आवारा कौन?

पशु या हम

– डॉ. दीपक आचार्य

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पिछले कुछ दशकों से आवारा पशु हर जगह कुछ-कुछ दिन में चर्चाओं में आते रहे हैं। आवारा से सीधा अर्थ निकलता है अनियंत्रित, मर्यादाहीन, उन्मुक्त और स्वच्छन्द जीवनयापन।

मनुष्य को छोड़कर दूसरे सारे प्राणियों में इतनी बुद्धि नहीं दी हुई है कि वे विवेक के साथ अपना अच्छा-बुरा सोच सकें। इसलिए उनके बारे में कुछ कहना बेकार है। लेकिन दुनिया में सबसे ज्यादा समझदार प्राणी के रूप में मनुष्य को सामाजिक प्राणी का दर्जा मिला हुआ है और उसे भगवान ने भरपूर बुद्धि, विवेक तथा इनके उपयोग का अधिकार दिया हुआ है।09_07_2012-09smbp32-c-2

मनुष्य से यह उम्मीद की ही जा सकती है कि वह इंसानियत को अपनाएं, अपने दायरों में रहे, मर्यादाओं और अनुशासन का पूरा पालन करे तथा ऎसे कर्म करे कि समाज और क्षेत्र में उसकी प्रतिष्ठा कायम हो। पर आजकल हम लोग जैसा बर्ताव कर रहे हैं वह आवारा पशुओं से भी गया-बीता हो गया है।

मानवीय संवेदनाएं भुलाकर हम अपनी ही अपनी झोली भरने में लगे हैं। बात खाने-पीने की हो या फिर किसी संसाधन या वस्तु को प्राप्त करने की, हम इस दौड़ में सबसे आगे रहने के लिए जितनी मशक्कत करते हैं उतनी पशु भी नहीं करते।

हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में हम जो कुछ बर्ताव कर रहे हैंउसमें से कई व्यवहार ऎसे हैं जो आवारगीकी परिभाषा में आते हैं। यह दिगर बात है कि हम उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। बेवजह चिल्लाना, रास्तों, गलियारों, वाहनों में चिल्लाते हुए बातें करते रहना, मोबाइल पर तेज आवाज में गाने सुनना, केला या दूसरे फल खाकर छिलके बीच राह फेंक देना, जहाँ इच्छा हो थूंक देना, पीक कर देना, पानी और बिजली की बर्बादी, दिन-रात बिना किसी काम-काज के इधर-उधर बैठे रहना, घण्टों गपियाना, अनर्गल चर्चाओं में रमे रहना, संगी साथियों के साथ फालतू घूमते रहना, दुकानों और दफ्तरों, सार्वजनिक स्थलों को अपनी धर्मशाला समझते हुए घण्टों गुजारना और वहाँ के लोगों को डिस्टर्ब करते रहना, हर गलियारे और स्थल को अपना समझकर अधिकार जताना, हर जगह मुफत का माल तलाशना और उड़ाना, अपने से बड़े, विद्वान और अनुभवी लोगों का तिरस्कार, अपने आपको भाग्यविधाता मानकर अहंकार में डूबे रहकर सज्जनों को परेशान करते रहना, हराम का खाना-पीना, बिना मेहनत के पद-पैसा-प्रतिष्ठा और ऎशोआराम पाने की चाहत, दिन भर जहां-तहां घूमते रहकर लोगों का समय बर्बाद करना और फालतू की चर्चाओं में कुतर्क करना, शरीर के लिए हानिकारक पदार्थों का भक्षण और पेय, मुंह में पान-गुटका-तम्बाकू चबाते हुए हमेशा जुगाली करते रहना, वाहनों की बेतरतीब पार्किंग, बीच सड़कों पर ऎसे गुजरना जैसे कि पार्क में घूम रहे हों, कुत्तों की तरह रोटी और हड्डियों के टुकड़ों के लिए औरों पर आश्रित रहना, पालतु कुत्तों की तरह दूसरे लोगों का पालतु बनकर अनुचित एवं अन्यायपूर्ण व्यवहार करना, अपने पद का दुरुपयोग, छुट्टियों के दिनोें में लोगों को तंग करना, अपने नंबर बढ़ाने के लिए औरों का शोषण करना, अत्याचार ढाना, पागलों की तरह झल्लाना, गुस्सा करना और श्वानों की तरह आये दिन भौंकते रहना, चाय-पानी और नाश्ते-भोजन और दारू के लिए रोजाना किसी न किसी मुर्गे की तलाश करने की आदत बना लेना, दूसरों के फोन और मोबाइल तथा संसाधनों, साधनों का अपने लिए इस्तेमाल करना, अपने मोबाइल के लिए औरों के पैसों से रिचार्ज कराना, हर मौके पर अपनी मौजूदगी दर्शाने के लिए जी तोड़ मेहनत करना, नाम और फोटो के लिए मशक्कत,  अपने आपको अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और क्षेत्र का भाग्यविधाता मानने का भ्रम रखते हुए आदर-सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के लिए नाजायज हथकण्डे अपनाना, कथनी और करनी में समानता का अभाव, भेदपरक दृष्टि, अच्छे लोगों को नीचा दिखाने के लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की बजाय घृणित हरकतें और गोरखधंधे अपनाना,  हर किसी काम में टाँग फंसाना, पशुओं की तरह व्यवहार करना, स्वच्छन्द एवं उन्मुक्त होकर गैर मानवीय हरकतें करना आदि सैकड़ों बातें ऎसी हैं जिन्हें देखकर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उछलता रहता है कि आखिर आवारा कौन हैं, पशु या हम?  हमारी तो हालत ये हो गई है कि हम  अपने परिवारजनों और सहकर्मियों पर भी शोषण ढाने लगे हैं। हमामें से कई लोग ऎसे हैं जिनके कारण से उनके सहकर्मी, घर वाले या  समाजजन और क्षेत्रवासी भी हैरान रहते हैं और साफ स्वीकार भी करते हैं ऎसे लोग ही हैं जो आवारा पशुओं  से भी गए बीते हैं।

यह अपने आप में गंभीर विषय है जो दर्शाता है कि हम अपने परंपरागत संस्कारों, आदर्शों और मानवीय मूल्यों को कितना भुलाते जा रहे हैं। गहराई से चिंतन-मनन हमें ही करना होगा कि सत्य क्या है। कहीं हम भी तो उस श्रेणी में नहीं माने जा रहे हैं? हालांकि आज भी बीज खत्म नहीं हुआ है। खूब सारे लोग ऎसे हैं जो इंसान होने का अर्थ समझते हैं और उन्हीं आदर्शों और संस्कारों की परंपरा पर चल रहे हैं।

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