होली पर ही दिखता है

हमारा असली चाल-चलन

– डॉ. दीपक आचार्य

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साल भर में एक बार ही सही, होली के दिनों में तो कम से कम हम अपनी असलियत पर आ ही जाते हैं। यही वे दिन हैं जब हम अपनी मौलिक औकात पर आ जाते हैं और वह सब कुछ साकार दिखने लगता है जो साल भर तक हमारे अवचेतन में होता है, हमारी कल्पनाओं में दबा-कुचला रहता है और जिसे हम शर्म या ओढ़ी हुई मर्यादाओं के कारण से किसी और मौके पर व्यक्त नहीं कर पाते हैं।

होली के दिनों में हम जो कुछ करते है वह कोई अभिनय नहीं होता बल्कि यह हमारे जीवन कीवह सबसे बड़ी कटु सच्चाई है जिसे स्वीकार करने कासाहस हम कभी नहीं कर पाते। अलग मिट्टी से बने कुछेक लोगों को छोड़ दिया जाए तो हममें से काफी लोग ऎसे हैं जो अपने अवचेतन में दबे मैले-कुचैले विचारोें, अतृप्त वासनाओं और आपराधिक मानसिकता भरे फितूरों को पूरा करने के लिए किसी न किसी बहाने या मौके की तलाश में हमेशा बने रहते हैं और जीवन भर में ऎसा कोई मौका कभी नहीं चूकते जिसका भरपूर लाभ लिया जा सकता हो, यहीं पर हमें यह अच्छी तरह महसूस होता है कि भगवान ने हमें बुद्धि भी दी हुई है।

होली के नाम पर रास्ते रोककर पैसे मांगने, गुण्डागर्दी करने, गालियों की बौछारें करने से लेकर वो हरसंभव हरकत हम कर डालते हैं जो साल भर में कभी नहीं कर पाते। हर त्योहार को उल्लास के साथ मनाना हम सभी को अच्छा लगता है लेकिन रास्ते रोक कर तथा भिखारियों और गुण्डों की तरह लोगों को परेशान कर होली के नाम पर पैसे मांगने का जो चलन दिख रहा है उससे तो यही लगता है कि यही हमारा असली स्वरूप है। होली के दिनों में हर तरफहमारे अपने में से ही निकले भिखारियों और समाजकंटकों का जमावड़ा तो यही सिद्ध करता है।paintigart2

हर पर्व-त्योहार और उत्सव मनाने का आनंद तभी है जब हम स्वयं के पैसों से मनाएं, भले ही कम पैमाने पर मनाएं। पराये और वह भी औरों को हैरान-परेशान कर ली गई इस भीख से होली मनाने का न कोई औचित्य है, और न ही इससे हम आनंद पा सकते हैं। प्रसन्नतापूर्वक जो प्राप्त हो जाए वह गोठ है, जो छीन कर लिया जाए वह लूट-खसोट।

कई जगह तो होली असामाजिक तत्वों और गुण्डों के लिए पैसा उगाही का वैधवार्षिकोत्सव ही हो गया है वहीं कई नाकारा और नालायकों को लगता है कि वे यों तो कोई पैसा कमाने की कुव्वत रखते नहीं, होली के नाम पर धींगामस्ती से जो कुछ भीख मिल जाए, वो अपना-अपना भाग्य।

हर इंसान दूसरे इंसान को उत्सवी उल्लास देने वाला होना चाहिए न कि पीड़ा देने वाला। होली के दिनों में अश्लील गालियों की बौछारें करते हुए राहगीरों और वाहनधारियों से पैसा ऎंठने वाले भिखारियों को देख यही लगता है कि हम उस दिशा में डग बढ़ा रहे हैं जो जंगल की ओर जाता है। हमारे चाल-चलन को देख जंगल के जानवरों को भी शर्म आ जाए। वे भी अपनी मर्यादाओं का कभी उल्लंघन नहीं करते।

एक हम हैं कि पैसों के लिए कुछ भी कर सकते हैं। परायों पैसों पर त्योहार मनाने का यह शगल हमें जंगलियों से भी खतरनाक साबित कर रहा है। हमें किसी न किसी बहाने हराम की कमाई खाने और जमा करने की ऎसी आदत पड़ चुकी है कि जो समाज, पूरी मानवजाति एवं सभ्यता के लिए कलंक बनी हुई है।

होली के नाम पर पत्थर-कांटें बिछाकर रास्ता रोक देने, जबरन पैसे मांगने, लोगों को तंग करने, गालियां बकने, नालियों का गंदा मल-मूत्र भरा पानी रंग मिलाकर मुंह और शरीर पर पोतने, अपरिचितों पर रंग डालने, छेड़खानी करने, भंग और शराब में तरबतर होकर धमाल मचाने, लूट-खसोट आदि से तो यही संकेतित होता है कि हम अपनी मानवता को भुला बैठे हैं और हम सभी ने अघोषित रूप से कबीलाई संस्कृति को अंगीकार कर लिया है जहाँ अनपढ़-गंवार लोगों का बोलबाला होता है और उन्हीं का राज चलता है।

दुर्भाग्य यह है कि उच्च शिक्षित और समझदार लोग भी हद दर्जे के संस्कारहीन होते जा रहे हैं और अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं नैतिक मूल्यों से किनारा कर चुके हैं। अभिजात्य वर्ग के लोगों में यह संस्कारहीनता कुछ ज्यादा ही देखने को मिल रही है।

समाज का निर्देशन करने वाले बुजुर्ग, संत-महात्मा और श्रेष्ठीजन अपने स्वार्थों में आकंठ इतने डूबे हुए   हैं कि उन्हेें समाज और देश की बजाय अपने घर भरने की लगी हुई है। ऎसे में संस्कार संवहन, मार्गदर्शन और प्रेरणा संचार के सारे परंपरागत सेतु ध्वस्त हो चुके हैं।

इन सभी के बावजूद हमारे मौलिक स्वरूप का दिग्दर्शन होली के दिनों में अच्छी तरह हो ही जाता है जो सिद्ध करता है कि हम कितनी ही सदियों को पार करते चले जाएं, दुनिया कहीं से कहीं आगे निकल जाए, हम अपनी भौण्डी हरकतों, हरामखोरी, शराबखोरी तथा मुफ्तखोरी की आदत को कभी छोड़ नहीं पाएंगे। चाहे कैसा भी अपराध कर लो, माफी मांग लो। यही हो रहा है होली पर। सारी असामाजिक हरकतों की हसरतें पूरी कर लो और बाद में जोर से चिल्ला लो – बुरा न मानो होली है।

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