प्रकृति और परिवेश के अनुकूल करें

धर्म-कर्म और व्यवहार

डॉ. दीपक आचार्य
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हमारी दैनिक जीवनचर्या से लेकर परिवेशीय लोक व्यवहार और सार्वजनीन गतिविधियां आदि सब कुछ प्रकृति के अनुकूल होने पर ही सफलता प्रदान करती हैं। इसीलिए वर्ष भर में जो भी परंपरागत Untitled-1 copyगतिविधियां, लोकोत्सव, मेले, पर्व और अनुष्ठान तथा सामाजिक एवं धार्मिक विधि-विधान सभी स्थानीय प्रकृति और परिवेशीय अनुकूलताओं को देखकर ही बनाए गए हैं।
प्रकृति की जहां कहीं अनुकूलताएं होती हैं वहाँ आधी कार्यसिद्धि और सफलता कार्य आरंभ करते ही प्राप्त हो जाती है क्योंकि ऎसे कर्मों में किसी भी प्रकार की बाहरी बाधाओं और ऋतुगत समस्याओं का कोई वजूद नहीं होता है।ऎसे में जो भी काम हाथ में लिया जाता है वह सफलता प्राप्त करने के साथ ही सुकून का अहसास भी कराने लगता है तथा कार्यपूर्णता के उपरांत एक अलग ही प्रकार के शाश्वत आनंद और परिपूर्णता का जीवंत अनुभव होता है।जब भी हम कोई कर्म करते हैं तब शरीरस्थ चक्रों तथा उनमें विराजमान देवी-देवताओं तथा अन्य दिव्य शक्तियों को जागृत करने के लिए भीतरी और बाहरी दोनों ही प्रकार की अनुकूलताएं होनी जरूरी हैं तभी इनका जागरण पूरी शक्ति से हो पाता है। शरीर भी अच्छा काम तभी कर पाता है जब उसे अनुकूलताएं प्राप्त हों।
बाहर और भीतर दोनों प्रकार की अनुकूलताएं सबसे पहला काम चित्त की उद्विग्नता को शांत करने का करती हैं और यहीं से आरंभ होता है किसी भी प्रकार के कर्म की सफलता का सफर। चित्त में चरम शांति, द्वन्द्वों का अंत तथा विभिन्न प्रकार के विकारों व आशंकाओं से मुक्त होने पर ही हमें धर्म-कर्म से लेकर अपने समस्त प्रकार के लोक व्यवहारों में शांति, आनंद एवं सफलताएं प्राप्त हो सकती हैं।किसी भी प्रकार के कर्म को श्रेष्ठ गुणवत्ताजनक तथा चरम सफलता वाला बनाने के लिए यह जरूरी है कि माहौल उपयुक्त व अनुकूल हो, किसी भी प्रकार की प्रतिकूलताएं हमारे सामने न हों।  अपने कर्म के प्रति निष्ठा, समर्पण और श्रद्धा आदि सब कुछ हो लेकिन माहौल अनुकूल नहीं हो, तब कर्म की सफलता संदिग्ध हो जाया करती है और पूरी मेहनत के बावजूद आनंद प्राप्ति से हम दूर ही रहा करते हैं।
इसके ठीक विपरीत हमारे आस-पास की प्रकृति, माहौल आदि सब कुछ ठीक ठाक हो, तब कर्म करने में भी आनंद आता है और प्रेरणादायी तथा कर्म सफलता के लिए जरूरी उत्प्रेरक स्थितियां हमेशा हमें संबल और प्रोत्साहन प्रदान करती रहती हैं।इसलिए संसार का कोई सा कर्म हो उसके आरंभ करने से पूर्व प्रकृति की अनुकूलताओं को देखें, ऋतुओं के अनुकूल जीवनचर्या को ढालें तथा आस-पास के माहौल को अच्छा बनाने के बाद ही धर्म-कर्म तथा लोक व्यवहार के लक्ष्यों को सामने रखकर काम करें।
दूसरी ओर माहौल तथा प्रकृति के सारे उपादान ठीक हों, तब भी अपने मन में प्रसन्नता एवं कर्म के प्रति श्रद्धा-समर्पण भाव का होना निहायत जरूरी होता है। भीतर-बाहर सभी प्रकार की अनुकूलताएं सामने होने पर ही किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए अथवा दूसरी अवस्था में उस ऊँचाई का चरम आत्मविश्वास संजो कर कर्म करें ताकि आने वाली परिवेशीय समस्याओं पर विजय प्राप्त करते हुए आगे बढ़ने का मार्ग खुला रह सके।आजकल आदमी ने प्रकृति और परिवेश को उपेक्षित कर अपनी स्वार्थपरक अनुकूलताएं गढ़ ली हैं और वह जो कर्म करता या कराता है उसके लिए अपने स्वार्थ और समय देखने लगा है। ऎसे में कर्म हो तो जाता है लेकिन वह गंध हीन ही रहता है और मात्र औपचारिकता के निर्वाह से कुछ ज्यादा नहीं हुआ करता।जैसे कि भीषण गर्मियों में एक तरफ लू के थपेड़ों से भरा मारक माहौल हो, पानी की त्राहि-त्राहि हो, मौसम वैरी जैसा दिखता है और आम आदमी को जीने का सुकून तक नहीं मिलता। और ऎसे में कई सारे पण्डित  अपने ग्रीष्मावकाश का अर्थोपार्जन में उपयोग करने के स्वार्थ के वशीभूत होकर बड़े-बड़े सामूहिक यज्ञ अनुष्ठान, यज्ञोपवित, मन्दिर प्रतिष्ठा और ऎसे कई सारे धार्मिक धंधों का आयोजन कर डालते हैं जेा मौसम के अनुकूल नहीं होन के कारण न पुण्य लाभ दे पाते हैं, न सफलता या आनंद। यह जरूर है कि ग्रीष्मावकाश में पण्डितों के लिए ये मुद्रार्चन की वजह से सर्वथा अनुकूल रहते हैं। कई सारे बाबे, महंत और धर्माचार्य भी इस धंधे में पीछे नहीं हैं। इन सभी के लिए समय का अपने हक़ में सदुपयोग करने का ही लक्ष्य रहता है। न भगवान और न ही धर्म से पुण्य लाभ।इसी प्रकार लोक व्यवहार तथा जन भागीदारी के सारे कर्मों और आयोजनों में भी अपनी सुविधाओं और सहूलियतों की बजाय जन सुविधाओं का ख्याल रखा जाना बेहतर होता है। किसी भी वैयक्तिक लक्ष्य या सार्वजनीन कर्म आयोजन को आशातीत सफलता देना चाहें तो मौसम की अनुकूलताओं और परिवेशीय माहौल का सुकूनदायी होना अव्वल शर्त है।

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