फक्कड़ी जिन्दगी चाहें तो कर दें

खुद को महाप्रवाह के हवाले

– डॉ. दीपक आचार्य

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यह पूरा संसार ही अपने आप में बहुत बड़ा कारोबार है जिसका कोईnew-4 अंत नहीं है। निस्सीम और अनंत पसरे हुए संसार में जो लोग आए हैं उन्हें इन तमाम प्रकार के सांसारिक व्यवहारों की भूलभुलैया वाली गलियों से होकर गुजरने की विवशता होती ही है। अवतरण लेने वाले ईश्वरीय अवतारों से लेकर हम जैसे सामान्य लोगों को भी संसार के कारोबारी स्वभाव से रूबरू होना ही पड़ता है।

यह संसार माया से लेकर मृग मरीचिकाओं, मिथ्याओं से लेकर सुनहरे आडम्बरों तक का साक्षी रहा है और रहेगा।  कभी यह अपना लगता है कभी पराया। कभी जीवन का सबसे बड़ा सच और आनंद का महास्रोत प्रतीत होता है और कभी नश्वर, क्षणभंगुर। कभी मौसम की तरह बदलता दिखता है और कभी जड़ होकर स्थिरता का पैगाम देता।

समुद्र की लहरों और ज्वार-भाटे से लेकर गांभीर्य तक के सभी रंगों और रसों का यह महासागर अपने आप में जितना विचित्र है उतना खूबियों और रोचकताओं भरा भी। कालिख से लेकर शुभ्रता और सूरज की रोशनी से लेकर एक पक्ष में पूर्ण अंधकार और दूसरे पक्ष में चाँद का उजाला, सब कुछ है इस संसार के भीतर। कभी अजायबघर लगता है, कभी अपना घर।

संसार में जो भी रहता है उसे अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कुछ न कुछ जतन करना ही पड़ता है। बात सिर्फ मनुष्य तक ही सीमित नहीं है बल्कि पशु-पक्षियों से लेकर सभी जड़-चेतन कारकों पर यह लागू होती है।  मनुष्य सामाजिक प्राणी कहा जाता है और बौद्धिक बल भी उसे दिया हुआ है इसलिए हर घटना व स्पंदन के प्रति संवेदनशील रहता है। कोई कम तो कोई ज्यादा। यह संवेदनशीलता मन के कोनों से लेकर शरीर की कोशिकाओं तक समान रूप से व्याप्त रहकर जीवन का आभास कराती है।

पूरी जीवनयात्रा में आदमी दुःख और सुख, इन दो स्थितियों में ही पेण्डुलम की तरह झूलता रहता है। उसे न कोई एक छोर ही मिलता है, और न कोई स्थायित्व। यही क्रम आदमी की जिन्दगी का वह सबसे बड़ा कारक होता है जो जीवन की दशा और दिशा तय करता है। भाग्य और कर्म दोनों का ही फल भुगतता हुआ आदमी हमेशा दुविधाग्रस्त मानसिकता के भँवर में फँसा हुआ रहता है और ऎसे में उसकी जिन्दगी कब हवा हो जाती है, इसका पता आज तक कोई नहीं लगा पाया है।

आमतौर पर वर्तमान की आशंकाओं और भविष्य को लेकर मन में उमड़ने-घुमड़ने वाली शंकाओं के कारण ही हर व्यक्ति व्यथित होता है और मिथ्या कल्पनाओं और फालतू की धारणाओं को आकार देने लग जाता है। यहीं से उसके जीवन में वैषम्य का प्रवेश हो जाता है।

इन सभी प्रकार के दुःखों, पीड़ाओें और वैषम्य को दूर करने का कोई एकमात्र उपाय यही है कि खुद को ईश्वरीय महाप्रवाह के हवाले कर दो, फिर हमें क्या करना है, कहां जाना है, यह सब सोचना हमारा काम नहीं है, यह ईश्वरीय विधान के अनुरूप अपने आप होता चला जाएगा।

जिन्दगी को बेहतर बनाने और सफलता पाने के दो ही रास्ते हैं – प्रकृति पर विजय पाने के लिए अनथक संघर्ष का माद्दा पैदा करते हुए कर्मयोग में रमना या फिर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। खुद को महाप्रवाह तथा प्रकृति के भरोसे छोड़ दिए जाने से हमारे सारे वैयक्तिक कर्मों का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है और हम विराट तत्व में समरस होते हुए जीवन यात्रा के लक्ष्य की ओर डग बढ़ाने लगते हैं जहाँ न कोई खिन्नता होती है, न अतिरेक प्रसन्नता या अहंकार। जो कुछ होता रहता है वह सहज और शाश्वत आनंददायी।

जिन लोगों को भरोसा नहीं हो, उन्हें चाहिए कि कभी दो-चार दिन, सप्ताह या पखवाड़े भर के लिए  संकल्पबद्ध होकर अपने आपको ईमानदारी से महाप्रवाह को सौंप दें। फिर अपने आप यह अहसास हो जाएगा कि ईश्वर और प्रकृति के अनुकूल हो जाने पर कितने अनिर्वचनीय शाश्वत आनंद की प्राप्ति होती है।

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