यह वक्त है

आत्मचिंतन का

– डॉ. दीपक आचार्य

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संक्रमण का वह दौर अब समाप्त हो चुका है जब चारों तरफ उद्विग्नता और ऊहापोह वाली वो स्थिति थी जिसमें चित्त से लेकर सब कुछ कभी उछाले मारने लगा था, कभी गहरे तक डुबकी।  आसमान से जात-जात के बादलों को हवाएं उड़ा ले गई और चमकता-दमकता सूरज आ ही निकला।

आम तौर पर अपने यहाँ ज्योतिष से लेकर जनजीवन तक में संक्रातिकाल को महत्त्व दिया गया है। यह संक्राति अपने आप में इतनी शक्तिशाली हुआ करती है कि न्यूनाधिक रूप में परिवर्तन की भूमिका रच दिया करती है। इसका असर समष्टि और व्यष्टि दोनों पर पड़ता है।

कई बार वैश्विक और देशज क्रांति का माहौल बनता है और यह कई सारी संक्रांतियों पर भारी पड़ जाता है। हमारा देश उत्सवों और पर्वों का देश रहा है जहाँ  हर उत्सव हर किसी को कुछ न कुछ संदेश दे ही जाता है। हमारा यह संक्रांति उत्सव भी काफी कुछ पैगाम दे गया है हम सभी के लिए।

हमें आगे बढ़ना है, भारतभूमि को आगे बढ़ाना है और विश्व में फिर से अपनी अन्यतम पहचान स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ना है। सारे के सारे मौसमों ने एक साथ हमें अपने विराट स्वरूप का दिग्दर्शन करा दिया है। पतझड़ से लेकर सावन  और वसंत तक का अहसास हुआ है।

अब हवाएं शांत हो चुकी हैं, समंदर की लहरों ने विश्राम पाया है और मंद-मद चलता जनजीवन नए युग में प्रवेश कर चुका है। जब भी कोई नया दौर आता है, हम आशाओं भरी निगाह से देखने लगते हैं और हमारा विश्वास प्रगाढ़ होता चला जाता है।

भारतीय संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण-संवर्धन के साथ बहुआयामी विकास में हमारी भूमिकाओं को चिह्नित करने का समय आ चला है। भारतमाता की रक्षा और प्रतिष्ठा अभिवृद्धि से लेकर स्वाभिमान और गौरव जगाने की दिशा में आत्मचिंतन का समय है।

यह वक्त है जब हमें अपने नागरिक दायित्वों और समाज तथा देश के प्रति जिम्मेदारियों को पूरा करने में स्वयं स्फूर्त और स्वप्रेरित भावना से जुटना है। हम जो कुछ सोचें, देश और समाज के लिए, जो कुछ करें समाज और देश के लिए। ऎसा होने पर ही हम आत्मनिर्भर समुदाय और उन्नत भारत के निर्माण की गति को तेज करने में अपनी सशक्त भागीदारी का निर्वाह कर सकेंगे।

अब समय न नकारात्मक सोचने का है,  न आत्महीनता या निराशा में डूब कर कोने में बैठ जाने का, न औरों को दोष देने का, न बौराने का। बल्कि जो कुछ हमें मिला है, ईश्वर की अनुकंपा से जो कुछ पाया है उसका लोक और जगत के लिए समर्पण करने का समय है।

हर युग अपने आप में नयापन लेकर आता है लेकिन उसका हम कितना सदुपयोग कर पाते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि हमारी निस्पृह, निष्काम और निष्प्रपंच भागीदारी का ग्राफ कितना है। हम जितने निःस्वार्थ भाव से परोपकार और सेवा के भावों को अपनाते हैं उतना ही हमें अधिक आनंद एवं आत्मतोष मिलता है। यह आत्म संतुष्टि ही हमारे जीवन का मूल्यांकन करती है।

हमारा मूल्यांकन कोई और कभी नहीं करता, अपनी आत्मा सशक्त न्यायाधीश है जो सही-गलत का नीर-क्षीर फैसला कर लेती है। हमारे लिए जीवन का वह दिन ही महत्वपूर्ण होता है जब हमारी अपनी आत्मा अपने कर्मों पर मुहर लगा दे।

जो जहां हैं, उन सभी के लिए यह वक्त गंभीर आत्मचिंतन का है। हम सभी लोग इस बात को सोचें कि हम देश के लिए क्या कर सकते हैं, अपने समुदाय के लिए, अपने क्षेत्र के लिए क्या कर सकते है। जवाब अपनी आत्मा अपने आप देगी। लेकिन शर्त यह है कि हमारी दृष्टि अपने स्वार्थ, बैंक बेलेंस, घर-परिवार या अपने ही अपने भले के लिए न हो। अपने स्वार्थों में रमे रहते हुए हम न समाज का भला कर सकते हैं, न देश का। अब समय बातों का नहीं है, काम करने का है और वह भी पूरी शिद्दत और ईमानदारी के साथ।

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