औचित्य:टोपी फतवे का

शंकर शरण

फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने किसी के द्वारा मुस्लिम टोपी न पहनने पर तंज कसते हुए कहा कि ‘टोपी पहनने से धर्म भ्रष्ट नहीं होता’। संकेत नरेंद्र मोदी की ओर था। वस्तुत: उन्होंने एक सही बात गलत आदमी के लिए कही। यह सच है कि हिन्दू धर्म में किसी बाह्याचार नहीं, बल्कि आचरण को धर्म माना जाता है। तदनुरूप अन्याय, दुराचार, अत्याचार को अधर्म माना जाता है। पुत्र-धर्म, राज-धर्म, धर्म-क्षेत्र जैसी अवधारणाएं भी दिखाती हैं कि धर्म को ‘रिलीजन’ के अर्थ में नहीं लेना चाहिए। इसीलिए अटल बिहारी वाजपेई से लेकर शिवराज सिंह चौहान तक अनेक भाजपा नेता वह मुस्लिम-टोपी पहनते ही रहे हैं। यहाँ तक कि कई हिन्दू नेता मुसलमानों के लिए इफ्तार पार्टियाँ भी आयोजित करते हैं। इस से सचमुच उनका ‘धर्म’ भ्रष्ट नहीं होता।

इसलिए सवाल तो उलटे यह है कि जब इस टोपी से कुछ नहीं होता, तो सब को यह टोपी पहनाने की जिद क्यों? विशेषकर, जब कोई हिन्दू न पहनना चाहे, तब मुस्लिम नेताओं द्वारा बार-बार सार्वजनिक रूप से यह प्रयास क्यों किया जा रहा है कि कोई विशेष हिन्दू नेता वह टोपी जरूर पहने? इसका तो मतलब है कि पहनाने की जिद रखने वालों के लिए ही उसमें कोई मजहबी-राजनीतिक निहितार्थ है! तब तो यह उपदेश उनको देना चाहिए जो ऐसे सांकेतिक कार्य को मजहबी महत्व देते हैं। लेकिन रजा मुराद ने उलटे बाँस बरेली को कर डाला।

बात इस से स्पष्ट होगी कि उसी मध्य प्रदेश में स्कूलों में सामूहिक योगाभ्यास पर उलेमा ने मुस्लिम छात्रों को उस में भाग लेने से रोका था। भोपाल के तीन शहर मुफ्तियों और शहर काजी ने उस के लिए फतवा भी जारी कर दिया। इसलिए रजा साहब को प्रश्न वहाँ उठाना चाहिए था: क्या योगाभ्यास से मुसलमानों का मजहब नष्ट हो जाएगा? या राष्ट्र-गान वंदेमातरम गाने से? या किसी प्रसाद का लड्डू खा लेने से? आदि। क्योंकि इसी तरह के सामान्य, सहज क्रियाकलापों पर मुस्लिम नेता ही बड़ी कड़ाई से विरोध करते हैं! उन के पास इसके लिए बाकायदा एक कठोर निषेधात्मक, सैद्धांतिक शब्द ही है: ‘कुफ्र’। क्या रजा साहब ने तब कहा था कि योगाभ्यास करने से या राष्ट्रगान गाने से मजहब नष्ट नहीं होता?

इसलिए उन्हें अपने रंज-उपदेश की दिशा बदलनी चाहिए। मुस्लिम नेताओं को यह समझाना चाहिए कि योगाभ्यास करने, या राष्ट्रगान गाने से मुसलमानों को रोकना गलत है। क्योंकि ऐसे मामले अंतहीन होते गए हैं। दीप-प्रज्जवलन, संगीत, मूर्ति-कला, सिनेमा, आदि कितनी ही चीजों को ‘कुफ्र’ और इस्लाम-विरोधी कहकर उलेमा द्वारा फतवे दिए जाते रहे हैं। उन का पालन भी होता है, नहीं तो खुले हिंसा-बल पर भी उन फतवों को मनवाने की कोशिश होती है। हाल में कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती ने वहाँ लड़कियों के संगीत दल ‘प्रगाश’ के विरुद्ध भी फतवा जारी किया था। मुफ्ती के अनुसार संगीत ही गैर-इस्लामी चीज है, इसलिए फतवा संगीत के विरुद्ध है; केवल ‘लड़कियों के संगीत’ पर नहीं। इस के बाद उस संगीत दल ने अपने आप को भंग कर दिया।

दरअसल, रजा मुराद जैसे लोग सदिच्छा के बावजूद जिस प्रवृत्ति के शिकार हैं, उसका प्रो. मुशीर-उल-हक की पुस्तक ‘धर्मनिरपेक्ष भारत में इस्लाम ‘ (इंडियन इन्स्टीच्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, शिमला, 1977) में बड़ा सुंदर विश्लेषण किया गया है। इस में सप्रमाण दिखाया गया कि उलेमा सेक्यूलरिज्म को इस्लाम-विरोधी (‘ला-दीनी’) मानते हैं। किंतु जो स्वयं सेक्यूलर नहीं, न होना चाहते हैं, वही लोग हिंदू समुदाय की इसलिए आलोचना करते रहते हैं कि वे पर्याप्त सेक्यूलर नहीं! दुर्भाग्यवश, यही प्रवृत्ति हमारे बुद्धिजीवी-राजनीतिक वर्ग में भी है। वे सेक्यूलर लोगों को ही सेक्यूलरिज्म का उपदेश देते रहते हैं! जबकि हर चीज में मजहब को लाने वालों को छुट्टा छोड़े रहते हैं, जिससे वे हर चीज पर मुसलमानों को हिन्दुओं से अलग करने की कोशिशें करते रहते हैं। अब तो इस्लामी-बैंकिंग की भी माँग बढ़ाई जा रही है। तो क्या स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से कारोबार करने से मजहब नष्ट हो जाएगा? कई देशों में यहाँ तक कहा जाता है कि सेना में मुस्लिम सैनिकों को यह छूट होनी चाहिए कि वे किसी मुस्लिम देश के विरुद्ध न लड़ना चाहें, तो न लड़ें! (सेना व पुलिस में मु्स्लिमों की ‘आनुपातिक’ भर्ती कराने का अभियान चलाने वाले नहीं जानते कि वे किस दिशा में बढ़ रहे हैं।) ऐसे सभी मामलों पर हमारे विद्वान, पत्रकार और प्रभावशाली लोग मानो विदेशियों जैसे निर्विकार रुख रखते हैं। वे इस्लाम व ईसाइयत के सभी बाह्याचारों और घातक मान्यताओं पर भी निरपवाद रूप से चुप्पी रखते हैं।

सच यही है कि अब्राहमी मजहबों में ही बाह्याचारों को केंद्रीय महत्व दिया गया है। इसीलिए पोशाक, खान-पान, राजनीति, शिक्षा, मनोरंजन आदि हर चीज को मजहबी विश्वासों से चलाने की जिद होती है। तभी बात-बात में फतवे और धमकी देकर मुस्लिमों को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, कानूनी आदि हर बात में हिन्दुओं से अलग रखने की जिद ठानी जाती है। भारत से बाहर भी यही स्थिति है। सोमालिया में समोसे खाने के विरुद्ध फतवा दिया गया। यह कहकर कि समोसे का तिकोना रूप ईसाइयत की ‘होली ट्रिनिटी’ (फादर, सन, होली स्पिरिट) की याद दिलाता है, इसलिए कुफ्र है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में डिब्बाबंद या फ्रिज में रखे चिकेन खाने के विरुद्ध फतवा दिया गया! यहाँ भी, केवल योगाभ्यास या कश्मीरी मुफ्ती ही नहीं, विश्व-विख्यात दारुल-उलूम देवबंद ने भी संगीत व सिनेमा के विरुद्ध फतवा दिया था। उधर अयातुल्ला खुमैनी ने भी स्पष्ट घोषणा की थी कि मस्जिद में अजान कहने के सिवा हरेक संगीत हराम है। क्या यह सब सामान्य है, और मात्र नरेंद्र मोदी द्वारा मुस्लिम टोपी पहनने से इंकार करना ही आपत्तिजनक है?सच तो यह है कि योगाभ्यास ही नहीं, लड़कियों की शिक्षा, बुरके, बैंकिंग, पेंटिंग, फोटोग्राफी, फ्रोजेन चिकेन, जन्म-दिन मनाने आदि पर इस्लामी निर्देशों पर दुनिया भर के उलेमा में कोई गंभीर मतभेद नहीं है। इसलिए विचित्र फतवे सुन कर चुप हो जाना, या बात को आई-गई समझना भूल है। सेक्यूलरिज्म हो या सामुदायिक सौहार्द, मूल समस्या वह मजहबी मतवाद है जो मुस्लिमों को हुक्म देता है। कभी-कहीं कोई हुक्म चल नहीं पाता तो राजनीतिक शक्ति की कमी से। पर हमारे बुद्धिजीवी उस मतवाद पर आपत्ति नहीं करते। रजा मुराद जैसे उदार बुद्धिजीवी भी उसी मनोवृत्ति के शिकार लगते हैं। प्रो. मुशीर-उल-हक ने सही नोट किया था कि भारत के सेक्यूलरवादियों के पास मुसलमानों को सेक्यूलर दिशा में प्रवृत्त करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है।वे सारी शक्ति हिन्दुओं को ही उपदेश देने में खर्च कर देते हैं।

यह दोहरापन लंबे समय से हमारी समस्या रही है। डॉ. भीमराव अंबेदकर की पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ से भी इसे समझा जा सकता है।

सन् 1940 में छपी यह पुस्तक एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस में तब के भारत में विगत पचास वर्ष की हिन्दू-मुस्लिम राजनीति का विस्तृत, प्रमाणिक लेखा-जोखा है। साथ ही, हिन्दू-मुस्लिम संबंधों तथा इस्लामी विचारों एवं राजनीति पर गंभीर चिंतन है। डॉ. अंबेदकर की यह पुस्तक स्थाई शिक्षात्मक मूल्य रखती है। जिन्हें भी भारत में सांप्रदायिक समस्या को ठीक से समझने की आवश्यकता महसूस हो, उन्हें यह पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए।मुस्लिम राजनीति की मूल विशेषता रेखांकित करते हुए डॉ. भीमराव अंबेदकर ने लिखा था, “मुस्लिम राजनीति अनिवार्यत: मुल्लाओं की राजनीति है और वह मात्र एक अंतर को ही मान्यता देती है – हिन्दू और मुसलमानों के बीच मौजूद अंतर। जीवन के किसी भी धर्मनिरपेक्ष तत्व का मुस्लिम समुदाय की राजनीति में कोई स्थान नहीं है, और वे मुस्लिम राजनीतिक जमात के केवल एक ही निर्देशक सिद्धांत के सामने वे नतमस्तक होते हैं, जिसे मजहब कहा जाता है।” (डॉ. अंबेदकर, ‘संपूर्ण वाङमय’, खंड 15, भारत सरकार, सा. न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, जनवरी 2000, पृ. 226)। आज स्थिति जरा भी नहीं बदली है, यह योगाभ्यास जैसी अनमोल निधि से मुसलमानों को अलग रखने की जिद से स्पष्ट है।

इसलिए रजा साहब को सही रोगी को पहचानना चाहिए। हिन्दू तो ईद, मुहर्रम मनाने से लेकर मजार पर चादर भी चढ़ाते रहते हैं। लेकिन कितने मुसलमान होली, दीवाली जैसा सामाजिक त्योहार भी मनाते हैं? उलटे सेक्यूलर मुसलमानों को अपने समाज में तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। पूर्व-राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जैसे सज्जन, ज्ञानी, कर्मठ को कौन मुसलमान पूछता है? उन्हें उपेक्षित करने का एक मात्र कारण है कि वे सेक्यूलर हैं। रफीक जाकरिया, सैयद शहाबुद्दीन जैसे सुशिक्षित मुस्लिमों और जेएनयू के कम्युनिस्ट प्रोफेसरों ने तो अब्दुल कलाम को मुसलमान मानने से ही इंकार कर दिया था, क्योंकि कलाम “वीणा बजाते हैं।” कलाम को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने का विरोध करते हुए उन लोगों ने जून 2002 में बाकायदा अपील जारी करके कहा था कि डॉ. कलाम का “राष्ट्रपति बनना शांति, सेक्यूलरिज्म और लोकतंत्र के हित में नहीं होगा।” हमें पता नहीं कि रजा मुराद ने तब कुछ कहा था कि नहीं।

पर यह सर्वविदित है कि अधिकांश मुस्लिम नेता घर-परिवार ही नहीं, शिक्षा, राजनीति, व्यवसाय, मनोरंजन, पोशाक, खान-पान और जीवन का हर पहलू इस्लामी कायदों से ही चलाने का हठ रखते हैं। भारत में भी केंद्रीय विश्वविद्यालयों तक में ‘इस्लामिक स्टडीज’ के नाम पर खुलेआम कुरान-हदीस के पाठों का विशेषाधिकारी, और हानिकारक, प्रचार चल रहा है। वह प्रचार जो पूरी तरह गैर-सेक्यूलर है। किंतु हिन्दुओं से कठोर अपेक्षा है कि वे शिक्षा में गीता जैसी महान दार्शनिक पुस्तक का भी अध्ययन-अध्यापन न करें (यह भी मध्य प्रदेश में हुआ है।) सेक्यूलरवादी उपदेशक हिन्दुओं से यह भी कहते हैं कि वे सार्वजनिक कार्यक्रमों में न दीपक जलाएं, न राष्ट्र-गान वंदे-मातरम् गाएं, न सरस्वती वंदना करें। ऐसा होने पर कई बार मस्लिम महानुभाव वैसे कार्यक्रमों का बहिष्कार भी करते हैं। हाल में बजट सत्र समापन के समय शफीकुर्रहमान बर्क ने संसद में यह किया। उन मुसलमानों की रजा मुराद ने कभी भर्त्सना की, ऐसा सुनने में नहीं आया। यह उस भोली, दोहरी या धूर्त्त मनोवृत्ति का ही उदाहरण है जो दरिद्र को ही दान का उपदेश देती रहती है!

यह दोहरी मनोवृत्ति भारत में तथाकथित सांप्रदायिकता-वृद्धि में कितनी बड़ी भूमिका अदा करता है, इसे हमारे सेक्यूलर संपादक, प्रोफेसर, लेखक-कलाकार कब तक अनदेखा करते रहेंगे? मुस्लिम जनता के लिए राजनीतिक-कानूनी-शैक्षिक-आर्थिक आदि अधिकाधिक विषयों में नितांत इस्लामी पैमानों की स्वीकृति देना, और हिंदुओं के लिए पारंपरिक हिंदू-सांस्कृतिक रीतियों पर भी आपत्ति करना सीधे-सीधे हिंदू-विरोध है। मगर चूँकि यही हमारे प्रभुत्वशाली राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग की नीति है, इसीलिए रजा मुराद को भी एक हिन्दू को ही लेक्चर देने में कोई हिचक नहीं हुई।

वस्तुत: ताकत या फितरत के बल पर मुस्लिम कायदों को गैर-मुसलमानों पर भी थोपने की जिद निंदा का विषय होना चाहिए। यह केवल अरब देशों या पाकिस्तान जैसे मु्स्लिम देशों में ही नहीं, भारत में भी होता है! रमजान में श्रीनगर में गैर-मुस्लिम भी दिन में कुछ खाते हुए नहीं दिख सकता! उसी मनोवृत्ति का छद्म-रूप मुंबई, लखनऊ, पटना या भोपाल में हिन्दू नेताओं को बल-पूर्वक या छल-पूर्वक मुस्लिम टोपी पहनाना भी है। यह मनोवृत्ति भारतीय हिन्दुओं को स्थाई रूप से जिम्मी मानती हैं। रंज इस पर होना चाहिए।

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