इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-7

मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे…
शेड में स्वचलित परदे लगाए गये हैं। जिधर धूप होती है, परदे उसी दिशा में तन जाते हैं। धूप के न आने से इन गायों को बड़ी राहत मिलती है। इस शेड के बाहर औसतन 46 डिग्री सेल्सियस गरमी होती है। 800 मीटर लंबे शेड में दर्जनों डेजर्ट कूलर लगे हुए हैं। उक्त फार्म सऊदी अरब की राजधानी रियाद से 100 किलोमीटर दूर दक्षिण पूर्व में स्थित है। इस फार्म को अल शफीअ नाम दिया गया है, जिसका साधारण भाषा में अर्थ होता है-मेहरबान, यानी कृपालु। गाय के गुण के अनुसार ही उसका नाम है। वास्तव में यह पशु मानव जाति के लिए कृपावंत है। गाय की सेवा के लिए यहां रात दिन लगभग 1400 आदमी काम करते हैं।
अल शफीअ फार्म अरबस्तान की शुष्क और बंजर जमीन पर बीस साल पूर्व स्थापित किया गया था। रेगिस्तान में जो भी कठिनाईयां होती हैं, उनका सामना करते हुए यह फार्म तैयार किया गया, जो आज विश्व के अच्छे फार्मों में गिरा जाता है। इस फार्म के मैनेजर जेनुल मजरम का कहना है कि यह क्षेत्र अत्यंत गरम और शुष्क है, इसलिए पानी की उपलब्धता हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। हमने इस रेगिस्तान में छह कुएं बनवाए हैं। प्रत्येक कुआं औसतन 1850 मीटर की गहराई तक बोर किया गया है। जमीन से निकलने वाला पानी बहुत गरम होता है। इसे ठंडा और स्वच्छ करने के लिए अलग से संयंत्र लगाये गये हैं। एक गाय प्रतिदिन 120 लीटर पानी पीती है। पूरे फार्म में लगभग एक करोड़ लीटर पानी का उपयोग किया जाता है। मैनेजर जेनुल का कहना है कि पानी के मामले में हम आत्मनिर्भर हैं। हमें बाहर कहीं से पानी लाने की आवश्यकता नही पड़ती है। गायों के चारे के लिए इस फार्म के पास ही दो किलोमीटर का घास उगाने का एक फार्म तैयार किया गया है। मैनेजर जेनुल मजरम का कहना है कि सभी सुविधाओं के गायें गरमी से थक जाती हैं। लेकिन इस पशु में कुदरत ने गजब का धैर्य और संतोष दिया है। वह अपने आपको इस प्रकार के कठोर जलवायु का अभ्यस्त बना लेती है और और अपने मालिक की भरपूर सेवा करती है।
अल शफीअ फार्म में इस समय कुल 36 हजार गायें हैं। इनमें पांच हजार भारतीय नस्ल की हैं। भारतीय गायों का दूध सेवन करने वाला एक विशेष वर्ग है। रियाद स्थित शाही परिवार में 400 लीटर भारतीय गायों का दूध जाता है। शेष मात्रा ऊंट के दूध की होती है। अल शफीअ फार्म की गायों का रंग या तो सफेद होता है या फिर काला। फार्म में जो भी अधिकारी काम करते हैं, उन्हें या कोपेनहेगन अथवा न्यूजीलैंड की किसी डेयरी का पांच साल का अनुभव होना अनिवार्य है। रेगिस्तान में जहां ढेरें कठिनाइयां हैं, वहीं एक सकारात्मक पहलू यह है कि यहां गायों की बीमारियां यूरोप और अमेरिका की तुलना में कम फेेलती हैं। अल शफीअ फार्म ने लोगों के मन में यह विश्वास पैदा कर दिया है कि डेयरी का उद्योग भी एक लाभदायी उद्योग है। इस समय अल शफीअ फार्म की गायों से प्रतिवर्ष 16 करोड़ 50 लाख लीटर दूध निकाला जाता है। यहां दूध निकालने के लिए कमरे बने हुए हैं। हर कमरे में 120 गायों का दूध मशीनों से निकाला जाता है। एक गाय के दूध निकालने में दस मिनट का समय लगता है। हर गाय औसतन 45 लीटर दूध देती है। जो गाय दूध देना बंद कर देती है उसका अलग से विभाग है। उसे सलाटर हाउस में नही बेचा जाता है, बल्कि उसके मूत्र और गोबर का खाद के रूप में उपयोग होता है। मर जाने के बाद उसका चमड़ा निकाल लिया जाता है, लेकिन उसके मांस और अन्य अवयवों को फार्म में दफन कर दिया जाता है। मृत शरीर जल्दी से खाद बन जाए, इसके लिए कुछ रसायनों का उपयोग किया जाता है। उक्त खाद बाजार में मिलने वाले मांस की तुलना में बहुत महंगा होता है। गायों को नहलाने से लेकर चराने तक में फार्म के कर्मचारी इस तरह से तल्लीन हो जाते हैं जैसा कि भारत के गोपाल कभी इन गायों के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते थे।
अरबस्तान के लोग गाय का पालन करते हैं, लेकिन भारत में अधिकांश गायों के क्रय विक्रय से लगाकर उसे सलाटर हाउस तक में पहुंचाने का धंधा होता है। अरबों का गायों से कोई सांस्कृतिक अथवा भावुक संबंध नही है, लेकिन भारतीय मुसलमान इस दिशा में कभी विचार करता है? यहां तो वह उसका रखवाला बनकर जंगल में उसे चराता है, उसके दूध का व्यापार करता है, लेकिन जब वह दूध देना बंद कर देती है, उस समय उसे किसी कसाई के हाथों बेच दिया जाता है। मात्र इसके लिए मुसलिम ही दोषी नही हैं, वे भी जिम्मेदार हैं जो गाय को माता कहकर पुकारते हैं।
क्रमश:

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