मोहपाश में नज़रबंद न रहें

दुनिया को जानें-पहचानें

– डॉ. दीपक आचार्य

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यों तो संसार और मुक्ति को एक-दूसरे का विरोधाभासी कहा जाता है लेकिन सत्य यह भी है कि संसार को जाने बिना मुक्ति संभव नहीं है। जहाँ संसार को जान लेने और समझ लेने की यात्रा का अंत होता है वहीं से  मुक्ति का सफर आरंभ होता है।  मुक्ति के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि संसार को पूर्ण रूप से इतना भुगत लें, जान लें कि संसार की हकीकत को जानने के लिए कुछ भी शेष न रह जाए। ऎसा होने पर ही मुक्ति संभव है।

संसार का तनिक सा तिनका भ् ी मन-मस्तिष्क में शेष रहने पर हमारी मुक्ति की कल्पना व्यर्थ ही है। हालांकि संसार में रहते हुए भी मुक्ति के आनंद को पाया जा सकता है लेकिन ऎसा वे बिरले ही कर सकते हैं जो आत्म तत्व को जान जाते हैं तथा संसार से पूरी तरह ऊपर उठ जाते हैं। सामान्य लोगों के बस में यह है ही नहीं।  सामान्य जन को इसके लिए दीर्घकालीन साधन के द्वारा आत्म स्थिति प्राप्त करने का अभ्यास करना पड़ता है जो कि समय साध्य भी है और श्रम साध्य भी।

आजकल आदमी को न जीते हुए मुुक्ति प्राप्त हो पा रही है, न मरने के बाद। इसका कारण यही है कि हमारे खून में गुलामी और दास परम्परा के  ऊर्वरा बीज गहरे तक घुसे हुए हैं और यही कारण है कि हमें दास बनने और अनुचरी करने में जो आनंद आता है , वैसा आनंद नेतृत्व करने में नहीं।

हमने सिंहों की तरह ‘स्वयमेव मृगेन्द्रता’ को भुला दिया है और खुद अपने आपको दूसरों की कृपा का पात्र बनाकर, औरों का अंधानुकरण करते हुए पराये निर्देशों पर पलना और बढ़ना अपना लिया है। स्वाधीनता जैसे शब्दों के बार-बार होने वाले गगनभेदी जयघोष और निरन्तर स्वाधीनता का उद्घोष सुनते रहने के बावजूद  हमने अनुचरी परंपरा को कसकर पकड़ रखा है। हम हर मामले में उनकी बराबरी और अनुकरण करना चाहते हैं जिन्हें हमारे पुरखों ने युगों पूर्व संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाया था।

आज हम सभी  लोग  अपनी अस्मिता, भारतीय संस्कृति और सभ्यता तथा वैज्ञानिक रहस्यों से प रिपूर्ण हमारी अपनी जीवनपद्धति को भुलाकर उन लोगों की राह पर चल पड़े हैं जिन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें कौनसी राह जाना है।  हमने अपनी संस्कृति और संस्कारों की जड़ाें से कटकर अपने आपको उनके हवाले कर दिया है जो हमारी अस्मिता को ही मटियामेट करने में तुले ह ुए हैं।

हर तरफ हम लोग किसी न किसी का अनुकरण करते हुए अनुचर बने हुए हैं। कोई दिखती आंखों से बिना सोचे-समझे अनुकरण कर रहा है,कोई अपने स्वार्थों और भोग -विलास के संसाधनों में रमा हुआ नीम बेहोशी में वो सब कुछ कर रहा है जो उससे एक गुलाम की तरह कराया जा रहा है।

खूब सारे लोग वही बोलते हैं, करते हैं, सुनते हैं जो इन रोबोट्स के रिमोट कंट्रोल कहते हैं। खुद की बुद्धि, स्वाभिमान और देश प्रेम को इससे पहले हमने इतना गिरवी कभी नहीं रखा, जितना आज रखने को हमेशा उतावले रहते हैंं। हराम की रोटी और बोटी के लिए हमने अपनी वंश परंपरा के गौरव, अभिमान और मर्यादाओं को ताक में रख दिया है और वो सब क रने को  उत्सुक रहते हैं जो हमें चलाने वाले सोचते हैं।

काफी सारे लोग किसी न किसी के पालतू बने हुए हैं। कोई श्रद्धा में नहा रहा है, कोई स्वार्थ के सागर में, तो कई सारे भ्रमों और  भुलावों में जीते हुए अपने मनुष्यत्व को औरों के हवाले कर चुके हैं।  सबके अपने-अपने भ्रमपाश और मोहपाश हैं, अपने-अपने सुनहरे रंगों वाले इन्द्रधनुष हैं जिन्हें थाम कर हम सभी लोग नज़रबंदियों की तरह पड़े हुए टाईमपास कर रहे हैं।

जो किसी का नहीं हो सका, न ही हो सकता है उसे किसी न किसी का पालतु बताया जा रहा है, कोई किसी के पीछे पागल है, कोई किसी के पीछे। दुनियावी अधिकांश आदमी  एक-दूसरों के पीछे पगलाये हुए हैं। दुनिया की परिधियां सिमट आयी हैं, ज्ञान-विज्ञान के स्रोतों को जानना- समझना आसान हो गया है, विश्व धरातल की हलचलों से साक्षात कोई कठिन काम नहीं रहा। इसके बावजूद आज का इंसान उदारवादी और वैश्विक  व्यापकता को छोड़कर चमड़ी-दमड़ी के पीछे दीवाना हो रहा है और पागलपन को भी बौना बता देने वााली इस दीवानगी  से घिरा हुआ आदमी  दुनिया को जानने-समझने की बजाय चंद लोगों और समूहों या आकर्षण भरे बिंबों का दीवाना होकर इतना अधिक कछुवाछाप और संकीर्ण हो गया है जितना कि उसे बनाने वाले विधाता ने भी कभी नहीं सोचा होगा।

कोई चकाचौंध को पाने अंधेरी गलियों में भटकने को ही जिन्दगी समझ बैठा है, कोई मंच और लंच को ही जीवन का आधार मान बैठा है,कई सारे ऎसे हैं जो अपनी तस्वीरों और लोकप्रियता के परचम को न देख लें तब तक दिन नहीं शुरू होता, खूब सारे हैं जिन पर अंधाधुंध कमाई का भूत सवार है।

ऎसे में सारे के सारे अपने किसी न किसी पाश में जकड़े हुए मुक्ति का बिगुल बजाने वाले दिहाड़ी मजूरों की तरह लगे हुए हैं। अपने-अपने मोहपाशों ने इन्द्रजाल का काम कर रखा है जहां से कोई इन घेरों से बाहर आना नहीं  चाहता। ये सारे इसी भ्रम में जी रहे हैं कि संसार को जान लेने वाले लोगों में वे ही सबसे आगे हैं।

यह मोहपाश ही उनके लिए संसार हो गए हैं। ऎसे लोगों के लिए संसार दूर होता चला जाता है। जिन लोगों को दुनिया को जानने की ललक हो, उन्हें किसी मोहपाश में बंधने की बजाय अनासक्त रहकर लोक व्यवहार में रमना चाहिए ताकि कुछेक लोग या लोगोें का समूह ही नहीं बल्कि पूरा संसार ही इन्हें अपना मानेंं और सुकून प्रदान  करता रहे।

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