आज का चिंतन-07/10/2013

क्या औचित्य है ऎसे स्वागत का

जो दिखावे के लिए हो

– डॉ. दीपक आचार्य

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जनसंख्या विस्फोट की वजह से आजकल कई समस्याएँ पैदा हो गई हैं। सबसे बड़ी समस्या गुणवत्ता की उभर कर सामने आयी है। लोगों की भीड़ खूब बढ़ रही है लेकिन उस अनुपात में गुणात्मकता नहीं बढ़ पा रही है। शिक्षा और हुनर का विस्तार हो रहा है किन्तु व्यक्ति के भीतर संस्कारों से भरी शिक्षा नहीं है और ऎसे में जो शिक्षा हम प्राप्त कर रहे हैं उसका हम स्थूल आनंद ही ले पा रहे हैं वास्तविक और स्थायी आनंद की भावभूमि से हम कोसों दूर हैं।

पहले हर काम मन से होता था। आतिथ्य सत्कार से लेकर मेजबानी का हर काम उल्लास के साथ होता था। उस समय अतिथियों में भी भारीपन था और वे खुद भी प्रेम और सद्भावनाओं से भरे हुआ करते थे। उस जमाने में अतिथियों के आने पर अंदर से प्रसन्नता होती थी। आजकल कुछ को छोड़कर हम सभी लोग मन ही मन कुढ़ते हैं और ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि अतिथि आए ही नहीं, आ भी जाए, तो जल्दी लौट जाए।  इसका कारण यह भी है कि आजकल अतिथि कोई रहा ही नहीं। जो अतिथि बनकर आते हैं उनमें से अधिकांश हल्के दर्जे के हैं, न गांभीर्य है न व्यक्तित्व में भारीपन। जो आता है वह अधिनायक और मीन-मेख निकालने वाले इंसान की तरह क्रूरतापूर्वक हिंसक व्यवहार का आदी  होता जा रहा है।

हालात ये हैं कि थोड़ा पराया आयातित पॉवर पाकर आदमी इतना अहंकारी हो गया है कि उसे अपने आकाओं को छोड़कर दुनिया के सारे लोग अपने गुलाम दिखते हैं और वह इसी भ्रम में जीता है कि शेष दुनिया उनकी सेवा-चाकरी और दासत्व के लिए ही पैदा हुई है, और उसे हर इंसान के शोषण का नैसर्गिक हक मिला हुआ है।

इन सब हालातों में आतिथ्य पाने और देने वालों के बीच भौतिक दूरियां भले न हों, दोनों के मन के बीच दूरियां निरन्तर बढ़ती जा रही है। यही कारण है कि आजकल आतिथ्य प्रदान करना और मेजबानी का दायित्व निभाना सबसे बड़ी समस्या है जो अधिकांश अच्छे लोगों में तनाव का मूल कारण बनी हुई है।

कई लोग अपने अतिथियों के बारे में स्पष्ट व बेबाक राय रखते हुए कह ही दिया करते हैं – ये बीमारी जब जाए, तब चैन पड़े। हमारे आस-पास भी आजकल ऎसे कई अतिथि आने-जाने लगे हैं जिनके बारे में बीमारी शब्द का गर्व के साथ इस्तेमाल किया जाता है। ऎसे अतिथियों को मेरी राय में डूब मरना चाहिए जिनके बारे में आम लोगों की ऎसी नकारात्मक धारणा हो। ऎसे लोग जीते जी पशु से भी गए बीते होते हैं। पशु तो कम से कम किसी न किसी काम भी आते हैं, लेकिन ये अतिथि अपने स्वार्थों की परिधि में ही घूमते रहने के आदी हैंं।

इन अतिथियों का आजकल भारी मन से अनचाहे भी स्वागत करना ही पड़ता है।  उनके आवागमन के मुख्य मार्गों पर आजकल टेंटिया स्वागत द्वार बनाए  जाते हैं। ये स्वागत द्वार भी बड़े ही अजीब होते हैं। सड़कों की चौड़ाई के आगे ये द्वार इतने बौने हो गए हैं इन्हें लगाने का कोई औचित्य अब रहा ही नहीं। इसी प्रकार पगड़ियों और साफों से सम्मान-अभिनंदन का अभिनय भी दो-चार साल से जोरों पर है। पुष्पहारों को पहनाने का सिलसिला तो सदियों से जारी है ही। पर बड़े लोग आजकल पुष्पहारों, पगड़ियों, शॉलों और साफों का कितना सम्मान कर रहे हैं। यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। पहनाते ही निकाल कर बाहर रख देने का शगल बड़े-बडे लोगों पर इतना परवान चढ़ रहा है कि कुछ कहा नहीं जा सकता।

या तो पुष्प, शालों और साफों को इनका जिस्म पसंद नहीं आता अथवा इन्हें पहनने की योग्यता इनमें नहीं है, तभी तो पहनाते ही विकर्षण हो जाता है और इनके पावन जिस्म से बाहर निकलने को ये फूलों की माला, साफे मचल उठते हैं। भीषण गर्मी के दौर में भी शॉल और साफों का चलन इतना बढ़ गया है कि देखने वालों को हैरत होती है। फिर ढोल-ढमकों वालों की जमात भी हमें चाहिए शाही स्वागत के लिए।

अपने ही लोगों से स्वागत, सम्मान और अभिनंदन की सायास उम्मीद हम क्यों करने लगे हैं? कहीं यह इस बात का साफ संकेत तो नहीं कि लोगों के भीतर से हमारे प्रति सद्भावना, प्यार और स्नेह गायब हो गया है, जिसकी तलाश स्वागत, अभिनंदन और शाल-साफें धारण कर पूरी होती हैं। जितना पैसा हम स्वागत द्वारों, शालों, साफों और प्रतीक चिह्नों पर खर्च करते हैं उनसे समाज का कोई ऎसा स्थायी काम कर सकते हैं, संसाधन जुटा सकते हैं जो बरसों तक काम आ सकते हैं।

चंद मिनटों के स्वागत और आतिथ्य के नाम पर होने वाली नौटंकियों से आखिर किसका भला होने वाला है?  स्वागत-अभिनंदन करने और पाने वाले दोनों पक्षों का दोहरा चरित्र हर मामले में इतना हावी रहता है कि आजकल लोगों को वे ही सब याद रहते हैं जो उनके स्वार्थ पूरे करते हैं, दुनिया जहान से उन्हें कोई मतलब नहीं है। इन औपचारिकताआ से ऊपर उठें और यथार्थ में लौटें। कितने सालों तक हम बेदम परंपराओं को घसीटते रहेंगे, यह जवाब हमें देना है।

 

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