शोरगुल से खुश नहीं होती देवी

श्रद्धा-भक्ति व शांति अपनाएँ

– डॉ. दीपक आचार्य

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आज से पूरा देश नवरात्रि में लग जाएगा। शक्ति उपासना का यह परम पर्व देवी मैया को खुश करने और शक्ति संचय करने का मौका है जिसमें विविध उपचारों और विधि-विधानों से देवी मैया की साधना होती है। हम सभी लोग नवरात्रि में देवी मैया को रिझाने के खूब सारे जतन करते रहे हैं।

नवरात्रि के नाम पर हर तरफ शुरू हो जाएंगी तरह-तरह की हलचलें। नवरात्रि का अवसर सदियों से हमारे यहाँ विशेष महत्त्व का रहा है। इन दिनों में देवी मन्दिराेंं से लेकर शक्तिसाधकों के घरों तक दुर्गासप्तशती और देवी अनुष्ठानोें का दौर बना रहता है जिसमें एकाग्रता, शांति और श्रद्धा-भक्ति तथा समर्पण भाव से माँ की आराधना का शाश्वत विधान रहा है। इसके साथ ही माँ की ममता और करुणा-वात्सल्य रसों को प्राप्त करने, माँ को प्रसन्न करने के लिए माधुर्य के साथ गरबा भी होता रहा है।

देवी अनुष्ठान हों या गरबा, या फिर नवरात्रि के नाम पर कुछ भी। इन सभी में मौलिकता अब खत्म होती जा रही है और इसका स्थान ले लिया है भयंकर शोरगुल, फैशन और दिखावे ने। हम आज जो कुछ कर रहे हैं वह माँ की मूर्ति के सामने, मन्दिरों में जरूर कर रहे हैं मगर हमारा लक्ष्य माँ नहीं होकर जनता हो गया है और हम जो कुछ कर रहे हैं वह लोगों को दिखाने और सुनाने के लिए ही कर रहे हैं।

हमारे सारे कर्म में जनता ही हमारा लक्ष्य है और ऎसे में नवरात्रि के आयोजनों से माँ को पाने की कल्पना व्यर्थ है। हम मंत्र, स्तोत्र और पाठ का उच्चारण करते हैं तब भी हमें माईक चाहिए। हम गरबा खेलते हैं तब भी माईक चाहिए। धर्म के नाम पर हम आजकल जो कुछ कर रहे हैं उन सभी के लिए माईक चाहिए, और वह भी तेज आवाज में। जबकि हमें माईक की कोई जरूरत नहीं पड़ती।

बिना माईक के यदि धार्मिक कार्यक्रम होने लगें तो उसमें समवेत स्वर भी आएंगे और माधुर्य का आनंद भी। आजकल पंडितों की जाने ऎसी कौनसी प्रजाति पनप गई है जिसे हर अनुष्ठान के लिए माईक चाहिए। अनुष्ठानों में माईक का एक यह फायदा जरूर है कि सारे पंड़ितों को एक साथ बोलना नहीं पड़ता, दो-चार की आवाज गूंजती रहती है और बाकी को मौका मिल जाता है तम्बाकू मसलने, गुटखा चबाने, मोबाइल पर बात करने या गपियाने का। हालांकि अब ऎसे नैष्ठिक पंडितों और कर्मकाण्डियों की संख्या कम ही रह गई है जो पूजा-पाठ और अनुष्ठान के वक्त पूरी सात्ति्वकता और एकाग्रता से कर्म करते हैं और पूरे विधि-विधान को अपनाते हैं। उनके लिए उपास्य और उपासक के बीच और कोई दूसरा होना ही नहीं चाहिए।

यही स्थिति हमारे बाबाओं की हो गई है, माईक के बगैर उनकी जबान खुलती ही नहीं।  आखिर हम माईक लगाकर किसको सुनाना चाहते हैं देवी मैया को या पब्लिक को। अब हमारी सारी उपासनाएं पाखण्ड, दिखावा और आडम्बर होकर रह गई हैं और यही कारण है कि इन अनुष्ठानों और सामूहिक आयोजनों का कोई सकारात्मक प्रभाव समाज के सामने नहीं आ रहा है।

जो भी अनुष्ठान या धार्मिक आयोजन लोगों को दिखाने के लिए किए जाते हैं वे सारे पाखण्ड की श्रेणी में आते हैं। नवरात्रि के नाम पर शोरगुल का जोर पिछले तीन-चार दशकों में ज्यादा बढ़ गया है। देवी उपासना के मूल मर्म और फर्ज से अनभिज्ञ मूर्खों की ऎसी भीड़ हमारे सामने आ गई है जिसे माईक के बिना देवी उपासना अधूरी लगती है।

यह तय मानकर चलना चाहिए कि माईक का उपयोग वहीं पर हो जहाँ लक्ष्य समूह ज्यादा हो। धर्म में शोरगुल का कोई स्थान नहीं है बल्कि धर्म तथा धार्मिक स्थलों का सीधा संबंध आत्मिक शांति, एकाग्रता और शून्यावस्था पाने से है और जहाँ ये नहीं हैं वहां न ईश्वर है, न मानवता।

नवरात्रि के नाम पर धींगामस्ती का एक और उदाहरण यह है कि मन्दिरों और गरबा स्थलों पर लगे माईकों से ऊँची आवाज में दिन-रात कैसेट्स बजते रहते हैं। पुजारी और धर्मान्ध लोगों की एक किस्म ऎसी ही है जो हमेशा एक ही काम को धर्म समझती है और वह है कैसेट चला कर माईक शुरू कर देना।

इन्हें लगता है कि इससे भगवान खुश होंगे। ऎसा ही होता तो दुनिया के सारे भौंपू, कैसेट्स बनाने वाली कंपनियां और माईक वाले आज ईश्वर के सबसे ज्यादा करीब होते। नवरात्रि के अनुष्ठान-गरबा आदि हों तभी माईक चलेंं तो अच्छा है, लेकिन कैसेट्स चलाकर भक्ति दर्शाना और लोक शांति में खलल डालना ऎसा कर्म है जिसे खुद माँ भी पसंद न करें। माईक चलाकर रातों की नींद हराम करना कौनसा धर्म है?

नवरात्रि के नाम पर शोरगुल से देवी मैया भी परेशान है मगर किससे कहे। नवरात्रि में शक्ति उपासना के मूल मर्म को समझें और वे ही काम करें जिनसे देवी मैया तथा औरों को प्रसन्नता का अनुभव हो। वरना नवरात्रि के नाम पर इतना आडम्बर और पाखण्ड किसी काम का नहीं। बरसों से हम यही करते आ रहे हैं मगर न तो देवी मैया हम पर खुश हो पायी हैं और न उनके गण। सभी को नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं…..।

 

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