download (12)राम की भी जय-जय

रावण की भी जय-जय

– डॉ. दीपक आचार्य

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अभी कल ही हमने रावण को मारने का कितना जोरदार अभिनय किया। रावण का पुतला भी जलाया, रावण परिवार का भी, लंका को भी जला डाला और बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय के गगनभेदी उद्घोष करके वैसे ही लौट आये जैसे बरसों से करते आ रहे हैं। न रावण मरा और न हमारे भीतर रामत्व का कोई जागरण हो पाया। बुराइयों का खात्मा करने को जमा हजारों-लाखों की भीड़ ने पटाखों के तेज धमाकों के साथ पुतलों को फूँक दिया और राम की जय-जयकार कर ली।

कितने उत्साह से हमने अपने आकाओं के हाथों तीर चलवाकर रावण को जलाया और सामूहिक खुशी का इज़हार कर लिया। रावण को भी साल में एक बार ही उसी क्षण लज्जित होने का अहसास होता होगा जिस क्षण राम का तीर उसकी ओर आता है, और तीर छोड़कर मारने वाले का रामत्व से दूर-दूर तक का कोई रिश्ता नहीं होता। रावण की जिन्दगी में इससे अधिक शर्मनाक दुर्घटना और कुछ नहीं हो सकती।

हर साल बुराइयों पर अच्छाइयों की विजय के संदेशों की भीड़, रावण और लंका दहन तथा इस काम में जन-जन की उत्साहजनक भागीदारी के बावजूद आज भी हमें प्रतीकात्मक रूप से ही सही, रावण दहन की जरूरत पड़ती है। यह अपने आप में इस बात का स्पष्ट संकेत है कि हम जो कुछ कर रहे हैं उसका न कोई परिणाम सामने आ रहा है, न किसी पर उसका कोई असर पड़ रहा है।

रीत का रायता बनाने की विवशता हमारे पुरखों से लेकर हम तक चली आ रही है और जाने कब तक यों ही चलती रहेगी। न हमें अच्छाइयों से कोई लेना-देना रह गया है, न बुराइयों से। हमें मतलब है सिर्फ हमारे कामों से, अपने उल्लू सीधे होते रहें तो रावण की भी जय और जरा सा ब्रेक लग जाए तो हमारे लिए राम भी बुरे हैं।

आजकल राम या रावण, अच्छाइयों या बुराइयों से किसी को कोई सरोकार नहीं रहा है तभी तो सालों से रावण के पुतले फूँकने और बुराइयों के उन्मूलन का अहसास मिथ्या साबित हो रहा है। अच्छाइयों का प्रभाव समाप्त होता जा रहा है और दिन-ब-दिन बुराइयों का बोलबाला होता जा रहा है।

किसम-किसम के रावण पनपते और पसरते जा रहे हैं। हर तरफ रावणी संस्कृति का मायाजाल समाज और दुनिया को सुनहरे मकड़जाल में फाँसता ही जा रहा है।  अब रावण कल्चर समाज-जीवन के हर क्षेत्र में गहरे तक व्याप्त हो गई है। उस रावण ने तो मात्र सीता मैया का हरण किया था बाकी तो पाण्डित्य और गुणों की खान था वह। आज के रावण अपनी पूरी की पूरी संस्कृति और सामाजिक परंपराओं, आदर्शों का चीरहरण कर रहे हैं। जमीन के टुकड़ों और मानवीय मूल्यों से लेकर मर्यादाओं, अनुशासन, ईमानदारी, देशभक्ति, राष्ट्रीय चरित्र, नैतिकता, जमीन-जायदाद, संबंधों के माधुर्य और सामाजिक-सामूहिक विकास भरी जीवनपद्धति तक का हरण कर लेने वाले रावणों का बाहुल्य सर्वत्र है।

रावण आम आदमी से लेकर कुर्सियोें तक पर हावी हैं। कई तरह के रावणों से हम घिरे हुए हैं जहाँ से निकलने के लिए जिस द्वार की ओर बढ़ते हैं वहाँ कोई नया रावण अट्टहास करता नज़र आने लगा है। पहले राम-राम का संबोधन भी सुनाई देता था मगर अब हैलो और हाय के चर्चे हैं। राम हमारे हृदय से लेकर परिवेश तक गायब होता रहा है।

हम सभी को लगता है जैसे रावण की परंपरा में रमे रहकर ज्यादा मौज-मस्ती पायी जा सकती है, फिर आजकल प्रतिष्ठा और लोकप्रियता पाने के लिए मानवीय मूल्याेंं और मर्यादाओं की बजाय पैसा और पॉवर ही सब कुछ हो गया है।

हम लोगों को यह भी लगता है कि यह जिन्दगी अपने लिए ही है, समाज और देश कहीं भी जाएं, हमें क्या। उन्मुक्त भोग-विलास, स्वच्छन्द आनंद और मस्ती पाना असुरों का भी ध्येय रहा है और हमारा भी। ऎसे में कितने लोग बचे हैं जिन्हें राम और रावण में फर्क का पता है।

आजकल तो आदमी अपने ही हाल में जीने और अपने लिए ही सब कुछ करने को उतावला है। ऎसे में उसे इससे कोई फरक नहीं पड़ता कि कौन कैसा है, क्या है। नए जमाने के लोगों की एक नई फसल इतनी व्यापकता के साथ पसरी हुई है कि उसे अपने स्वार्थ और ऎषणाओं की पूर्ति के लिए कुछ भी करने से गुरेज नहीं है।

हम लोगों के लिए सब बराबर है। राम की भी जय-रावण की भी जय। हम उन सभी की जय बोलने के लिए हमेशा तैयार हैं जिनसे हमारे जायज-नाजायज काम सधते हैं, हमें संरक्षण मिलता है और बिना मेहनत किए हमारे घर तथा बैंक बेलेन्स हमेशा भरपूर बने रहते हैं।

फिर बात सिर्फ जय बोलने-बुलवाने तक ही सीमित नहीं है। हमसे कुछ भी करवा लो, हमारे साथ कुछ भी कर लो….हमें अतीव प्रसन्नता और गर्व का अनुभव होता है। हो भी क्यों नहीं, जब हम सब नंगे होकर नदी में उतरने के आदी जो हो गए हैं। फिर नंगा और भूखों को शरम काहे बात की। बोलो – राम की भी जै, रावण की भी जै, कंस भी जै, कन्हैया की भी जै।

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