577692_198043277009548_363290444_nजवाबदेह रहें ईश्वर के प्रति

मरणधर्माओं से क्या चाहना

– डॉ. दीपक आचार्य

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जो नियोक्ता होता है उसे ही हमारे मूल्यांकन, पुरस्कार और दण्ड का अधिकार है, दूसरों को नहीं। ऎसे तो हर क्षेत्र में कई सारी कड़ियाँ जुड़ी होती हैं मगर उनका कोई अधिकार नहीं होता। हमारे जीवन का हर कर्म ईश्वर से बँधा हुआ है क्योंकि ईश्वर ही हमारा सर्जक है जिसने हमें कुछ न कुछ सोच समझकर ही मनुष्य बनाकर धरती पर भेजा है।

सर्वप्रथम सर्जक ईश्वर है उसके बाद मातृभूमि और माता-पिता-गुरु। इनके सिवा न हमें कोई समझ सकता है, न समझने की कोशिश ही कर पाता है। एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है और दूसरे धरती के हमारे ये देवता। इन्हीं की वजह से हमारा जीवन है और जीवन जीने के लायक रोशनी।

इनके बाद जो भी लोग हमारे जीवन में किसी न किसी मोड़ पर आते-जाते रहते हैं वे हमारे अपने आत्मीय हो सकते हैं, हमारी जीवनयात्रा में मददगार,प्रेरक और मार्गदर्शक हो सकते हैं लेकिन तन-मन और मस्तिष्क का जो सृजन करता है वही हमारे लिए पूजनीय होता है, शेष सारे आदरणीय और सम्माननीय।

यह भी संभव है कि हमारी जिंदगी के सफर में कई सारे ऎसे लोग भी संपर्क में आएं, उनका सान्निध्य प्राप्त हो, जो हमारी जिंदगी को बदल डालते हुए इतने आत्मीय हो जाएं कि हमारे सहोदर की तरह कुटुम्बी बनकर हमारे साथ हमेशा बने रहें या हमारे प्रति सद्भावी बने रहें।

पर ऎसा दैव वशात ही हो सकता है, सामान्यतया ऎसा संभव नही, बिरले लोगों को ही ऎसा सौभाग्य प्राप्त हो पाता है। हमारे चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए हम जो सफर तय करते हैं उसमें हर क्षण हमें अपने कर्म करते हुए ईश्वर का चिंतन बनाए रखना चाहिए।

अपनी कर्मयात्रा में कई नालायक, कमीन और विघ्नसंतोषी लोगों का अक्सर टकराना स्वाभाविक है क्योंकि जहाँ कहीं कुछ अच्छा होता है वहाँ बुरा करने की नीयत के भूत-पलीत भी किसी न किसी इंसान या जानवर के जिस्म मेंं घुसकर बिगाड़ा करने को आमादा रहते ही हैं।

वहीं आजकल काफी लोग ऎसे हैं जो हमेशा इस बात को लेकर दुःखी रहते हैं कि वे श्रेष्ठ कार्य संपादन करते हैं, समाज और देश के लिए जीते हैं फिर भी कई बेईमान, चोर-उचक्के, भ्रष्ट, रिश्वतखोर और आसुरी वृत्ति के खुदगर्ज लोग उनके पीछे हमेशा पड़े रहते हैं और काम का अपेक्षित श्रेय प्राप्त नहीं हो पाता।

हम जिन लोगों को विद्वान, संजीदा और अच्छे समझते हैं वे भी किसी न किसी विवशता के मारे रचनात्मक और अच्छे कार्यों की सार्वजनिक रूप से सराहना नहीं कर पाते हैं। उनके सामने अपनी अस्मिता को बनाये और बचाये रखने का भूत सवार होता है और इस कारण से वे न अच्छे को अच्छा कह पाते हैं, न बुरे को बुरा।

अपने जीवन में कोई सा कर्म हो, व्यक्तिगत हो या सामुदायिक, सभी प्रकार के कामों को अच्छी नीयत और ईमानदारी के साथ करते रहें और जिन्दगी भर के लिए यह ब्रह्मवाक्य स्वीकार कर लें कि हम उस ईश्वर के प्रति जवाबदेह हैं जिसने हमें धरा पर आने का सौभाग्य दिया है, इसलिए जो कुछ देना है वह ईश्वर को देना है, हमारा काम श्रेष्ठ कर्म को ईश्वर का मानकर उसी को समर्पण करना है।

मरणधर्मा लोगों से किसी भी प्रकार की आशा-अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि एक तो वे लोग रहे नहीं जो सत्यासत्य व धर्म-अधर्म का विवेक रखा करते थे और समाज तथा राष्ट्र के हित में सोचते थे। अब हमारे सामने ऎसे मरणधर्माओं की रेवड़ें हैं जिनका न कोई सिद्धान्त है, न जीने का लक्ष्य, और न ही सामाजिक दृष्टि। ऎसे लोग न किसी के हुए हैं, न होंगे।  ये चाहे जो सोचें, इन्हें जी भर कर सोचने दें, ऎसी कितनी ही पीढ़ियों की अस्थियां गंगाजी में प्रवाहित हो चुकी हैं जो यही करते आए थे।

अपनी पूरी जिंदगी जब हम ईश्वर को समर्पित कर चलते हैं, हर काम में ईश्वर के प्रति जवाबदेह होने का भाव बनाए रखते हैं, तब हमारी तमाम समस्याओं का खात्मा एक झटके में ही हो जाता है।  अपने मालिक को जानें, पहचानें और उसके प्रति वफादारी निभाते हुए अपने-अपने फर्ज को इस प्रकार अदा करें कि जमाना सदियों तक याद रखें।  मरणधर्माओं से आशा वे ही रखा करते हैं जो मरे हुए हैं या फिर अधमरे। मरणधर्माओं को पूजने और इनकी परिक्रमा या स्तुतिगान करने वाले लोग अन्त में भूतयोनि को ही प्राप्त होते हैं।

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