राव होते रहने दिया तथा उसे मौत के मुंह में जाने के लिए मजबूर कर दिया। इतना ही नहीं बल्कि सरबजीत पर हमला करने वाले क़ैदियों ने भी यह स्वीकार किया कि उन्होंने सरबजीत पर यह हमला कोट लखपत जेल के सुप्रिटेंडेंट के कहने पर किया। ऐसे में एक सवाल यह भी है कि आख़िर उस जेल के सुपरिटेंडेंट ने किस के कहने पर उन क़ैदियों को सरबजीत सिंह पर जानलेवा हमला करने का आदेश दिया? बहरहाल सरबजीत की मौत के बाद भारत-पाक संबंधों पर एक बार फिर से काले बादल मंडराने लगे हैं। अभी कुछ ही दिन बीते हैं जबकि पाकिस्तानी सैनिक दो भारतीय सैनिकों के सिर काटकर अपने साथ ले गए थे। इन हालात में भारत में भी अंदरूनी तौर पर सरकार व सेना पर यह दबाव बढऩे लगा है कि अब पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों की तथा खासतौर पर भारत की विदेश नीति की पुनर्समीक्षा की जानी चाहिए। दुनिया में भारतवर्ष की पहचान एक उदार देश अथवा ‘साफ़्ट स्टेट’ के रूप में बनी हुई है। ठीक उसी तरह जैसे कि पाकिस्तान को आतंकवाद को पनाह देने वाले तथा आतंकवाद को पैदा करने वाले व बढ़ावा देने वाले देश के रूप में जाना जाता है। चीन की पहचान एक विस्तारवादी देश के रूप में उसी प्रकार भारत दुनिया में एक उदार देश के रूप में चिन्हित किया जाता है। सवाल यह है कि हमारी यह पहचान जिसका आधार हमारी विदेश नीति है कहीं हमारे लिए घातक साबित होने तो नहीं जा रही? जिस पाकिस्तान ने समय-समय पर भारत से अपने मुंह की खाई, जिस भारत के समक्ष 1971 में पाकिस्तान ने विश्व का अब तक का सबसे बड़ा सैन्य समर्पण किया हो, कारगिल घुसपैठ के समय जिस पाक सेना को मात्र चंद दिनों में भारतीय सेना ने खदेड़ कर पीठ दिखाने के लिए मजबूर कर दिया हो वही पाकिस्तान अब तरह-तरह के ओछे हथकंडे अपना कर भारत को बार-बार गोया चुनौती देने की कोशिश कर रहा है। यह घटनाएं हमें यह सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि आख़िर ऐसे वातावरण में जबकि भारत व पाकिस्तान उद्योग,व्यापार, संगीत,साहित्य, शिक्षा स्वास्थय आदि तमाम क्षेत्रों में परस्पर सहयोग बढ़ाने के लिए बातचीत करते रहते हैं, इन पर अमल करने की कोशिशें करते रहते हैं ऐसे में भारतीय फ़ौजियों के सिर काटकर ले जाने अथवा सरबजीत सिंह की साज़िश के तहत जेल में हत्या कराए जाने या फिर 26/11 को मुंबई में हुए हमले की पाकिस्तान में बैठकर साज़िश रचने जैसी घटनाओं का आख़िर क्या कारण है? सरबजीत की शहादत के बाद जहां भारतीय विश्लेषक व समीक्षक इस घटना पर गम और गुस्से के इज़हार करते देखे जा रहे हैं वहीं पाकिस्तान की ओर से अपने देश का बचाव करने वाले कुछ ज़िम्मेदार लोगों की प्रतिक्रियाएं तथा उनके वक्तव्य भी क़ाबिल ए ग़ौर है। उदाहरण के तौर पर पाकिस्तान के एक पूर्व एडमिरल सरबजीत मामले में पाकिस्तान का बचाव करते हुए 1971 में बंगला देश युद्ध के दौरान भारत की भूमिका को याद करते हुए साफ़तौर पर देखे गए। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने कश्मीर विवाद को भी अपने बचाव के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। इन बातों से साफ ज़ाहिर है कि न तो पाकिस्तान 1971 के पाक विभाजन को भूल पा रहा है और न ही कश्मीर पर भारत की संप्रभुता उसे रास आ रही है। निश्चित रूप से कश्मीर के अलगाववादी आंदोलन को पाकिस्तान की ओर से दिया जाने वाला समर्थन व सहयोग ही कश्मीर संबंधी आंदोलन को हवा देने का एक प्रमुख कारण है। पाकिस्तान, कश्मीर आंदोलन को केवल समर्थन ही नहीं देता बल्कि पैसा, हथियार तथा आतंकवादियों की फौज भेजकर भी कश्मीर व भारत को अस्थिर बनाने का प्रयास करता रहता है। पाक शासकों की यह कितनी दोगली नीति है कि एक ओर तो वे दुनिया को दिखाने के लिए भारत के साथ मधुर संबंध बनाने का ढोंग करते हुए विभिन्न स्तर पर वार्ताओं के दौर चलाते हैं तो दूसरी ओर घुसपैठ,आतंकवाद प्रशिक्षण, सरबजीत की हत्या व भारतीय सैनिकों का गला काटने जैसी दुस्साहसिक घटनाओं को भी अंजाम देते हैं। गोया वह 1971 के अपने विभाजन के दर्द को अभी भी भूलना नहीं चाहते। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि 1971 में पाकिस्तान सेना को भारत के समक्ष जिस ऐतिहासिक हार व अपमान का सामना करना पड़ा था वह स्थिति पाक सेना के समक्ष 1971 से पहले और बाद में भी कभी नहीं पैदा हुई। और चूंकि पाकिस्तान शासन पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सैन्य नियंत्रण ही रहता है इसलिए पाकिस्तान के शासक 1971 में हुए अपनी सेना की पराजय व अपमान को भुला नहीं पाते।
इन परिस्थितियों में आख़िरकार हमें यह सोचना ही पड़ेगा कि अपने दिल में 1971 का दर्द स्थायी रूप से समाकर बैठने वाले पाकिस्तान के साथ आखिर भविष्य में कैसे संबंध रखे जाएं? हमें यह भी सोचना होगा कि बावजूद इसके कि हम दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हैं तथा आर्थिक रूप से भी हमारी ताकत दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में पाकिस्तान जैसे आतंकवाद को प्रशिक्षण व संरक्षण देने वाले व आए दिन आत्मघाती बम धमाकों में हज़ारों बेगुनाहों को मौत की नींद सुलाने वाले इस नापाक देश के साथ कैसे संबंध रखे जाएं? कहीं हमारी उदार देश की छवि हमें नुक़सान तो नहीं पहुंचा रही? कहीं हमारी उदार छवि दुनिया के सामने हमारे देश की बुज़दिली का मापदंड तो स्थापित नहीं कर रही? इन सभी बिंदुओं पर यथाशीघ्र विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि सरबजीत की हत्या कराए जाने के बाद अपनी ओछी व उदंडतापूर्ण हरकतों से बाज़ न आने वाले पाक का नापाक चेहरा एक बार फिर बेनकाब हो गया है।

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