आशातीत सफलता पाने

श्रद्धा पैदा करें अपने लिए

– डॉ. दीपक आचार्य

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सफलता पाना हर कोई चाहता है और उसके लिए प्रयत्न भी खूब करता है लेकिन जिन प्रयत्नों में नकारात्मकता का पुट होता है वे ऊपरी तौर पर दिखते तो सफल हैं मगर भीतर से खोखले ही होते हैं। ऎसे प्रयत्नों को बेहतर परिणामदायी माना जा सकता है लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत है।

यह सफलता किसी समुदाय, संस्था या व्यक्ति अथवा क्षेत्र से संबंधित किसी भी विषयक की हो सकती है। सफलता और प्रतिष्ठा पाने के लिए यह जरूरी है कि हम जिन लोगों के बीच प्रतिष्ठित होना चाहते हैं उन लोगों के मन में हमारे प्रति दिली श्रद्धा का भाव हो। यह श्रद्धा जितनी अधिक होगी, हमारी सफलता और प्रतिष्ठा का ग्राफ उतना ही अधिक बढ़ेगा।  बिना श्रद्धा के न कोई कर्म सफल होकर पूर्णता प्राप्त कर सकता है, न सुगंध फैला सकता है।

श्रद्धाहीन कर्म किसी मुर्दे की दुर्गन्ध को देखकर अगरबत्तियों के पुड़ीके जलाने जैसा ही है। आजकल दो तरह के लोग हमारे सामने हैं। एक वे हैं जो मन-वचन और कर्म से मानवीय मूल्यों का अनुसरण करते हैं, उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता। जैसे वे भीतर हैं वैसे ही बाहर।

ऎसे लोगों का चित्त शुद्ध होता है और जो कर्म करते हैं वह इंसानियत, मानवीय संवेदनाओं और परहित की भावना से करते हैं इसलिए इनमें न कोई अहंकार होता है, न किसी और पर हावी होने की अधिनायकवादी प्रवृत्ति। ऎसे लोग जीवन में जो कुछ करते हैं वह अनुकरणीय होता है। लोगों को इनके बारे में यह भ्रम कभी नहीं होता कि ये जो कुछ कर रहे हैं वह लोक दिखावन है और इनकी असलियत कुछ और ही है।

आदमी जब अपनी मौलिकता को बचाए और बनाए रखता हुआ सच्चे दिल से और पवित्र भावनाओं से काम करता है तब उसके प्रति लोक श्रद्धा का जागरण अपने आप होता रहता है और लोग उसे दिल से चाहते हैं। जिन लोगों को ऎसे व्यक्तित्वों से कोई काम नहीं पड़ता, वे भी इनका गुणगान करते हैं।

दूसरी किस्म में ऎसे लोग आते हैं जो औरों की मजबूरियों को भुनाकर, भय और दबावों को हथियार बनाकर अपनी सफलता चाहते हैं और इन्हीं के जरिये भयाक्रांत वातावरण निर्मित कर सामंती और शोषक मानसिकता के साथ व्यवहार करते हैं। घटिया किस्म के दंभ और जाने-अनजाने मिल जाने वाली सफलता को पचा सकने में असमर्थ लोगों की फितरत में होता है कि वे हाइड्रोजन गैस भरे गुब्बारों की तरह पूरे आसमान को अपने कब्जे में ले लेने का अहंकार रखते हुए जमाने भर की नज़रों में अपनी अहमियत सिद्ध करने के लिए इधर-उधर विचरण करते रहते हैं। कभी इनकी खौफनाक मुद्राओं का दिग्दर्शन होता है, कभी इनकी आसुरी हरकतों भरी हवाएँ चलती रहती हैं।

काफी सारे लोग भय और आतंक फैलाकर जमाने भर को अपने चंगुल में बनाए रखने और लोक प्रतिष्ठ होने का भ्रम पाले रहते हैं। जहाँ कहीं भय और आतंक होता है वहाँ इससे संबंधित प्रत्येक कर्म सिर्फ औपचारिकता निर्वाह भर ही होता है और लोग इनसे संबंधित हर काम को कामचलाऊ मानकर ही इतिश्री कर लेते हैं।

एक बार जब किसी के प्रति श्रद्धा का विखण्डन हो जाता है उसके बाद उन सभी कर्मों से गुणवत्ता की गंध समाप्त हो जाती है।  ऎसे में श्रद्धाहीन कर्म ठीक उसी तरह हो जाता है जैसे कि प्राणहीन शरीर। आजकल श्रद्धा बटोरने की बजाय हर तरफ भय और अहंकार के बूते अपने आपको अधीश्वर के रूप में स्थापित करने का चलन चल पड़ा है।

जब से मानवीय संवेदनाओं को भुलाकर इंसानों के जंगल में द्वीप संस्कृति का विकास हुआ है तभी से श्रद्धा का ह्रास होता जा रहा है। आजकल के खूब सारे काम ऎसे हो गए हैं जिनमें से श्रद्धा गायब हो गई है और जो कुछ हो रहा है वह सिर्फ इसलिए हो रहा है कि करना पड़ता है अन्यथा मानवीय अहंकार और अधीश्वरवादी प्रवृत्तियां कभी भी अपने क्रूर पाश का इस्तेमाल करने को स्वतंत्र हैं।

हममें से हर कोई चाहता है कि उसे आदर-सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त हो लेकिन इसके लिए जरूरी यह है कि हम अपने प्रति औरों के दिल में श्रद्धा पैदा करें।  यह दिली श्रद्धा ही हमें  लोक प्रतिष्ठ बनाने का सम्पूर्ण सामथ्र्य रखती है। भय और दबावों से हम हमारे आस-पास मिथ्या और भ्रमित माहौल पैदा कर सकते हैं लेकिन श्रद्धा नहीं पा सकते ।

श्रद्धा का जागरण होने पर ही हम वह सब कुछ पा सकते हैं जिनसे आम आदमी के सामाजिक एवं देशज सरोकार जुड़े हुए हैं। इसलिए अपना  व्यवहार सुधारें और कर्म ऎसे करें कि हमारे प्रति जनमानस में दिल से श्रद्धा पैदा हो। ऎसा हम नहीं कर पाए तो वह समय कभी भी आ सकता है जब लोग जीते जी हमें श्रद्धांजलि देने का मौका प्रदान करने की प्रार्थना सर्वशक्तिमान से करने लग जाएं।

 

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