चिपियाना गांव का : कुत्ते का तालाब

हरि शंकर शर्मा
कुत्ते का तालाब! जी हां एक दम सच।
गाजियाबाद के लालकुआं से लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर दूर चिपियाना ग्राम में स्थित है कुत्ते का तालाब एवं समाधि। इस देश को भगवान का वरदान कहें या अंधविश्वास अथवा आस्था कि कहीं कोढ़ को, कहीं बाय को तो कहीं कुत्ते के काटे को ठीक करने वाले कुएं अथवा तालाब हैं। इस कुत्ते के तालाब में नहाने मात्र से कुत्ते काटे का असर दूर हो जाता है। यह केवल अंधविश्वास ही नही वरन एक दम सच है। दूर दूर से ऐसे मरीज यहां स्नान करके अपने पहने हुए कपड़े छोड़ देते हैं। समाधि पर स्थित कुत्ते की प्रतिमा के चरण स्पर्श करके अपनी श्रद्घानुसार कुछ दक्षिणा चढ़ाते हैं और ठीक हो जाते हैं इन अनुष्ठानों को करने से मरीज के अकड़ाहट आदि लक्षण तुरंत समाप्त हो जाते हैं। इस तालाब का सीधा संबंध यहां से लगभग एक सौ किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर जनपद स्थित नरा गांव से है। नरा में भी एक टीले पर इसी लक्खी बनजारे एवं कुत्ते की समाधि बनी है। यह नष्टïप्राय समाधि चारों ओर से खुली थी। जिसके बीच में तो लक्खी एवं उसकी पत्नी की समाधि बनी थी और छत में इस स्वामी भक्त कुत्ते की तस्वीर बनी थी। कुत्ते और लक्खी की कहानी जानने से पूर्व नरा के रोचक इतिहास को भी जानना आवश्यक है। इतिहास के जानकार बताते हैं कि नरा का पूर्ववर्ती नाम नरवरगढ़ था। यहां का राजा नल था। नल दमयंती की कहानी अत्यधिक प्रसिद्घ है। नल के पुत्र ढोला का विवाह पिंगल गढ़ी की राजकुमारी एवं राजा बुध की पुत्री मरवन से हुआ था। (यह नल पौराणिक नही बल्कि बाद के हैं) लोक गाथाओं में आल्हा एवं बारह मासा की तर्ज पर गाया जाने वाला यह ढोला मारूं मरवन का किस्सा कंवर निहालदे के रूप में प्रसिद्घ है। इसके अनुसार बंजारों से नरवर गढ़ पर हमला भी किया था। इस संदर्भ में निम्न पंक्तियां दृष्टïव्य है।
मुगल काल में यह बारह सादात (देखें वाय बाला कुंआ) में सैयदों की जागीर रहा। वे सैयद दिल्ली बादशाह के यहां ऊंचे ऊंचे पदों पर प्रतिष्ठित थे। उस समय यह नरीवाला खेड़ा एवं नरागढ़ी दो भागों में विभक्त था। नरागढ़ी बारह सादात में थी और नरीवाला खेड़ा यहां के ब्राह्मïणों के अधिकार में था। ये ब्राह्मïण भी लड़ाकू एवं योद्घा थे। डर नाम की चीज का इन्हें पता नही था। सदैव शस्त्रों से लैस सरहना इनका स्वभाव था। सैयद दिल्ली रहते थे और उनकी बेगमें की शिकायत पर सैय्यदों ने दिल्ली से घर आने की खुशी का बहाना बनाकर ब्राह्मïणों को भोजन का निमंत्रण भेज दिया। सभी ब्राह्मïण परंपरा के अनुसार अपने शस्त्र बाहर रखकर केवल अधोवस्त्र (धोती) किसी प्रकार उनकी एक गर्भवती स्त्री भाग कर परीक्षितिगढ़ के राजा जैत सिंह के राजा ज्योतिष पं. बीरूदत्त के पास भोखाहेड़ी (जानसठ के पास) जा पहुंची और उसको समस्त घटना सुनाई। जैत सिंह के आदेश पर नैन सिंह दो सौ जवानों के साथ आया और गढ़ी को बरबाद कर के ब्राह्मïणों का बदला चुकाया। गढ़ी को लूट कर उसमें आग लगा दी।
बेगमों ने हीरे जवाहरात आदि तो उठा लिये परंतु हथियार और सोना आदि कुंए में डाल दिया और दिल्ली चली गयी। इस प्रकार सैयदों का अध्याय समाप्त हुआ और गढी की शेष जनता दूर दूर जा बसी। गढ़ी को झाड़ झंखाड़ों ने अपने आगोश में ले लिया। कुछ समय पश्चात शाहआलम द्वितीय की फौज से आए हुए तीन राजपूत और एक बाल्मीकि सिपाही ने आकर इसको आबाद किया। यहां से पलायन किये हुए कई परिवारों को भी वापिस लाकर उन्होंने पुन: बसाया। इन परिवारों में वर्तमान के लाल सिंह एवं विश्वंभर धीमान के पूर्वज एवं बल्लन व जमैल सैनी के पूर्वज थे जिन्हें पास के बुपैड़ा ग्राम में लाया गया था।
गढ़ी का वह कुआं जिसमें शस्त्र और सोना आदि डाला गया था वर्तमान में शरीफ पुत्र शकरूलला के मकान में आकर बंद हो चुका है। इस नरवरगढ़ के 52 कुएं जमींदोज हो चुके हैं। आज भी यहां गढ़ी महलों के अवशेष दबे पड़े हैं। लगभ 15 फीट तक गहरे खोदने पर भी नींव का तल प्राप्त नही होता। खुदाई करने पर अनेक रहस्यों से पर्दा उठ सका है।
बनजारा (पहले घूम घूम कर बणज/व्यापार करने वाले को बनजारा कहा जाता था) किसी का कर्जदार हो गया। कर्जा चुकाने के दबाव में आकर लक्खी ने अपना स्वामी भक्त कुत्ता साहूकार को अमानत के तौर पर सौंप दिया। साहूकार के यहां डकैती पड़ी। कुत्ते ने पीछा किया। डकैतों ने चोरी का धन इस तालाब में डाल दिया। सुबह होने पर मालिकों के साथ जाकर कुत्ते ने यह धन बरामद करा दिया। साहूकार ने एक कागज पर कुत्ते ने कर्जा उतार दिया जैसा कुछ लिखकर कुत्ते के गले में बांधकर उसे छोड़ दिया। कुत्ते को लक्खी बंजारे ने आता देखा और उसे गद्दार समझकर दूर से ही गोली मार दी। कुत्ता मर गया। पास आकर गले का कागज पढ़ा तो बहुत पछताया और रोया। तभी से कहावत प्रसिद्घ हुई कि ऐसे पछताएगा जैसे कुत्ते को मारकर बंजारा पछताया था। बाद में लक्खी ने भी कुत्ते के शोक में आत्महत्या कर ली। उसकी पत्नी सती हो गयी। इस प्रकार कुत्ते ने धन चिपियाना गाजियाबाद में बरामद कराया तो नरा में उसको गोली लगी। दोनों स्थानों पर कुत्ते की समाधि बनाई गयी। नरा में बनजारा एवं कुत्ते की समाधि के नाम लगभग तीस बीघा भूमि थी जो कि शासन प्रशासन ने गत योजना में दलितों को दे दी। अब केवल कुछ गज भूमि में समाधि स्थल ही शेष बचा है। वह भी समाप्त प्राय सा है।
तालाब पर पहले लक्खी बनजारा, उसकी पत्नी एवं कुत्ते की प्रतिमाएं लगी थीं। किसी कारण दोनों प्रतिमाएं नष्टï हो गयीं और केवल कुत्ते की शेष रह गयी। एक बार समीप के जलालपुर गांव का एक कुम्हार कुत्ते की प्रतिमा चोरी से लेकर चला। कुछ दूर जाने पर कुम्हार पागल हो गया और कुत्ते की प्रतिमा को वहीं छोड़कर चला गया। ग्रामवासियों ने उस प्रतिमा को पुन: स्थापित किया।
एक बार इसी गांव के कुछ अराजक तत्वों ने खजाने की खोज में समाधि को खोद डाला और कुत्ते की प्रतिमा तोड़ दी। पता चलने पर शेष गांव वालों ने उन्हें रोका तो उनमें झगड़ा हुआ, दो चार मौतें भी हुईं। खजाना वहां नही मिला। कुछ दिन पश्चात लक्खी बनजारे के काफिले से संबंधित कुछ लोग बहुत से ऊंट लेकर आए और दोनों बम्हेटा (पास ही बम्हेटा नाम के दो गांव हैं) के बीच में किसी स्थान पर खुदाई कर खजाना निकाल कर ले गये। (संभवत: लक्खी की मृत्यु के वर्षों पश्चात)।
इतिहास खोजने पर ज्ञात होता है कि लक्खी बनजारा लक्खी लखपति ही न ही बल्कि करोड़पति मारवाड़ी बनजारा था। प्रसिद्घ लेखक एवं चिंतक आचार्य दीपंकर अपनी पुस्तक स्वाधीनता आंदोलन और मेरठ में लिखते हैं कि वह करोड़पति बनजारा अंग्रेजी राज का घोर शत्रु था। उसने आगरा से मुजफ्फरनगर तक अपने ठहरने के पड़ावों पर चार सौ कुएं बना रखे थे।
ग्रामीण कहावत है कि लक्खी बनजारा अपना ही पानी पीता था अर्थात वह जहां भी ठहरता था वही कुआं बनाता था। उसने 1857 के अस्थिर दिनों भांभोरी सरधना मेरठ एवं छुर के ग्रामीणों को अपने काफिले में मिलाकर उनकी सहायता भी की थी। इसका अर्थ है कि 1857 के आसपास का समय लक्खी का स्वर्णकाल था। इस आधार पर कुत्ते का तालाब इससे भी बहुत पूर्व का है।
चोरों द्वारा तोड़ी गयी कुत्ते की प्रतिमा का सिर वर्तमान समाधि के नीचे दबा है एवं पर ग्रामीणों द्वारा नवीन प्रतिमा स्थापित है।

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