हमारी नालायकी दर्शाता है

यह अलगाव और पलायन

– डॉ. दीपक आचार्य

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जमाना तेज रफ्तार पा गया है। वैश्वीकरण और अत्याधुनिक संचार सुविधाओं के मौजूदा दौर में कोई क्षेत्र ऎसा अछूता नहीं है जहाँ सभी प्रकार की सुविधाएं न्यूनाधिक रूप में मौजूद न हों। इसके बावजूद एक क्षेत्र के लोग अपने इलाकों में हर प्रकार की सुविधाएं होने के बावजूद सिर्फ पढ़ने-लिखने और प्रशिक्षण पाने के लिए अपने क्षेत्रों से दूर कहीं और जाकर महंगी और खर्चीली पढ़ाई करने को विवश हो रहे हैं, यह अपने आप में महान आश्चर्य का विषय है।

जो सुविधाएं अथवा जो विषय हमारे अपने क्षेत्रों में उपलब्ध नहीं हैं उनके बारे में ज्ञानार्जन या प्रशिक्षण के लिए बड़े शहरों या अन्य स्थानों में पलायन करने की बात समझ में आती है लेकिन अपने यहाँ सभी प्रकार की संस्थाएं, विषय, विशेषज्ञ तथा शिक्षण-प्रशिक्षण की तमाम सुविधाओं की उपलब्धता होने के बावजूद हमारे क्षेत्र की प्रतिभाएं बाहर पढ़ने-लिखने और प्रशिक्षण पाने जाएं, यह कहाँ का न्याय है।

आजकल सभी जगह ढेरों संस्थाएं, स्कूल-कॉलेज, संस्थान और शिक्षालय मौजूद हैं। इसके साथ ही उन शिक्षकों, प्रशिक्षकों, प्रोफेसरों, व्याख्याताओं आदि की पूरी की पूरी फौज भी है, जिस किस्म के लोग बाहर हैं। इसके बावजूद हमारे अपने क्षेत्रों से विद्यार्थियों का बाहर की ओर पलायन निरन्तर बना हुआ है।

यह पलायन कोई सामान्य बात नहीं है बल्कि हम सभी के लिए गंभीर चिंतन का बहुत बड़ा विषय है जो हमारे परिवारों, समाज और क्षेत्र के भविष्य से जुड़ा हुआ है। यह विषय उन शिक्षकों, व्याख्याताओं, शिक्षण संस्थाएं चलाने वालों और तालीम से जुड़े लोगों के लिए चुनौती है जो अपने आपको परम विद्वान, श्रेष्ठ नागरिक निर्माता और भविष्य निर्माता मानकर शिक्षक दिवस और दूसरे अवसरों पर आत्मप्रशंसा करते हुए दहाड़ते रहने के आदी हो गए हैं।

कई वर्षों का प्रशिक्षण, सुदीर्घ अनुभव और सातों आसमान उछलती रहने वाली विद्वत्ता से भरे-पूरे लोगों की अपने यहाँ इतनी बड़ी फौज के होते हुए हमारे बच्चों को अपने इलाकों से पढ़ाई-लिखाई और प्रशिक्षण के लिए बाहर जाना पड़े, यह अपने आप में दुर्भाग्यजनक है तथा तालीम जगत के महारथियों की क्षमताओं पर प्रश्नचिह्न लगाता है।

हमारे होते हुए अपने बच्चों को कर्ज का जुगाड़ कर भविष्य बनाने के लिए बाहर जाना पड़े, अपने बंधुओं को अभावों में समय गुजारना पड़े, ऎसे में हमारे यहाँ होने तथा विद्वत्ता की डींगे हाँकते रहने का कोई औचित्य नहीं है। हमारा होना न होना बराबर है यदि हम हमारे बच्चों को अपने पास रखकर शिक्षा या प्रशिक्षण का माकूल प्रबन्ध नहीं कर सकें और हमारे यहां के बच्चों को स्थानीय शिक्षा पद्धति और हम सारे के सारे विद्वजन नाकारा महसूस होने लगें।

इस मानसिकता के लिए अकेले तालीम जगत में तालियां पीटने वाले लोग ही दोषी नहीं हैं बल्कि उनके अभिभावक भी दोषी हैं, और बच्चे भी। अभिभावक अपनी बला टालने में माहिर होते हैं और वे चाहते हैं कि उनकी जिम्मेदारी सिर्फ पैसों का प्रबन्ध करने तक ही सिमट कर रहे बाकी जो करना है, बच्चे करेंगे।

बच्चों की सोच यह होती है कि अधिकांश बच्चों में संगति या दूसरे कारणों से स्वच्छन्दता और उन्मुक्तता हावी रहती है और ऎसे में बच्चे अपने घर-परिवार और गांव-शहर में मनमानी नहीं कर पाते, इसलिए बाहर जाने की जिद करते हैं। फिर कोमल मन वाले बच्चों में भेड़चाल भी घुस आती है और फिर एक परंपरा बन जाती है बाहर जाकर पढ़ने की।

यह सारी स्थितियां गंभीर चिंतन का विषय हैं और हम सभी को यह सोचने के लिए विवश कर देती हैं हम सारे के सारे इतने नाकारा होते जा रहे हैं कि बच्चे हमें छोड़-छोड़ कर पलायन करने की मानसिकता में हैं और स्थानीय स्तर पर सभी प्रकार का प्रबन्ध और शिक्षण-प्रशिक्षण सुविधाएं होने के साथ ही घर-परिवार का माहौल होते हुए भी क्यों बाहर जा रहे हैं।

हम सभी को अपने कत्र्तव्यों के बारे में फिर से आत्मचिंतन करने की जरूरत है। हमें यह भी सोचना होगा कि इन स्थितियों में हमारे होने का क्या अर्थ रह गया है, मोटी तनख्वाहों, सरकारी-गैर सरकारी सुख-सुविधाओं का उपयोेग कर हम समाज को क्या कुछ दे पा रहे हैं।

यह हम सभी के लिए अस्तित्व के लिए वो चुनौती है जिसका जवाब दे पाने की स्थिति में हम नहीं हैं क्योंकि हमने अपनी ही अपनी ओर देखा है, बच्चों और समाज के प्रति हमने अपनी सारी जिम्मेदारियों को भुला डाला है। कभी हम सेवा के सरोकारों से जुड़े हुए थे, तब बच्चे हमारे पास रहकर आगे बढ़ते थे, अब हमने व्यवसाय के सरोकारों को अपना लिया है और बच्चों को हम उपभोक्ता से ज्यादा कुछ समझ नहीं पा रहे हैं।

बाहर के लोग भी बच्चों को भविष्य नहीं मानकर अपने भविष्य को सँवारने वाले मुर्गे मानकर चल रहे हैं। एन सभी के लिए शिक्षा की दुकानें  भोले-भाले बच्चों की मण्डियां बनी हुई हैं। इन हालातों में हमारा वो भविष्य बरबाद हो रहा है जिस पर समाज और देश की बुनियाद टिकी हुई है। बच्चों, उनके अभिभावकों और हम सभी में अपने आपके प्रति फिर से विश्वास जगाना होगा। वरना इससे तो अच्छा होता कि हम नदी के पत्थर ही होते, कम से कम कपड़े धोने तो काम आते।

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