जरदारी, गद्दारी और भारत की वफादारी

पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी भारत की निजी यात्रा पर आये और अजमेर शरीफ के लिए 5 करोड रूपये देने की घोषणा करके स्वदेश लौट गये। उन्होंने भारत सरकार की इस्तकबाली को सराहा और भारत के वजीरे आजम सरदार मनमोहन सिंह को पाकिस्तान आने का निमंत्रण भी दिया। जिसे भारत के प्रधानमंत्री ने बडी खुशी से स्वीकार कर लिया।
हमारे देश में पाकिस्तानी शासकों की यात्रा पर बडी उम्मीदों भरे भविष्य की संभावनाएं तलाशने का काम आजादी के बाद से ही होता आया है। उम्मीदों में जीना कोई बुरी बात भी नहीं है, पर जब उम्मीदों पर पानी फेरने का बार बार प्रयास किया जाए और हम फिर भी उम्मीदों को गले लगाने का पाखंड करें तो इसे हमारा बचपना ही कहना पडेगा। 65 वर्ष में हमें इतनी अक्ल आ जानी चाहिए थी कि हम पाक के साथ अपनी वार्ता की शुरूआत 1947 से ही करें, क्योंकि उम्मीदों के गुब्बार पर पानी फेरने वाल सोच 1947 मेें ही पैदा हो गयी थी और वह आज भी कश्मीर समस्या के रूप में जीवित है। पाकिस्तान अपने देश में वास्तविक लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष शासन स्थापित नहीं करा पाया। यद्यपि जिन्ना ने पाकिस्तान की असैबली में अपने पहले भाषण में लोकतांत्रिक पंथनिरपेक्ष पाकिस्तान के निर्माण का ही संकल्प लिया था उनके उस संकल्प के कारण पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को जीने की कुछ उम्मीद लगी थी। लेकिन पाकिस्तान में वास्तविक लोकतंत्र कभी नहीं रहा और ना ही पंथनिरपेक्षता वहां जीवित रही। फलस्वरूप पाकिस्तान के ढाई करोड हिंदू आज 40 लाख रह गये हैं। भारत की सरकार अपनी वार्ता की गुत्थी में उल्झी रही कि वार्ता कहां से शुरू हो, वह कह ही नहंी पायी कि हिंदुओं के साथ आपके यहां इतनी बदसलूकी क्यों हो रही है? जबकि पाकिस्तान हिंदुस्तान के मुसलमानों का सदा हमदर्द बनने का नाटक करता रहा। उसके नाटक को हमने मान्यता दी और उसी मान्यता के कारण पाकिस्तान का राष्ट्रपति भारत में आकर अजमेर की दरगाह के लिए पांच करोड़ रूपये दे गया। भारत की सरकार ताली बजाने वालों में शामिल हो गयी।
अब भारत के प्रधानमंत्री इस्लामाबाद जाएंगे। हमें पूरी उम्मीद है कि सरदार मनमोहन सिंह वहां जाकर अपने सिक्ख गुरूओं से जुड़े ऐतिहासिक पवित्र स्थलों और पाण्डवों व अन्य ऐतिहासिक राजाओं से जुड़े ऐतिहासिक महत्व के स्थलों के जीर्णोद्वार के लिए एक कोड़ी देने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाएंगे। हमारे राजनीतिक नेतृत्व की इसी कमजोरी का फायदा पाकिस्तान उठाता आया है, और वह भारत पर हावी होने के हर दांव को चूकता नहीं है। उसे हमारी टीम क्रिकेट में हरा सकती है, हमारे सैनिक मैदान में हरा सकते हैं
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जरदारी, गद्दारी….
पर वह हमें वार्ता की मेज पर हराकर चला जाता है। क्या करें ऐसे नेतृत्व के लिए? पाक से वार्ता के समय हमारे नेताओं की कोशिशा रहती है कि हम घावों को कुरेदेंगे नहीं, उन्हें छेडेंगे भी नहीं, उन पर मरहम भी नहीं लगाएंगे, उन्हें उनके हाल पर खुला छोड़ देंगे। बस तुम आ गये, हमारे लिये तो यही काफी है। अब तुम आ गये हो तो इतना तो कह ही जाओ कि हम दोनों मुल्कों की उन्नति चाहते हैं और एक साथ मिलकर चलने में विश्वास रखते हैं। आप इतना कह देंगे तो हम आपके लिए ताली बजवा देंगे और कहेंगे कि आपकी यात्रा सफल रही। पाक हमारे नेेेेताओं की इस कमजोरी को जानता है, इसलिए वह ऐसा ही करता है और फिर कुछ समय बाद एक नया आतंकी हमला करा देता है। यात्रा तक वह जरदारी रहता है, फिर गद्दारी पर उतरता है और हम अपनी वफादारी की चूडिय़ां खनकाते रहते हैं। बेगम साहिबा पर्दे के पीछे बैठकर और कर भी क्या सकती हैं?
बाबा ने फिर….
आकर्षित कर लेने मात्र से देश का भला नहीं होने वाला। देश की भलाई के लिए कुछ ठोस और रचनात्मक कार्य करने की आवश्यकता है। बाबा के पास ऊर्जा है साधन हैं, उत्साह है पर दिशाहीनता के कारण सही रास्ता नहीं मिल रहा है। इसलिए सही रास्ता पाने की उलझन से बाबा को पहले निकलना पड़ेगा।

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