सत्य-धर्म को अपना लें

सारी समस्याएँ खत्म

– डॉ. दीपक आचार्य

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यह सृष्टि सत्य और धर्म की नींव पर टिकी हुई है। जब तक किंचित मात्र भी इनका अस्तित्व रहेगा तब तक टिकी रहेगी। जिस दिन वह भी समाप्त हो जाएगा, उस दिन सब कुछ प्रलय की भेंट चढ़ जाएगा।

सृष्टि में दैवत्व, आनंद, सुख-समृद्धि और सुकून शांति आदि सब कुछ इन्हीं पर निर्भर है।सत्य और धर्म का प्रतिशत ज्यादा होने पर ये सब भी अधिकाधिक मात्रा में उपलध होते हैं और न्यून होते चले जाने पर इनका ग्राफ भी नीचे उतरता चला जाता है।

बात इंसान या प्राणी मात्र की आयु की हो या फिर राजसी, सात्ति्वक और शाश्वत वैभव की, स्थिरता, परम शांति और दिली सुकून की हो या और कोई सी,  जब तक सत्य और धर्म का प्रभाव रहता है तब तक इनमें अपरिमित वृद्धि और विस्तार होता रहता है लेकिन इनके क्षीण होने पर हर मामले में कमी आने लगती है।

कलियुग के वर्तमान दौर में हमारी आयु, स्वास्थ्य, धन-संपदा, वैभव और इंसानियत, मूल्यों और आदर्शों में कमी का कारण ही यह है कि हमारी  बुनियाद खोखली होती जा रही है। सत्य और धर्म के बारे में कहा जाता है कि इन्हें जितना अधिक हम संरक्षित करते हैं उतने ये हमें संरक्षित करते हुए आनंद और जीवनमुक्ति की प्राप्ति कराते हैंं।

जो लोग सत्य और धर्म का अवलंबन करते हैं वे अन्यों की अपेक्षा ज्यादा आत्म आनंद और प्रसन्नता के भावों के साथ रहते हैं और असल में जीवन तो ये लोग ही जीतेyog-528da90c30cbc_exl हैं। इन लोगों को भले ही गरीबी और अभावों का साथ हो सकता है लेकिन इनके आत्म आनंद के आगे ये विषम परिस्थितियां गौण ही होती हैं लेकिन किसी भी दृष्टि से इन्हें दरिद्री नहीं कहा जा सकता।

अर्थाभाव को छोड़ दें तो ये शहंशाह से कम नहीं होते। इनकी जिंदगी में अर्थाभाव के रहने का कारण भी यही है कि धर्म और सत्य वहीं बने रह सकते हैं जहाँ पुरुषार्थ की कमाई हो तथा ईमानदारी का पूरा-पूरा समावेश हो। और सब कुछ इतना ही हो जिससे जीवन बसर हो जाए तथा चौकीदारी करने का संकट भी न रहे।

दूसरी ओर जो लोग धर्म और सत्य का अनुगमन नहीं कर अधर्म और अनाचार का आचरण करते हैं वे भले ही धन-दौलत के मामले में संपन्न माने जाएं मगर हकीकत में इन लोगों का जीवन धन संग्रह और गोरखधंधों के सिवा कुछ नहीं रह जाता। ये धन-संपदा जमा करने के लिए जिस तरह के जतन दिन-रात करते रहते हैं वे न शुचितापूर्ण कहे जा सकते हैं, न पुरुषार्थ।

पहले जमाने में चोर-डकैतों और लूटेरों द्वारा भी यही सब कुछ किया जाता था जो आज के ये लोग कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना हो गया है कि अब सारा काम दिमागी षड़यंत्रों से होने लगा है और ऎसे कामों में सहयोग के लिए आसानी से दूसरे लुटेरे भी उपलब्ध हैें जो कि सामने वालों को किसी न किसी प्रकार से भ्रमित कर, लोभ-लालच दिखाकर या कोई न कोई भय या कमजोरी दिखाकर अपनी टकसाल को हमेशा जिंदा रखे रहने का हुनर पा गए हैं।

एक फर्क और भी आ गया है। पहले ऎसे लोग कम हुआ करते थे इसलिए समाज को स्वीकार्य नहीं थे। आजकल ऎसे लोगों की हर तरफ भरमार हो गई है इसलिए इन्हें सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त हो गई है। जहाँ सारे नकटे और नालायक जमा हों वहाँ कौन किसे कुछ कह पाता है, फिर नकटों के समूह भी इतने तगड़े हैं कि इनसे कौन पंगा ले।

अब तो जमाना यह आ गया है कि चिल्लाने और माथे पड़ने वाले आक्रामक लोग हर तरफ हावी हो जाते हैं और सज्जनों को किसी कोने में दुबक कर अपने आत्माभिमान की रक्षा के लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं। कौन किसे कहें, क्यों कहे और कहने से क्या फर्क पड़ने वाला है? जब हमें न धर्म की परवाह है न सत्य की।

इंसान अपने समझदार होने के बाद से छोटी-मोटी चीजों, मुद्राओं और संसाधनों के लोभ, झूठी शोहरत पाने और अपने आपको सर्वत्र सर्वश्रेष्ठ मनवाने की गरज़ से असत्य और अधर्म का सहारा लेता है और जाने कितने षड़यंत्रों, गोरखधंधों मेें जुटा रहता है। फिर ये धंधे ही उसके जीवन के लिए ऎसे सहचर बन जाते हैं कि वह इन्हीं के साथ पूरी जिंदगी जमा ही जमा करने में निकाल देता है। पूरी जिंदगी हजारों-लाखों-करोड़ों बार झूठ का सहारा लेता है, अधर्म का आचरण करता है और अपने आपको बादशाह होने का भ्रम पालता हुआ चला जाता है।

सब कुछ अपने पास होने के बावजूद उसे किसी क्षण शांति, आत्मीय सुकून और संतोष की प्राप्ति का कभी कोई अहसास नहीं हो पाता। इन सदा-अधीरों को न दिन में चैन मिल पाता है, न रात में नींद आ पाती है, फिर ड्रग्स के सहारे जीने की विवशता ही रहती है।

जबकि हममें से हर कोई इससे कहीं अधिक शांति और सुकून सत्य और धर्म की राह पर चल कर प्राप्त कर सकता है। हमारे घर-परिवार से लेकर देश और अन्तर्राष्ट्रीय जगत की सारी समस्याओं का समाधान सत्य और धर्म से संभव है।

हमारी समस्याओं के लिए और कोई जिम्मेदार नहीं है बल्कि असत्य और अधर्म ही है। सत्य के पालन से हो सकता है हमें मामूली समस्या का सामना करना पड़े और तात्कालिक काम प्रभावित हों, मगर सत्य का आचरण परमाण्वीय विस्फोट से कहीं ज्यादा घातक और असरकारक होता है।

सत्य से दूर रहने का सबसे बड़ा खामियाजा हमारे मन-मस्तिष्क को भुगतना पड़ता है। झूठ बोल-बोलकर हमारी वाणी अपना असर खो देती है, हृदय से पारदर्शिता गायब हो जाती है और हमारे संकल्पों में वो ताकत नहीं रह पाती जो किसी भी प्रकार के परिवर्तन में सक्षम हुआ करती है।

जो लोग झूठ बोलते हैं उनका पूरा शरीर ही अस्पृश्य है क्योंकि आमिष-निरामिष झूठन सिर्फ फेंंकने के काम ही आती है या फिर उसका उपयोग गिद्धों अथवा श्वानों के लिए ही रह जाता है। यही कारण है कि झूठे और मक्कार लोगों की तुलना श्वानों से ही की जाती रही है।

इंसान के रूप में जो लोग प्रभावी, तेजस्वी और ओजपूर्ण जीवन के आकांक्षी हैं उनके लिए सत्य और धर्म का आचरण वह ब्रह्मसूत्र है जिसे अपना कर जीवन में दिव्यत्व और दैवत्व लाया जा सकता है। एक बार सत्य और धर्म को अपनाकर देखें, जीवन में वो चमत्कार हो सकता है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की होगी।

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