तानसेन बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक थे। एक दिन बादशाह ने अपने संगीतज्ञ नवरत्न के किसी गीत पर प्रसन्न होकर आखिर पूछ ही लिया-‘तानसेन! यदि तुम इतने प्रवीण होimages अपनी कला के, तो तुम्हारे गुरूजी कितने होंगे? आखिर तुम हमें उनसे मिलाते क्यों नहीं?’

तानसेन ने बादशाह की इच्छा को समझते हुए कह दिया, ‘जहां पनाह, अवसर मिला तो अवश्य मिलवाऊंगा।’

समय बीतता गया। एक दिन फिर तानसेन ने बादशाह को अपने संगीत पर लट्टू कर दिया। बादशाह ने इस बार आदेशात्मक शैली में कहा कि ‘तानसेन हमें अपने गुरूजी से मिलवाओ।’ तानसेन बादशाह के कहने के अंदाज को समझ गये। इसलिए उसको अपने गुरू से मिलवाने के लिए कार्यक्रम निश्चित कर लिया। निश्चित समय पर अकबर बादशाह तानसेन और कुछ अन्य लोग तानसेन के गुरू हरिदास से मिलने जंगलों की ओर चल दिये। वनों के बीच में एक रमणीक स्थल पर बादशाह का लश्कर जाकर रूकता है। बादशाह को वह स्थल अपने राजदरबार से भी अधिक प्रिय लगता है। वह अनुभव करता है कि राजदरबार से कितनी अधिक शांति यहां पर है? राजदरबार में राजनीति के उल्टे सीधे दांव पेंचों में फंसी अकबर की आत्मा को यहां आकर वास्तविक शांति की अनुभूति हो रही थी। एक बारगी वह शांत और निश्चल सा खड़ा रह गया।

तभी उसका ध्यान टूटता है और वह तानसेन की ओर देखकर पूछता है-‘तानसेन! किधर हैं, आपके गुरूजी?’

तानसेन एक कोने में स्थित पर्णकुटीर की ओर संकेत करके बताते हैं, उसमें ध्यानावस्था में बैठी वह मूर्ति ही मेरे गुरूजी हैं। अकबर उस शांत मूर्ति को देखकर कुछ विचलित सा हो जाता है, और व्यग्र होकर तानसेन से पूछता है ‘लेकिन हम तो उनका संगीत सुनने आये थे?….और वह ध्यानावस्था में है…तो अब क्या होगा?’ तब तानसेन बादशाह से कहते हैं -जहां पनाह, देखता हूं। कोई युक्ति सोचकर, गुरूजी का ध्यान भंग करने का प्रयास करता हूं। कुछ क्षणों में ही तानसेन को एक युक्ति सूझ गयी। उसने अपने गुरूजी की पर्णकुटीर के पास बैठकर अत्यंत मधुर आवाज में द्वितारा बजाना आरंभ कर दिया। द्वितारे की मधुर स्वर लहरियों ने गुरूजी का ध्यान भंग कर दिया। वह समाधि से लौटने लगे। उन्हें अपने अंतश्चक्षुओं से यह बोध भी हो गया कि इस द्वितारे को उनका प्रिय शिष्य तानसेन ही बजा रहा है।

लेकिन यह क्या?….गुरूजी की मानसिकता को समझकर तानसेन ने जानबूझकर द्वितारे की आवाज में बिगाड़ पैदा कर दिया। तब गुरूजी अचानक बोल पड़े…ना, ना…ऐसे नही…ऐसे बजाओ। और उन्होंने अपना द्वितारा बजाना आरंभ कर दिया। तानसेन की इच्छापूर्ण हो गयी। अकबर मंत्र मुग्ध हो उठा। सारे वन में संगीत की स्वर लहरियां फूट पड़ीं। सचमुच ऐसा संगीत अकबर ने कभी पहले नही सुना था। सारे वन के पशु पक्षी भी एक दूसरे से अपना शत्रु भाव भूलकर गुरूजी के संगीत को सुनने के लिए पंक्तिबद्घ हो आकर बैठने लगे। अकबर के लिए ऐसा अनुभव जीवन में पहली बार था। आत्मा के तारों को झंकृत करने वाला ऐसा मीठा संगीत उसने आज से पहले नही सुना था। गुरूजी थे कि संगीत की साधना से ही आत्मा की साधना में चले गये। पूर्ण मनोयोग से गाये जा रहे थे।

अकबर पूर्णत: तृप्त होकर वन से  लौट आया। पर उसके कानों में गुरू जी का वह संगीत महीनों तक गूंजता रहा। तब उसने एक दिन तानसेन पूछ ही लिया-तानसेन! क्या कारण है कि तुम अपने गुरूजी की ऊंचाई जैसा गीत नही गा सकते? तब तानसेन ने कहा-जी, जहांपनाह! इसका कारण स्पष्ट है।’ अकबर ने कहा ….”क्या?’’ तानसेन ने कहा-‘महाराज, मैं गाता हूं इस धरती के एक छोटे से टुकड़े के बादशाह अकबर के लिए, और मेरे गुरूजी गाते हैं, संपूर्ण भूखण्ड और लोक लोकांतरों के बादशाह ईश्वर के लिए? मेरी साधना और उनकी साधना में जमीन आसमान का अंतर है। मेरी साधना किसी की चाकर है और उनकी साधना ने मालिक को ही वश में कर लिया है? इसलिए मेरी और उनकी बराबरी संभव नही। हमारा जीवन भी एक संगीत है, देखना बस ये है कि इसे हम किसके लिए गा रहे हैं? अपने लिए या अपने करतार के लिए….अपनी संतान के लिए या पिताओं के पिता के परमपिता परमेश्वर के लिए?

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