भरोसे काबिल नहीं हैं

ये पराश्रित परजीवी

डॉ. दीपक आचार्य
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दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। एक वे हैं जो खुद की बुद्धि, मेहनत और हुनर के बूते अपना जीवन बनाते हैं और मस्ती के साथ सफलतापूर्वक जीवनयापन करते हैं।दूसरी किस्म उन लोगों की है जो आत्महीन होते हैं। इन लोगों के पास कितनी ही बुद्धि, हुनर  और मेहनत का माद्दा क्यों न हों, ये लोग अपने बूते कुछ नहीं कर पाते हैं अथवा करने की हिम्मत नहीं हुआ करती। इनमें भी बहुत बड़ी संख्या ऎसे लोगों की है जिनके पास न कोई हुनर है, न मौलिक बुद्धि, ये लोग मेहनत-मजदूरी से भी कतराते हैं और सदैव यह भावना रखते हैं कि कोई कुछ दे जाए, दूसरे लोगों के भरोसे उनकी जिन्दगी की गाड़ी चलती रहे, और उन्हें कुछ नहीं करना पड़े।वैसे आजकल जमाने भर में कई सारे धंधे ऎसे आ गए हैं जिनमें चतुराई, धूत्र्तता और भय से कमा खाने के फोर लेन और सिक्स लेन मार्ग आसानी से उपलब्ध हैं। हमारे आस-पास की बात हो या दूरदराज की, कमोबेश सभी जगह आदमियों की एक प्रजाति खूब पसरी हुई है। कभी यह अमरबेल की तरह नैतिक मूल्यों और आदर्शों पर छायी दिखाई देती है और कभी गाजर घास की तरह जमाने भर में पसरी रहा करती है।

इस किस्म के लोगों की पूरी जिन्दगी औरों पर आश्रित होती है। इन पराश्रितों का जीवन परजीवियों की तरह होता है जो दूसरे जीवों और वृक्षों से अपना पोषण और रस चूसते हुए अपने आपको जिन्दा ही नहीं रखा करते, बल्कि जिसकी छाती पर चढ़कर इठलाते रहते हैं उन्हें भ्रमित रखकर खुद सूरज की निगाह में आने को ऊपर बढ़ते रहते हैं। इन परजीवियों और इनके आश्रितों के मध्य कहीं अघोषित और गोपनीय रिश्ते होते हैं, कहीं घोषित और कहीं एक या दो तरफा।बहरहाल समाज जीवन और अपने क्षेत्र में भी खूब लोग ऎसे हैं जो औरों के भरोसे अपनी जिन्दगी का निर्वाह कर रहे हैं और ऎसे लोगो का पूरा का पूरा योगक्षेम  उन्हीं लोगों के सहारे चलता रहता है जिनके वे कहे जाते हैं।ऎसे लोग वटवृक्षों से भी ज्यादा छायादार होने, यूकेलिप्टस और चीड़ के वृक्षों से भी ज्यादा ऊँचे होने, अपने इलाकां में लोकप्रिय और सुप्रतिष्ठ होने का भ्रम इस कदर पाल लिया करते हैं कि इन्हें न समाज दिखता है, न अपना क्षेत्र, और न ही अपने कत्र्तव्य कर्म, आदर्श और सामाजिक जिम्मेदारियाँ।

आधी रोटी में दाल से लेकर हर कहीं टाँग फँसाने के आदी ये लोग सामाजिक और परिवेशीय धाराओं तक के प्रवाह को अपने मनमाने हिसाब से चलाने के लिए स्वंयभू जगदीश्वर की तरह व्यवहार करते हैं और इनका सर्वोपरि भ्रम यही होता है कि वे ही हैं जो अपने इलाके और क्षेत्र के लोगों के भाग्यविधाता हैं और उनकी इच्छा के बगैर पत्ता भी नहीं हिल सकता।पत्तों की हर नज़ाकत और हवाओं की ताकत से नावाकिफ ये ठूँठ आजकल हर क्षेत्र में विचरण करते नज़र आते हैं। इनके लिए पूरा परिक्षेत्र धर्मशाला से कम नहीं है जहाँ ये अपनी मनमर्जी के सारे कामों को अंजाम देते रहते हैं।

शर्म और हैरत की बात यह है कि खुद के भाग्य से वंचित होकर दूसरों के सहारे जीने वाले ये लोग औरों का भविष्य सँवारने के लिए विश्वास दिलाने लगे हैं। जीवन में जो एक बार पराश्रित या परजीवी हो जाता है उसके लिए हमेशा किसी न किसी ढपोड़शंख या कल्पवृक्ष के साये में रहना वह मजबूरी हो जाता है जिसके बगैर न इनका जीवन है, न इनके व्यक्तित्व का आडम्बर।दुर्भाग्य यह भी है कि भोले-भाले और सीधे-सादे लोग इन लोगों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ जाते हैं जिनका खुद का जीवन परायी भैंसों के भरोसे है। जो स्वयं परजीवी और पराश्रित है उससे किसी भी प्रकार के सहयोग की अपेक्षा करना अपनी मूर्खता है। जो लोग इन परजीवियों की बातों में आ जाते हैं, उन्हें भी ये लोग उस स्थिति में छोड़ देते हैं जहाँ इनके सामने भी परजीवी होने के सिवा कोई और चारा बचता ही नहीं।

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