चित्रकथाओं से जगाएँ

नई पीढ़ी में स्वाध्याय

– डॉ. दीपक आचार्य

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मोबाइल, इंटरनेट और टीवी की  दीवानी हो चली नई पीढ़ी हमारी पुरातन व परंपरागत सभ्यता, संस्कृति और परंपराओं की आभा से दूर होती जा रही है और इसी का परिणाम है कि हम सभी लोग अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं, अपनी मौलिक जीवनी शक्ति के स्रोत से मुक्त हो उस दिशा में बढ़ते जा रहे हैं जहाँ न कोई अनुशासन है, न मर्यादाओं की कोई सीमा रेखा।

इंसानियत की सारसंभाल करने वाली सारी हदों को तोड़ कर हम उस दिशा में भटकने लगे हैं जहाँ आभासी सुख और समृद्धि तो है लेकिन मानवीय मूल्यों और सामाजिक आत्मीयता की गंध पूरी तरह से गायब है।

हम कौन थे यह भी भूल गए हैं और हमें क्या होना है, यह भी हममें से किसी को याद नहीं है अब। भारतीय संस्कृति की शाश्वत धारा से कोसों दूर भटके हुए हम लोगों की स्थिति उस महानदी की तरह ही हो गई है जो कभी अपार जलराशि के साथ तीव्र वेग से बहा करती थी लेकिन अब मीलोें तक रेतीले पाटों के सिवा कुछ नहीं बचा है।

हमने अपने प्राचीन मूल्यों और परंपरागत साँस्कृतिक वैभव को भुला दिया है और पाश्चात्यी रंग में ऎसे रंग चुके हैं कि हमने अपने मस्तिष्क को गिरवी रखने का खिलौना तथा शरीर को भोगप्राप्ति का यंत्र ही बना डाला है।

यही कारण है कि हम लोग प्राचीन इतिहास, पौराणिक एवं ऎतिहासिक गाथाओं तथा पूर्वजों के बहुविध पराक्रम तथा दैवीय ऊर्जाओं की थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं मगर हमारी नई पीढ़ी को कुछ पता ही नहीं है।

विश्व भर के इतिहास, साहित्य और रीति-रिवाजों से लेकर परंपराओं तक को हम पढ़ने, रटने और परीक्षाओं में पास होने में ही इतने रमे हुए हैं कि हमारी संस्कृति और परंपराओं की न जानकारी है, न समझ। यही कारण है कि हम तमाम प्रकार के आदर्शों और परंपराओं के मामले में विदेशियों पर निर्भर हैं और उन्हीं का अंधानुकरण करते हुए जीवन निर्माण और परिवेशीय संरचना में जुटे हुए हैं।

भारतवर्ष की मौलिक थातियों, हुनर और परंपराओं का भान हम भुला चुके हैं और हर मामले में हमें श्रेष्ठ बनने के लिए भी विदेशियों का पिछलग्गू और अंधानुचर बनना पड़ रहा है। बात चाहे शिक्षा-दीक्षा, इतिहास, परंपराओं, सामाजिक रहन-सहन, दिव्य परंपराओं और नवनिर्माण की हो या फिर व्यक्तित्व निर्माण की, हर मामले में हम अपने आपको आत्महीन मानने लगे हैं।

यहाँ तक कि हम अपने आपको तथा अपने कर्मों को श्रेष्ठ सिद्ध करवाने तक के लिए विदेशियों से मोहर लगवाने को विवश हैं। इस सारी आत्महीनता और भारतीयता के अवमूल्यन का मूल कारण यह है कि हम अपने आपको भुला चुके हैं।

हमें हमारे इतिहास, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि तक की जानकारी नहीं है, हमें यह भी पता नहीं है कि हमारे यहाँ ऎसे महापुरुष हो चुके हैं जिन्होंने दुनिया को जीवनी दृष्टि प्रदान की और राह दिखायी।

आत्महीनता के इस भयावह दौर को अभी नहीं संभाला गया तो आने वाला कल हमारा नहीं होगा। अपने आप में विश्वास जगाने तथा आत्महीनता को समाप्त करने के लिए यह जरूरी है कि हमारी नई पीढ़ी तक भारतीय संस्कार और संस्कृति की धाराएं पहुंचे तथा उनके गौरव, गर्व और स्वाभिमान को जगाएं।

इसके लिए चित्रकथाओं का सहारा लिया जाना चाहिए, चित्रात्मक/कार्टून फिल्मों के माध्यम से काम होना चाहिए ताकि खेल-खेल में ही हमारी नई पीढ़ी संस्कृति और संस्कारों, अपनी महान परंपराओं के बारे में जानकारी पा सके। इस दिशा में प्रयास करना हम सभी का परम कत्र्तव्य है। यह बात हम सभी को तहे दिल से स्वीकार कर लेनी चाहिए कि आज की पीढ़ी का दिशा भ्रम हमारी मौलिक सांस्कृतिक परंपराएं ही दूर कर सकती हैं, अपनी जड़ों को फिर से सींच कर ही हम अपना तथा भविष्य का अस्तित्व बरकरार रख सकते हैं। इसके बगैर हमारी अस्मिता को बनाए रखने का कोई और दूसरा रास्ता है ही नहीं।

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