इस्लाम साहित्य में शाकाहार-6

गतांक से आगे….
कुछ महिलाओं में यह भी भ्रम है कि मांसाहारी महिलाएं अधिक सुंदर होती हैं। उनकी यह दलील है कि दुनिया के अधिकांश पक्षी मांसाहारी हैं। हम देखते हैं कि वे रंग बिरंगे व सुंदर शरीर के होते हैं। लेकिन मांसाहारी महिलाएं जल्द बूढ़ी हो जाती हैं और उनके शरीर की चमड़ी लटकने लगती है। पशुओं के रक्त, चरबी और उनके अवयवों से जो सौंदर्य प्रसाधन तैयार किये जाते हैं, उनके निरंतर उपयोग से महिलाओं के शरीर को बड़ा नुकसान पहुंचता है। उनके होंठ और शरीर की बाह्य चमड़ी काली पडऩे लगती है। बाल भी जल्द सफेद हो जाते हैं। अनेक महिलाएं चर्मरोग से पीडि़त हो जाती हैं।
लंदन विश्वविद्यालय ने पिछले दिनों एक चौंका देने वाला सर्वेक्षण प्रस्तुत किया। जिन बालकों की बुद्घिमत्ता का स्तर, जिसे अंग्रेजी में ‘आई क्यू’ कहा जाता है, उच्च होता है, वे अधिकांश शाकाहारी होते हैं। साउथैंपटन विश्वविद्यालय की एक टीम को इस अध्ययन में पता लगा कि तीस वर्ष की आयु तक जो लोग शाकाहारी बन चुके हैं, उन सभी का आई क्यू स्तर दस वर्ष की आयु में औसत से 5 अंक अधिक था। शोधकर्ताओं ने कहा कि यही कारण है कि जिन लोगों का आई क्यू स्तर ऊंचा होता है वे अधिक स्वस्थ होते हैं। क्योंकि शाकाहार का सीधा संबंध हृदय रोग और मोटापे को रोकने से होता है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में 8,179 लोगां के साथ किये गये इस अध्ययन को शमिल किया गया था। वर्ष 1970 में किये गये आई क्यू टेस्ट के बाद यह पाया गया कि अध्ययन में सम्मिलित लोगों में से 366 ने कहा कि वे शाकाहारी हैं। शाकाहारी पुरूषों का आई क्यू स्कोर 101 रहा। दूसरी ओर शाकाहारी महिलाओं का स्कोर 104 रहा। जबकि मांसाहारी महिलाओं ने आई क्यू के पैमाने पर 99 अंक प्राप्त किये। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि पुरूषों की तुलना में महिलाएं अधिक शाकाहार होती हैं। जो महिलाएं शाकाहार पर पलती हैं उनमें प्रशासकीय क्षमता अधिक होती है। खान अब्दुल गफ्फार खान तो गांधीजी के साथ रहकर शाकाहारी हो गये थे, लेकिन उनकी बहू नसीमा खान प्रारंभ से ही शाकाहारी थीं। इसलिए वली खान के समय में सीमाप्रांत में उनकी पार्टी जिस तरह से आगे बढ़ी, उसका श्रेय नसीमा खान को जाता है। सुकर्णों की पुत्री मेघावती, जो इंडोनेशिया की राष्ट्रपति रह चुकी है, पूर्ण शाकाहारी थीं। इसलामी जगत में प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता इजिप्ट के उपन्यासकार मेहफूज नजीब शाकाहारी थे। इसलिए शाकाहारी और मांसाहारी होने का कारण धर्म कदापि नही होता है।
एक सवाल मन में यह उठना स्वाभाविक है कि क्या शाकाहार पर इसलामी दुनिया में कोई पुस्तक लिखी गयी है? सब कुछ ऐसे भी हुए हैं जो मुसलिम होने के बावजूद मांसाहार का विरोध करते थे और चाहते थे कि मुसलिम शाकाहार को अपनाएं।
काहिरा विश्वविद्यालय में इसलाम के उदय से पूर्व इस प्रकार की लिखी गयी पुस्तकें होने की संभावना व्यक्त की जाती है। चूंकि खान पान एक निजी मामला है, इसलिए हर कोई इसे अपनी तरह से व्यवहार में लाता है। हिजरी सन 1088 के आसपास अबुल अल मोअर्री नामक एक व्यक्ति की पुस्तक की जानकारी मिलती है, जिसने शाकाहार का समर्थन करते हुए अरबी पद्य में एक पुस्तक लिखी है। अल मोअर्री मउरतुन नोअमान नामक स्थान में पैदा हुआ थ। वह एक प्रख्यात कवि और चिंतक था।
सोलह वर्ष की आयु में उसकी दोनों आंखें चली गयीं। अंधा हो जाने के उपरांत भी वह विद्याध्ययन करने में बड़ी दिलचस्पी लेता था। शिक्षा प्राप्ति के इस चाव में पहले वह हलब, तराबीलस उसके पश्चात बगदाद पहुंचा। लुजूमियात रिसालतुल गुफरान नामक पुस्तकें अत्यंत चर्चित रहीं। इस महान चिंतक ने यमन और मेसोपोटामियां के भागों में, जहां इसलामी साम्राज्य थे, वहां मांसाहार के विरूद्घ प्रचार किया। यद्यपि अपने सीमित साधनों के कारण वह इस दिशा में बहुत अधि सफल नही रहा, लेकिन उसने इस सिद्घांत को प्रतिपादित किया कि यदि कोई व्यक्ति मांसाहार करता है तो वह प्रकृति के साथ न्याय नही करता। मांसाहार क्रूरता का चिन्ह है, जो सभ्य लोगों को शोभा नही देता। अल मोअर्री बगदाद से लौटने के पश्चात सूफी का जीवन व्यतीत करने लगा। उसने दुनिया छोड़ दी। वह अत्यंत संवेदनशील और कुशाग्र बुद्घि का था। वह पशु पक्षियों की बोली और उनके जीवन के रहस्यों की खोज में अपने जीवन के अंत होने तक संलग्न रहा। उसका कहना था कि ये भोले और बिन बोले जानवर कुदरत का अनुपम खजाना है। उनसे हमें बहुत कुछ सीखना है। वे मारने और अपना पेट भरने के लिए नही बल्कि हमारी दया और करूणा के पात्र हैं।
मांसाहार की तुलना में शाकाहार से संबंधित वस्तुओं के विषय में कुरान से लगाकर अन्य इसलामी साहित्य में अधिक वितरण है। फिर क्या कारा है कि इसलाम ने जिनकी रक्षा के लिए मुसलमानों को बार बार जाग्रत किया है, मुसलमान उनके प्रति उदासीन बने रहते हैं, लेकिन जब मांसाहार संबंधी कोई रूकावट आती है या फिर बकरा ईद जैसे त्यौहार के अवसर पर पशुओं की कुरबानी के संबंध में कोई पर्यावरणवादी अथवा अहिंसा में विश्वास रखने वाला वर्ग समझदारी की बात करता है तो वे बहुत जल्द उत्तेजित हो जाते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मुसलमानों ने प्रतिक्रिया स्वरूप मांसाहार को अपनी पहचान बना लिया है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मुसलमानों ने प्रतिक्रिया स्वरूप मांसाहार को अपनी पहचाना बना लिया है।पर्यावरण1

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