प्रतिक्रियाओं से बचें

– डॉ. दीपक आचार्य

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क्रिया और प्रतिक्रिया आम इंसान से लेकर हर चेतन तत्व का गुणधर्म है। हर व्यक्ति अपने-अपने हिसाब से क्रिया भी करता है, प्रतिक्रिया भी। कई लोग क्रियाओं में विश्वास करते हैं, कई ऎसे हैं जिनका क्रियाओं में कम, प्रतिक्रियाओं में ज्यादा विश्वास होता है।

खूब सारे ऎसे होते हैं जो सिर्फ प्रतिक्रियाएं करना ही जानते हैं। प्रतिक्रियाएं स्वस्थ हों या प्रदूषित, सभी प्रकार की प्रतिक्रियाएं किसी न किसी प्रकार के प्रारब्ध का निर्माण करती हैं जो किसी श्रृंखलाबद्ध सृजन को जन्म देती हैं और यह फिर लम्बे समय तक चलता ही रहता है।

कुछ मामलों में प्रतिक्रिया करना लाजमी है लेकिन अधिकांश मामलों में हम बिना किसी धैर्य के पहले प्रतिक्रिया कर डालने में आगे ही आगे रहते हैं और उस प्रतिक्रिया में हमारा अहंकार, हठ और अज्ञानता तीनों ही झलकती हैं। प्रायः तर हम उन विषयों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते हैं जिनसे हमारा किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होता लेकिन दुनिया भर को जान लेने और उसका मूल्यांकन करने का रोग हमें ऎसा लगा होता है कि हम अपने कामों को भुलाकर भी संसार का चिंतन करना अपने जीवन का पहला फर्ज बना लेते हैं।comments-icon

प्रकृति और परमेश्वर के स्वाभाविक सिद्धान्तों को देखा जाए तो हर क्रिया के लिए नैसर्गिक रूप से  प्रतिक्रिया अपने आप हो जाती है। हम कुछ न भी करें तो ईश्वरीय विधान के अनुरूप प्रतिक्रियाएं स्वतः होती रहती हैं।

तनावों और दुःखों से मुक्ति का सर्वोपरि सरल और सहज उपाय यही है कि प्रतिशोध न लें बल्कि जिस किसी व्यक्ति या समूह से हमें कोई शिकायत हो, जिन लोगों ने हमारे खिलाफ प्रतिक्रिया की हो, उन सभी लोगों को क्षमा कर दें तथा ईश्वरीय विधान पर छोड़ दें। अक्सर कई सारे मूर्ख, नालायक और व्यभिचारी लोग अपने बारे में प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते रहते हैं, इन लोगों की बातों को ध्यान में लाना श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण नहीं हैं।

कई बार सीधे सादे लोगों को यह शिकायत रहती है कि दूसरे लोग हमें दुःखी करते हैं, अन्याय ढाते हैं, तनाव देते हैं , इसके बावजूद ऎसे नालायक और बदमाश लोगों का कहीं कुछ बिगड़ नहीं रहा, बल्कि उल्टे मौज कर रहे हैं और दूसरों को परेशान करने में कहीं कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं।

इस स्थिति में ईश्वरीय विधान से अनभिज्ञ और अधीर लोग अपने स्तर पर प्रतिक्रिया आरंभ कर देते हैं और प्रकृति का विधान त्याग कर अपनी ओर से खुद लड़ाई करते हुए प्रतिक्रियाओं में जुट जाते हैं। इसके बाद फिर शुरू हो जाते हैं एक-दूसरे के लिए प्रतिशोध को आकार देने में।

हम सभी को यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि किसी भी प्रकार की क्रिया का जवाब देने के लिए ईश्वर हमारे धैर्य की परीक्षा लेता है और जब हम इस कसौटी पर खरे उतर जाते हैं, ईश्वरीय विधान में अगाध श्रद्धा और विश्वास बनाए रखते हैं तब ईश्वरीय  विधान अपना काम करता है।

उस स्थिति में हमें कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि जो कुछ प्रतिक्रिया होनी है, वह अपने आप होती रहती है। इसलिए जब कभी किसी के विरूद्ध प्रतिशोध स्वरूप किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया करने का मन में आए, ईश्वरीय विधान को जानें-समझें और धैर्य के साथ प्रतीक्षा करें।

इस कसौटी पर जो कोई खरा उतर जाता है उसकी कल्पनाओं को भगवान साकार कर दिया करते हैं। बेवजह प्रतिक्रिया न करें, अपने काम करते रहें। जो लोग प्रतिक्रियाएं करते रहते हैं उन्हें करने दें क्योंकि जो प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए प्रतिशोध लेते हैं उनसे ईश्वर अपने आप दूर होता चला जाता है। जिससे ईश्वर दूरी बना लिया करता है उसका इस लोक और परलोक में कोई नहीं होता, सब उससे दूरी बनाए रखते हैं।

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