इक्कीसवीं शताब्दी शाकाहार की

हिंसा और मांसाहार के विभिन्न पहलुओं पर विचार कर लेने के पश्चात इस मुद्दे पर चिंतन करने की आवश्यकता है कि आज जो दुनिया के पर्यावरण की स्थिति है, उसके अनुसार मनुष्य शाकाहारी बनकर जीवित रहेगा या फिर उसे मांसाहार अपनाकर अपना जीवन व्यतीत करना होगा? प्रकृति का नियम है कि हर चीज अपनी असलियत पर लौटती है। यदि इसमें विश्वास तो फिर यह कहना होगा कि आदम और मनु का जीवन शाकाहार से प्रारंभ हुआ था, इसलिए उसकी संतानों को शाकाहारी बनना पड़ेगा। यदि वह शाकाहारी नही बनती है तो फिर जीवन कितना कठिन हो जाएगा, इसकी कोई कल्पना भी नही कर सकता। बिना शाकाहार के उसका अस्तित्व खतरे में है।
किसी समय एक राजा के राज्य में जबरदस्त अकाल पड़ा। जनता दाने दाने को तरस गई। भुखमरी हर दिन बढ़ती जा रह थी और लाशों के ढेर लग रहे थे। इस संकटकालीन स्थिति पर विचार करने के लिए राजा ने अपनी मंत्रिपरिषद की बैठक बुलाई और सभी से पूछा कि इस स्थिति से किस प्रकार निपटा जाए? कुछ मंत्रियों ने कहा कि अनाज नही है तो क्या हुआ, हमारे राज्य में पशुधन बहुतायत में है। लोग यदि दरोटी के स्थान पर मांस का भक्षण करने लगें तो समस्या का समाधान हो सकता है। हमारे पास इतने पशु हैं कि हम खाते खाते अघा जाएंगे और तब तक तो वर्षाकाल आ ही जाएगा। इसलिए महाराज, आप तो सबको यही आदेश दीजिए कि रोटी छोड़कर सब लोग मांस खाएं। बात लोगों को अच्छी लगी। अधिकांश मंत्रियों ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की। महाराज ने जब अपने प्रधानमंत्री की ओर देखा तो उनके चेहरे पर नाराजगी का भाव था। महाराज ने पूछा, प्रधानमंत्री जी, आप इस प्रस्ताव से सहमत है? तब उन्होंने कहा, भूख से निपटने का मार्ग जो हमारे साथियों ने बताया है, उसस पर मैं इस घड़ी अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नही करूंगा। राजन, अच्छा होगा कि मुझे आप कल तक का समय दें, ताकि इस सुझाव के हर पहलू पर मैं विचार करके अपनी राय दे सकूं। राजा ने प्रधानमंत्री की बात स्वीकार कर ली और बुलाई गई बैठक को समाप्त कर दिया।
जब रात्रि का अंधकार चारों ओर फेेल गया तो प्रधानमंत्री वेश बदलकर नगर में निकल पड़े। उन्होंने राजवैद्य का वेश धारण कर लिया। वे सबसे पहले उस मंत्री के पास पहुंचे जिसने पशुवध के माध्यम से अकाल का सामना करने का प्रस्ताव रखा था। उसके घर में पहुंचकर अत्यंत निराश मुद्रा में बोले, क्या बताऊं हमारे प्रिय राजा एक अत्यंत खतरनाक बीमारी से पीडि़त हैं। उनके लिए जो औषधि तैयार करनी है, उसमें इनसान के हृदय का दो तोला रक्त चाहिए। मुझे विश्वास है कि राजा की जान बचाने के लिए आप अपना रक्त मुझे जरूर देंगे।
लेकिन वैद्यजी, हृदय का रक्त देने का अर्थ है मेरी मौत। क्या आप यह काम किसी अन्य के रक्त से नही कर सकते? आप ये स्वर्ण मुद्राएं समेटी और दूसरे मंत्री के पास पहुंचे, जो पशुवध के प्रस्ताव से सहमत थे। मंत्रीजी का मुंह उतर गया और उन्होंने भी वही सब कुछ किया जो पहले मंत्री ने किया था। यहां भी स्वर्ण मुद्राएं अपनी झोली में समेटकर वे आगे बढ़ गये। इस प्रकार उस बैठक में जितने लोग थे, सभी के पास पहुंचे और दो तोलाा खून की मांग रखी। वैद्यजी के पास स्वर्ण मुद्राओं का ढेर लग गया। बहुत रात बीत जाने पर वे अपने घर लौट आए।
दूसरे दिन फिर दरबार में वही सब लोग राजा के सम्मुख उपस्थित हुए। राजा ने अपने प्रधानमंत्री से पूछा, आपने विचार कर लिया? अब भूख से निपटने का कोई अन्य मार्ग हो तो वह बताइए, नही तो पशुओं के कत्ल का फरमान जारी कीजिए। प्रधानमंत्री अपने स्थान से उठे। उन्होंने राजा को अभिवादन किया और बोले यह तुच्छ प्रधानमंत्री आपको अपनी बात कहे, उससे पूर्व राजन के सम्मुख कुछ भेंट देना चाहता है। राजा से आज्ञा मिलते ही उसने स्वर्ण मुद्राओं की पोटली खोल दी। राजा और दरबारी अवाक रह गये। इतनी सारी मुद्राएं कहां से लाए? प्रधानमंत्री बोले ये सब आपके मंत्रियों से ही मुझे मिली है? लेकिन कैसे? तब उन्होंने बताया कि राजन मैं रात को हर मंत्री के घर पर गया और दो तोला खून की मांग की। सबने स्वर्णमुुद्राओं सेस मुझे लाद दिया, पर किसी ने दो तोला खून नही दिया। जब दो तोला खून की इतनी कीमत हो सकती है तो फिर विचार करें, भूख से निपटने के लिए हम प्रतिदिन जो सैकड़ों पशु मारेंगे, उनके खून का मूल्य क्या होगा? अपनी जान के बदले तो सोने के सिक्के दे दिये, लेकिन इन मूक जानवरों के खून का पैसा कौन देगा? राजा को सारी बात समझ में आ गयी और उन्होंने पशु हिंसा से इनकार कर दिया। दरबारियों को महसूस हो गया कि जान कितनी प्यारी होती है।
यह कथा इस रहस्य को स्पष्टï कर देती है कि दुनिया में पशुधन कितना मूल्यवान है। यदि कोई अपनी भूख के लिए इनकी बलि लेना चाहता है तो निश्चित ही वह एक अदूरदर्शी कदम है।
क्रमश:

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