अहं और एकाधिकार छोड़ें, फिर देखें

अपने आप मिलने लगेगा सब कुछ

– डॉ. दीपक आचार्य

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आज लोगों को सभी जगह उपेक्षा और असुरक्षा दिखाई देने लगी है। हर किसी को दूसरों से अज्ञात भय के साथ आशंका बनी रहती है। हमें कई बार लगता है कि कुछ है जो हमें प्राप्त करना शेष रह गया है और उसे पाने की उद्विग्नता के कारण चित्त अशांत तथा अन्यमनस्क रहने लगा है।

यह स्थिति असंतोष और तनावों का कारण बनती है। तकरीबन हर संवेदनशील आदमी इस मानसिकता से ग्रस्त है और उसे लगता है कि वह जो कुछ पाना चाहता है उसके लिए अब टेढ़े-मेढ़े रास्तों का सहारा लिया जाना जरूरी हो चला है। जो लोग ब्रह्माण्ड की बजाय पिण्ड की चिंता करते हैं उनके लिए यह जीवन की सबसे बड़ी समस्या है जो जिन्दगी भर उनके इर्द-गिर्द चक्कर काटती रहती है जबकि वैश्विक धरातल पर उदारवादी सोच रखने वाले लोग इन तमाम झंझटों और चिंताओं से मुक्त रहकर जीवन का असली आनंद पाते हैंं।

आम आदमी के जीवन में विषाद पैदा होने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है वह है उसका अहं और एकाधिकारवादी प्रवृत्ति।  दोनों भयंकर बुराइयों को अहंकारी लोग भले ही हल्के में लें मगर हकीकत यही है कि इन दोनों ही स्पीड़ब्रेकरों के कारण उनके व्यक्तित्व में दूसरी सारी खूबियों के होते हुए भी निखार नहीं आ पाता और आभामण्डल के चारों ओर एक निम्न किस्म की मलीनता पसरी हुई हुआ करती है।

एकाधिकार न किसी का रहा है, न रहने वाला है। इसी प्रकार अहं का भी उन्मूलन होना ही है मगर अहं के साथ सबसे दुर्बल पक्ष यह है कि इसका खात्मा तभी हो पाता है जब यह चरम स्तर प्राप्त कर ले। अहं का पूर्ण भराव होने तक आदमी की उच्छृंखलताएं, उन्मुक्त व्यवहार और निरंकुशता का प्रभाव बना रहता है और यही कारण है कि अहंकार से भरे-पूरे लोगों को कोई कितना ही समझाने की कोशिश कर ले, वे नहीं मानते हैं। मानेंगे भी क्यों, इनके अहंकार का खात्मा होने के लिए अहंकार की उच्चस्तरीय परिपूर्णता जरूरी हुआ करती है।

इसी प्रकार कई सारे लोग हर मामले में अपना एकाधिकार चाहते हैं। इनके लिए दुकान-दफ्तर, घर-परिवार, समाज और दूसरे सारे गलियारें हों, सभी जगह ये अपना एकाधिकार चाहते हैं। इसी बुराई के साथ अहंकार भी जुड़ जाता है। इस वजह से ऎसे लोग मामूली बातों को भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हैं और फिर अपनी पूरी ताकत झोंक दिया करते हैं प्रतिशोध में। इस स्थिति में इनके साथ तीसरा अवगुण भी जुड़ जाता है जो इनके समूलोच्छेदन के सारे इंतजाम करने के लिए काफी है।

जीवन में हम जहाँ कहीं हैं वहाँ हमें प्रबन्धक और ट्रस्टी की तरह रहकर काम करना चाहिए। लेकिन होता इसका उलटा है। हम स्वामी या मालिक की तरह काम करने लगते हैं और अपने भीतर अधिनायकवादी एवं अधीश्वर की छवि विकसित कर लेते हैं।  यहीं से हमारे दुःखों, संत्रासों और विषादों की शुरूआत हो जाती है जो बाद में तनावों का ताना-बाना बुनती है और मानसिक अवसाद के साथ सेहत बिगड़ने का दौर शुरू हो जाता है।

जहाँ भी जो कोई आदमी स्वामी या अधीश्वर की भूमिका में आ जाता है वहाँ तमाम मानवीय दुर्गुणों का प्रवेश होने लगता है जो बाद में अहंकार तथा एकाधिकारवादी सोच को विकसित कर देता है। इसकी जब चरम अवस्था दिखाई देने लगती है तब समझ लेना चाहिए कि अब अंदर ही अंदर उल्टी गिनती आरंभ हो चुकी है। यह दिखाई भले न दे पर कैंसर की तरह चुपचाप आकार लेती रहती है।

किसी भी संस्था, व्यक्ति, संगठन, उद्यम, दुकान व कार्यालय आदि पर एकाधिकार छोड़ कर समुदायवादी उदार सोच रखने पर हमारा नज़रिया अपने आप बदलने लगता है और जो ‘मेरा’ कहा जाता रहा है वह ‘हमारा’ या ‘अपना’ होने लगता है। जो लोग एकाधिकार को त्याग देते हैं उन्हें दुनिया के सारे अधिकार अपने आप प्राप्त होने लगते हैं और ये स्वतः प्राप्त अधिकार अपने साथ दिली आदर-सम्मान, औदार्य और सुकून भी ले आते हैं।

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