कांग्रेसी भी नही थे धर्मांतरण के पक्षधर

राकेश कुमार आर्य

भारत धर्मान्तरण का जहर फेेलता ही जा रहा है। धर्म के नाम पर भारतीय उपहाद्वीप विभाजन की भयानक पीड़ा पूर्व में झेल चुका है। आगे क्या हो सकता है ये सोचकर भी मन सिहर उठता है। परंतु देश का बहुसंख्यक यदि किसी गफलत में सोता रहा तो कुछ भी संभव है, देश के पूर्वोत्तर भाग का ईसाईकरण कर दिया गया है। वहां से अलगाव की बातें उठ रही हैं। स्मरण रहे कि चीन इस भूभाग को भारत से अलग कराने में ईसाई देशों के साथ होगा। क्योंकि वह नही चाहता कि उसके पड़ोस में भारत एक महाशक्ति बनकर उभरे। वह खंडित भारत को अपने लिए अधिक उपयुक्त मानता है। ऐसा नही है कि भारत के पूर्वोत्तर में ही धर्मांतरण का खेल खेला जा रहा है, अपितु देश के अन्य भागों में भी इस्लाम और ईसाइयत के द्वारा यह भयानक स्तर पर चल रहा है। शाहबुद्दीन का वह वाक्य काम कर रहा है कि हमने हिंदुस्तान पर कभी तलवार के बल पर शासन किया था पर अब वक्त बदल चुका है, आज तलवार का काम वोट करेगी।

संविधान सभा में धर्मांतरण के मुद्दे पर बड़ी तार्किक बहस हुई थी। उस समय कांग्रेस के बड़े नेताओं तक ने भी धर्मांतरण के प्राविधान का विरोध किया था। संविधान सभा में इस विषय पर बोलते हुए सरदार पटेल ने कहा था कि ‘श्रीमान जी! यह सभी जानते हैं कि बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है, जो ताकत के बल पर, भय और प्रलोभन के बल पर छल और षडयंत्र से हो रहा है। बच्चे मां बाप के साथ धर्म परिवर्तन करने को विवश हैं। अनाथ बच्चों का धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है। ऐसे में क्या करना उचित होगा? मेरी राय में धर्म परिवर्तन के प्राविधानों को पुनर्विचार के लिए सलाहकार समिति को वापस कर दिया जाए।’ (इस पर सदन ने अपनी सहमति व्यक्त की थी) तब सदन के विचार से सहमत होकर सलाहकार समिति ने इन प्राविधानों को संविधान में न रखने की सलाह दी थी।

कांग्रेस के ही पुरूषोत्तम दास टण्डन ने बहस में भाग लेते हुए कहा था-’अध्यक्ष महोदय, हमारे ईसाई भाइयों के यहां दिये गये भाषणों से मैं हतप्रभ हूं। हम कांग्रेसी धर्मपरिवर्तन को अनुचित मानते हैं और इसके पक्ष में नही हैं। मेरी राय में किसी को अपने धर्म में परिवर्तन कराने का काम निरर्थक है। यह तभी हो जबकि कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन कराने का आवेदन स्वेच्छा से करे। अब यह कहा जा रहा है कि उन्हें (ईसाईयों को) युवाओं का धर्म परिवर्तन कराने का अधिकार हो….यह क्या है? श्रीमान जी मैं अवाक हूं, यह देखकर कि मेरे कुछ ईसाई मित्र अल्पवयस्कों के धर्म परिवर्तन को अधिकार बनाने के पक्ष में तर्क दे रहे हैं।

हम कांग्रेसी धर्म परिवर्तन को किसी भी तरह सही नही मानते हैं। लेकिन हमें अपने ईसाई मित्रों को साथ लेकर चलना है। हम तो धर्म प्रचार तक को भी मूल अधिकार बनाए जाने तक के विरूद्घ थे। पर हम सहमत हो गये हैं।’

इसी विषय पर लोकनाथ मिश्रा ने अपने विचार यूं प्रकट किये थे-’श्रीमान जी…आप जानते हैं कि धर्म प्रचार ने ही भारत की यह दशा की है, और इसी के कारण भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। अगर इस्लाम ने भारत आकर अपनी आस्थाएं न थोपी होतीं तो भारत पूर्णत: पंथ निरपेक्ष तथा सर्वधर्म समभाव वाला देश बना रहता और इसके खंडित होने का, बंटवारे का कोई सवाल ही नही उठता (माननीय सदस्य के ये शब्द विचारणीय हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि मुस्लिम लीग का साम्प्रदायिक दृष्टिकोण ही विभाजन के लिए उत्तरदायी था) वर्तमान संदर्भों में धार्मिक प्रचार के क्या माने हैं? ….ईसाइयों ने पिछले दरवाजे से यह गुपचुप शांति से घुसपैठ बनाने की युद्घ नीति अपनाई है गलती हमारी है कि हम सुरक्षा के लिए बाड न ही लगाते हैं। अगर लोग धर्म प्रचार करना चाहते हैं तो मैं कहूंगा कि उन्हें करने दो, लेकिन संविधान में इसे मूल अधिकार का दर्जा देकर धर्म प्रचार को प्रोत्साहन मत दो।’

इस विषय में गांधी जी के विचार भी उल्लेखनीय हैं। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में 24 अप्रैल 1931 को तथा ‘हरिजन’ में 7 फरवरी 1931 को लिखा था-’यदि वे पूरी तरह से मानवीय कार्यों तथा गरीबों की सेवा करने की बजाए डॉक्टरी सहायता व शिक्षा आदि के द्वारा धर्म परिवर्तन करते हैं तो मैं चाहूंगा कि वे ईसाई यहां से चले जाएं। प्रत्येक राष्ट्र का धर्म अन्य राष्ट्र के धर्म के समान ही श्रेष्ठ है। हमें धर्म परिवर्तन की कोई आवश्यकता नही।’

कांग्रेस के ही अनंत शयनम आयंगर (पूर्व लोकसभा अध्यक्ष) ने भी कहा था-’यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मजहब का उपयोग किसी की आत्मा को बचाने के लिए नही बल्कि समाज को तोड़ने के लिए किया जा रहा है। इसीलिए मैं चाहता हूं कि भारतीय संविधान में एक मूल अधिकार जोड़ा जाए जिसमें धर्मांतरण पर रोक की व्यवस्था हो।’

राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता हुसैन इमाम ने कहा था…’जबरदस्ती धर्म परिवर्तन घोर अवांछनीय है। इसलिए जैसा कि सरदार पटेल ने स्वीकार किया कि इन्हें मूल अधिकारों में नही रखना चाहिए’ (यही उचित है)।

तजम्मुल हुसैन साहब ने कहा था ‘धर्म निजी मामला होना चाहिए। मैं क्यों आपसे कहूं कि आप मेरे तरीके से अपनी आत्मा को शांति दें और आप क्यों मुझसे कहें कि मैं आपके तरीके से अपनी आत्मा को शांति दूं। अगर इस पर सिद्घांतत: सहमति है तो फिर धर्म के प्रचार की बात क्यों?…ईमानदारी से अपने घर पर धर्म को मानो और आचरण करो।

….अगर आपने इस देश में धर्म का प्रचार करना आरंभ कर दिया तो आप समस्या बन जाएंगे।

यह सारे तर्क अपने आप में विचारणीय हैं। इनसे सिद्घ होता है कि कांग्रेस भी मूल रूप में धर्म प्रचार के माध्यम से धर्मांतरण के विरूद्घ थी और यहां तक कि उसके मुस्लिम सदस्य भी धर्मांतरण के राष्ट्रघाती खेल के विरोधी थे। परंतु केवल नेहरू परिवार की विपरीत धर्मालंबियों से विवाह करने की पारिवारिक पृष्ठभूमि ने इस सोच को पलीता लगा दिया। कांग्रेस की चारण संस्कृति ने सदा ही नेता के इशारे पर काम किया है, इसलिए जैसा नेता ने चाहा वैसा ही नाच किया। नेहरू का लेडीमाउंट बेटन के प्रति ल गाव, इंदिरा का फिरोज से विवाह करना और राजीव का सोनिया से विवाह करना ये वो लम्बा सफर है, जिसके कमजोर पेंचों ने देश की इस सबसे बड़ी पार्टी को वैचारिक खोखले पन तक ला खड़ा किया। सोनिया के कारण ही मदर टेरेसा जैसी उस स्त्री का भारत में महिमामंडन हुआ जिसने अपने समय में पूर्वोत्तर का सर्वाधिक धर्मांतरण कराया।

अब यदि भारत का भविष्य उज्ज्वल करना है तो हमें श्रीमती ऐनीबीसेंट के इन शब्दों पर ध्यान देना ही होगा-’यदि अपने भविष्य को मूल्यवान समझते हो व अपनी मातृभूमि से प्रेम करते हो तो अपने प्राचीन धर्म की अपनी पकड़ को छोड़िए नही। उस निष्ठा से च्युत न होइए जिस पर भारत का प्राण निर्भर है। हिंदू धर्म के अतिरिक्त अन्य किसी मत की रक्तवाहिनियां ऐसी शुद्घ स्वर्ण की नही है, जिनमें आध्यात्मिक जीवन का रक्त प्रवाहित किया जा सके। भारत और हिंदू धर्म एक रूप है। मैं यह कार्य भार आपको सौंप रही हूं। जो हिंदू धर्म के प्रति निष्ठावान रहा, वही आपका सच्चा जीवन है। कोई धर्म भ्रष्ट कलंकित हाथ आपको सौंपी गयी इस पवित्र धरोहर को स्पर्श कर सकें।’ (हिंदू जीवनादर्श से)

इसलिए जागिए किसी को चोट पहुंचाने के लिए नही, अपितु स्वयं को मिटने से बचाने के लिए जागिए। 2014 का चुनाव सभी देशभक्त और राष्ट्रप्रेमी लोगों के विवेक की परीक्षा के रूप में आ रहा है। चुनावी जंग राष्ट्रवादियों और छद्म वादी गद्दरों के बीच है। देखते हैं आप क्या निर्णय लेते हैं?

मुजफ्फर नगर के दंगे छद्मनीतियों और वोटों की राजनीति के गंदे खेल का परिणाम हैं। धर्मांतरण की प्रक्रिया को यदि प्रारंभ में ही अवैध घोषित कर दिया जाता और मजहब को व्यक्ति का नेतांत निजी मामला मान लिया जाता तो आज सैकड़ों जानें इन दंगों में चली गयीं हैं वो न गयी होतीं। कांग्रेस और कांग्रेसी नीतियों पर चलने वाले सभी राजनीतिक दलों के लिए यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि जब प्रारंभ में ही धर्मांतरण को उचित नही माना गया तो भारतीय लोकतंत्र के राजपथ पर चली रेल में यह कहां से और क्यों कर सवार हो लिया था? यदि अब भी नही चेते तो क्या सर्वनाश कराके ही चेतेंगे?

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