मनहूसियत न ओढ़ें रखें

खुश रहना चाहें तो बाँटें खुशियाँ

– डॉ. दीपक आचार्य

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आजकल संसार के सारे संसाधन और सुख खरीदने से प्राप्त हो सकते हैं लेकिन जीवन का असली आनंद न बाहर से प्राप्त हो सकता है, न इसका आयात किया जा सकता है। हर आदमी प्रसन्न रहने और जीवन में मौज-मस्ती का सुकून पाने के लिए निरन्तर भागदौड़ करता रहता है। इसके लिए वह जिन्दगी भर जायज-नाजायज संबंधों को बनाता-बिगाड़ता है, अच्छे-बुरे लोगों से संपर्क करता है, इंसानियत को भुलाकर ऎसी नापाक हरकतें करता रहता है कि उसे देख कभी नहीं लगता कि इन्हें इंसान बनाकर भगवान ने कोई ठीक काम किया हो।

हर आदमी के जीवन में सुकून की बुनियाद घर की देहरी से शुरू होती है और इसी सुकून के साथ जुड़ा हुआ रहता है जिन्दगी भर का पूरा ऎश्वर्य। आजकल बात-बात में गुस्सा करना, औरों के मन को ठेस पहुंचाना, हिंसक व्यवहार अपनाना, अपने स्वार्थ में रमे रहकर औरों के अरमानों तथा खुशियों की हत्या, अनर्गल बकवास करते हुए दिन गुजारना, अपनी नाजायज और अनैतिक कामनाओं की पूत्रि्त के लिए चापलूसी और जयगान करना तथा अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए किसी के भी सामने पूरी तरह पसरकर मिथ्या समर्पण का स्वाँग रचना, अपने लाभ के लिए षड़यंत्रों का इस्तेमाल…. ये सब आजकल इंसान की फितरत में आ गया है।

आजकल आदमी के सामने सिर्फ खुद ही खुद नज़र आता है, उसे न दूसरे दिखते हैं, न समुदाय, न समाज, क्षेत्र या अपना देश। ऎसे में आदमी जो कुछ करता है वह खुद के लिए करता है और इस यात्रा में इतना खुदगर्ज हो जाता है कि उसे पता ही नहीं चल पाता कि कब इंसानियत उससे सरक कर किनारा कर गई।

प्रसन्न रहने और सुकून पाने का एकमात्र मार्ग यही है कि औरों के प्रति संवदेनशील बनें और दिन-रात में मन-वचन और कर्म से जो भी व्यवहार करें उसमें इस बात का ध्यान रखें कि सामने वाला भी हमसे इसी प्रकार का व्यवहार करे, तो हमारी मनःस्थिति कैसी होगी।  जो लोग औरों को प्रसन्न रखने और करने की कला सीख जाते हैं वही मनुष्यता की सच्ची सुगंध फैला सकते हैं।

अगर खुद को खुश रहना है तो अपने घर-परिवार और पड़ोसियों को प्रसन्न रखें। जहाँ हम काम करते हैं चाहे वह कोई सा दफ्तर, दुकान या प्रतिष्ठान हो अथवा किसी प्रकार का संगठन या सार्वजनिक संस्था, या फिर कोई सा दल हो। हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हमारे आस-पास जो लोग रहते हैं, काम करते हैं और सम्पर्क में आते-जाते हैं, उनके प्रति मितभाषी बनेें, व्यवहार में माधुर्य लाएं और सामने वालों को भी इंसान समझकर संवेदनशीलता के साथ बर्ताव करें।

वे लोग जिन्दगी भर मनहूस बने रहते हैं जिनके आस-पास के लोग अथवा सहकर्मी प्रसन्न नहीं रहते। ऎसे लोग चाहे कितने सम्पत्तिशाली हो जाएं, कितने ही बड़े पद प्राप्त कर लें या कितने ही बड़ों और लोकप्रियों को भरमाकर या उनकी चापलुसी करते हुए प्रतिष्ठित हो जाएं, मगर न उनके चेहरे पर चमक-दमक आ सकती है, न ओज। बल्कि ऎसे लोगों के चेहरों पर हमेशा किसी न किसी से प्रतिशोध लेने के लिए बुने जाने वाले षड़यंत्रों का तनाव, उदासी और मनहूसियत छायी रहती है। फिर ऎसे लोग आजकल खूब हैं जो इसी मनहूस मनोवृत्ति के हैं। यह भी संभव है कि इनके बीज तत्व में जाने-अनजाने कोई मिलावट हो चुकी हो। ऎसे दो-चार लोगों का समूह बन जाए, वहाँ नकारात्मकता और कलह का ज्वार हमेशा बना ही रहता है।

ये लोग खुद को महान बनाने के लिए चाहे कितने ही जतन क्यों न कर लें, आस-पास के लोगों की बद दूआओं का सीधा असर इन्हें जीवन में कभी भी खुशियों से रूबरू नहीं होने देता। ऎसे लोग जिन्दगी भर जाने कितने गोरखधंधों में रमे रहते हैं पर भीतरी आनंद के अजस्र स्रोत का पता कभी नहीं पा सकते ।

यह जरूरी नहीं कि एक आम आदमी में ही ऎसे कुलक्षण हों, बल्कि हकीकत यह है कि आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है, उतने ही अनुपात में उसके भीतर से मनुष्यता, संवेदनशीलता, निष्काम सेवा एवं परोपकार के भाव पलायन करते चले जाते हैं। ऎसे बड़े हो जाने वाले लोग जो कुछ करते हैं, कहते हैं उनमें जमीन-आसमान का अंतर होता है। कुछ बिरले लोग ही ऎसे होेते हैं जो कुछ मुकाम पा जाने के बाद भी अच्छे इंसान की तरह जीते हैं और मानवीय मूल्यों का अवलम्बन करते हुए आगे बढ़ते हैं। इन्हें लोग हृदय से श्रद्धा और आदर भी देते हैं।

आजकल खूब सारे लोगों की जिन्दगी इसीलिए अभिशप्त हो चुकी है क्योंकि उनका व्यवहार उन लोगों के साथ अच्छा नहीं होता जिनके साथ रोजाना कई घण्टे गुजारते हैं।  जिन क्षेत्रों में मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों का अभाव होता है वहाँ तनाव तथा कलह के कारण माहौल हमेशा उद्वेलित रहता है।

जिन्दगी का असली सुकून चाहने वाले लोग अपने अहंकारों को त्यागकर मानवीय गुणों की बुनियाद को मजबूत करते हैं और उन सभी को खुशियां बाँटने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं जो लोग उनके कहे जाते हैं अथवा उनके साथ घण्टों गुजारते हैं। जो अपने पास आए या रहे, उसे प्रसन्नता नहीं हो, तो हमारा जीवन व्यर्थ है। पेट भरना और अधिकार जताना इंसानियत नहीं है।  दंभ और हिंसक व्यवहार करने वाले जाने कितने जानवर यही कर रहे हैं। हममें और उनमें अंतर समझ में आ जाए, तो हम भी सुधर जाएं और यह जमाना भी।

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