कमजोर और कायर  ही करते हैं

विरोध और शिकायतें

– डॉ. दीपक आचार्य

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आजकल लोगों में नकारात्मकता का प्रसार तेजी से हो रहा है। जो काम खुद को करना चाहिए, उसमें तो हम फिसड्डी साबित होते हैं और दूसरों से उम्मीद रखते हैं कि हमारे काम आएं। आदमी की सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह खुद को कभी देखता नहीं, उसकी निगाह औरों पर ही होती है। जिसे देखो, वो अपनी बात कम करता है, दूसरों के बारे में ज्यादा बोलता भी है और दिन-रात चिंतन भी करता रहता है।

हमारा जीवन और दिनचर्या, वाणी और व्यवहार किधर जा रहे हैं, उससे कहीं अधिक चिंता और जिज्ञासा हमें उन लोगों के बारे में रहा करती है जो हमेशा हमारे जेहन में रहते हैं। सामने वाले का धेले भर का नुकसान कर डालने के लिए हम अपना सैकड़ों-हजारों का नुकसान कर लेने को हमेशा तैयार रहते हैं।

आज का युग आत्मदुःखी होने का युग है। इसमें हमने अपने काम-काज की बजाय औरों के जीवन पर हमेशा निगाह बनाए रखने और मौका मिलते ही गिद्ध की तरह झपट्टा मार लेने का अभ्यास अपना लिया है। आज हमारे आस-पास से लेकर दूरदराज तक का माहौल उन लोगों से भरा पड़ा है जिनमें न भारीपन है, न आदर्श और न संस्कार। इन लोगों के बीज में ही जाने कैसा प्रदूषण भरा पड़ा है कि ये वाणी और व्यवहार से सारे काम नकारात्मक ही करते हैं। सोचते हैं तब भी यही कि कैसे दूसरों को हानि पहुँचाकर अपने अहंकार और नकारात्मक उद्देश्यों में परिपूर्णता प्राप्त करें।

यही कारण है कि आजकल सर्वत्र उन लोगों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है जो शिकायतें करते फिरते हैं, लोगों के बारे में चौराहों, गलियों से लेकर दुकानों और दफ्तरों के गलियारों तक बकवास करने के आदी हो चले हैं। इनकी किसी भी बात में अंश मात्र भी सच्चाई भले न हो, ये लोग अपनी अनर्गल व लच्छेदार चर्चाओं से मजमा जरूर लगा सकते हैं। फिर आजकल तमाशबीनों की कहाँ कोई कमी है, एक ढूँढ़ों, हजारों मिल ही जाते हैं। फिर चाहे गांव-कस्बा हो या कोई महानगर।

निठल्लों और नालायकों की हर क्षेत्र में भरमार है। अपना क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं हैं। सिर्फ रोजाना अलाप-प्रलाप से इन बकवासी लोगों का जी नहीं भरता है बल्कि ये नामजद या गुमनामी शिकायतें करने में भी सिद्धहस्त होते हैं। दिन-रात शिकायतों के बारे में सोचने और शिकायत करने वालों का हाल ये हो जाता है कि कुछ समय बाद इन लोगों के लिए शिकायतें करना धंधा बन जाता है।

आजकल काफी स्थानों पर ऎसे लोग हैं जिनकी आजीविका का आधार ही शिकायतें बनी हुई हैं। अक्सर देखा यह जाता है कि संस्कारित परिवार के बीज तत्वों से भरपूर लोग भारी हुआ करते हैं और उन पर परिवेशीय हलचलों का ज्यादा असर नहीं पड़ता। इनकी स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसे कि गली से गुजरते हुए कुत्ते भौंकते रहते हैं लेकिन समझदार इंसान इनकी ओर से मुँह फेरकर यह सोच कर चुपचाप अपने रास्ते चला जाता है कि आखिर भौंकना कुत्तों का स्वभाव है।

जिन लोगों के बीज में कोई खोट है, वर्णसंकर या संस्कारहीन हैं और पुरुषार्थ के बूते कमा खाने में समर्थ नहीं हैं, ऎसे लोगों के लिए तो औरों को हैरान-परेशान करना और शिकायतों का धंधा अपनाकर कमा खाना जीवन की वो मजबूरी है जिसे छोड़ा नहीं जा सकता। जो लोग एक इंसान के रूप में कुछ भी नहीं कर सकते, नालायक और नुगरे हैं, वे ही शिकायतों और निन्दाओं में रमे रहते हैं। क्योंकि इसके अलावा उनके पास अपने वजूद को कायम रखने का और कोई जरिया है ही नहीं।

जिस गति से शिकायतियों और निंदकियों की संख्या बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए लगता है कि समाज को आने वाले समय में इनके हिंसक स्वभाव से बचने के लिए एक न एक दिन इनके लिए मुफतिया खान-पान का प्रबन्ध करना पड़ेगा जैसे कि हमारी भारतीय जीपनपद्धति में कौओं, कुत्तों, गायों और भिखारियों के लिए विद्यमान है।

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