त्याग और सेवा ही है

शाश्वत संबंधों की बुनियाद

– डॉ. दीपक आचार्य

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संबंध दो प्रकार के हैं। एक सम सामयिक और क्षणिक संबंध होते हैं जिनमें  आकस्मिक कार्य या स्वार्थ से लोग एक-दूसरे से जुड़ जाया करते हैं और कार्य या स्वार्थ सध जाता है तो संबंध अपने आप समाप्त हो जाते हैं या निष्कि्रयावस्था प्राप्त कर लिया करते हैं। ऎसे संबंधों को बाद में कोई भी पक्ष सायास याद करना या रखना नहीं चाहता।

दूसरी तरह के संबंधों में प्रगाढ़ता और स्थायित्व दोनों होता है और असल में इन्हीं संबंधों को शाश्वत कहा जा सकता है। इस प्रकार के शाश्वत संबंध सायास भी हो सकते हैं और अनायास भी। इनमें स्वार्थ एकपक्षीय न होकर उभयपक्षीय होता है और संबंधों का लाभ दोनों पक्षों को तो प्राप्त होता ही है, उन लोगों को भी मिलता है जो इनसे जुड़े हुए होते हैं।

इस स्थिति में शाश्वत संबंधों का सीधा फायदा समाज और क्षेत्र को भी किसी न किसी रूप में पहुँचता ही है। बात किसी भी बंधन की हो, परिणय सूत्र बंधन की हो या गठबंधन की, सभी को स्थायित्व तभी प्राप्त हो सकता है कि जब दोनों पक्षों का पारस्परिक संबंध ऎसा हो जिसमें अपने लिए नहीं बल्कि सामने वाले के लिए, समाज के लिए, और देश के लिए जीने की भावना हो।

जिन बंधनों और गठबंधनों में एकपक्षीय लाभ की बात सामने आती है उनमें यह बंधन या गठबंधन कभी स्थिरता प्राप्त नहीं कर पाता है, बल्कि किसी भी एक पक्ष का स्वार्थ सामने आने पर इसका विघटन हो ही जाता है। आम आदमी के संबंधों की बात करें तो यह तय मान कर चलना चाहिए कि दुनिया में तमाम प्रकार के सायास-अनायास और तात्कालिक संबंधों की बुनियाद अगर परोपकार तथा सेवा भावना हो, मन में मानवीय संवेदनाएं हों और मनुष्य जीवन के लक्ष्य की सही-सही समझ हो तो हर प्रकार का रिश्ता अटूट बना रहता है।

आजकल संबंधों में स्वार्थ आ गया है और वह भी घटिया किस्म का। इस कारण सभी प्रकार के संबंधों की बुनियाद हिलती हुई कभी न कभी भरभरा कर गिर पड़ती है और इन संबंधों का अस्तित्व समाप्त हो जाया करता है। जिस समय कोई पक्ष यह समझ लेता है कि उसे दूसरे पक्ष की भावनाओं की कद्र करनी चाहिए या सामने वालों को प्रसन्नता एवं सुकून कैसे दिया जा सकता है, तब संबंधों की नींव शाश्वत हो उठती है।

संबंधों में सेवा भावना और परोपकार तथा त्याग एवं समर्पण जहाँ होगा वहाँ इनका आदर्श स्वरूप प्राप्त  होता है तथा संबंधों के जुड़ने का मकसद भी सुनहरा आकार पाने लगता है। आजकल इंसान मामूली स्वार्थ को लेकर संबंधों को उपेक्षित करने लगा है और उसके लिए अपने क्षुद्र स्वार्थ पूरा करना संबंधों के आगे गौण हो चला है।

यही कारण है कि संबंधों का बनना तो खूब होता जा रहा है। नए-नए बंधनों और गठबंधनों का अस्तित्व पैदा होता रहता है लेकिन त्याग के अभाव में ये सारे के सारे संबंध धूल धुसरित हो जाते हैं और किसी भी पक्ष को न प्रतिष्ठा मिल पाती है और न ही इनके संबंधों को याद रखने लायक माना जाता है।

भारतीय संस्कृति और परंपराओं में त्याग को विशेष महत्त्व दिया गया है। यह त्याग सिर्फ आदमी का आदमी के लिए ही नहीं बल्कि आदमी का समाज, क्षेत्र और देश के लिए भी होना जरूरी है।  जिन रिश्तों में त्याग नहीं होता उन रिश्तों के लिए माना जा सकता है कि ये सिर्फ बनने और टूटने के लिए ही बने हुए हैं और न इनका भविष्य होता है, न ही उन लोगों का कोई भविष्य होता है जो इस प्रकार के त्यागविहीन बंधनोें, गठबंधनों और संबंधों की बातें करते हैं।

त्याग हमारे जीवन की वह कुंजी है जिससे संबंधों की प्रगाढ़ता से लेकर दैवत्व प्राप्ति के तमाम द्वारों को खोला जा सकता है। घर की दीवारों से लेकर दुनिया का कोई सा कोना हो, सर्वत्र त्याग ने वो इतिहास कायम किया है जो युगों तक याद किया जाता रहा है और इसी त्याग ने सिद्ध कर दिया है कि हमारा जन्म अपने खुद के लिए नहीं बल्कि समाज और देश के लिए हुआ है।

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