इंसान से भी गए बीते हैं वे

जो खुद को भगवान समझते हैं

– डॉ. दीपक आचार्य

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पिछले कुछ समय से स्वयंभू लोगों की हमारे यहाँ जबरदस्त बाढ़ आयी हुई है। इनमें सभी धंधों, गोरखधंधों, वर्गों, क्षेत्रों और हुनरों वाले लोग हैं जो स्वयंभू बने हुए अपने आपको भगवान से कम नहीं समझते हैं। इनमें कई दीर्घकालीन हैं, कई अंशकालीन और कई सारे किश्तों-किश्ताेंं में भगवान मानने वाले।

खूब सारे ऎसे हैं जो मौके को ताड़ कर कभी भक्त होने का स्वाँग रच देते हैं, कभी मौका पा जाने पर खुद भगवान बन बैठते हैं। किसम-किसम के बहुरुपियों और दिखावटियों, आडम्बरियों और पाखण्डियों का वजूद दुनिया में हर जगह है, भारत में भी हैं और अपने इलाकों में भी।

इन भगवानों के पास न अपनी कोई खास अक्ल होती है, न कोई योग्यता या खुद का पॉवर। दूसरों के करंट से चलने वाले इन रोबोट्स का चाल-चलन, व्यवहार और अदाएँ भी देखने लायक हुआ करती हैं। इनका पूरा जीवन जाने कितने दोहरे-तिहरे चरित्रों, कुटिलताओं, पाखण्ड, कितने ही जानवरों के विषों, हिंसक व्यवहार से लेकर इतने सारे किरदारों में माहिर होता है कि इनका पूरा जीवन यथार्थ से कोसों दूर चला जाता है और उसका स्थान ले लेता है अभिनय।

अभिनय और स्वाँग रचने में माहिर लोगों की संगति में रहते हुए उस्ताद के साथ जमूरे भी माहिर हो जाते हैं। कई-कई बार तो तमाशबीन भीड़ भी अपने आपको उस्ताद समझ लेने का भ्रम पाल लिया करती है। कमोबेश सभी जगह हालात एक से ही हैं। इन लोगों को यह अच्छी तरह पता चल चुका है कि कुछ हुनर न हो, दिमाग ज्यादा न हो तो अपना लो कोई सा अभिनय। तमाशबीन और उदार भीड़ तो हर कहीं अपने स्वागत के लिए सदैव समुत्सुक और उल्लसित बनी ही रहती है।

अहंकार जब अपनी चरमावस्था को प्राप्त हो जाता है, ईश्वर के लिए किसी भी आदमी के क्षरण और ठिकाने लगाने का कोई और रास्ता बचा नहीं होता है, तब वह ऎसे व्यक्तियों को इतना अधिक उच्चस्तरीय अहंकारी बना डालता है कि उन्हें हर क्षण यही महसूस होता है कि वे भगवान हैं। बस यहीं से इन भगवानों के अधःपतन की यात्रा का श्रीगणेश हो जाता है।

भगवान का कोई गुण इनमें हो न हो, ये अपने आपको यही मान लिया करते हैं कि उनके क्षेत्र में मुकाबले का कोई दूसरा है ही नहीं। जो कुछ हैं वे ही हैं, जो कुछ करना है उन्हें ही करना है। वे न होते तो यह जहाँ न होता, और बहुत सारी बातें नहीं होती, जो आम आदमी से लेकर परिवेश तक के लिए जरूरी हैं।

इन लोगों को अहंकार भगवान कहना ज्यादा श्रद्धास्पद होगा क्योंकि अपने-अपने इलाकों में हर भगवान का वजूद होता है और इन भगवानों को न स्वीकारने या इन पर किसी भी प्रकार की टिप्पणी करने का सीधा सा अर्थ है बरसों से सोये हुए किसी भीषण और भयंकर असुर को असमय नींद से जगा देना। फिर इन भगवानों का संगठन भी बांगर सीमेंट और फेविकोल को भी पीछे छोड़ देने वाला होता है।

अपने ये भगवान भी लगता है  जैसे पीढ़ियों से भूखे हैं और तभी ये अपनी भावी पीढ़ियों के लिए बहुत कुछ संचित कर जाना चाहते हैं ताकि उनकी लोकप्रियता और कीर्ति पीढ़ियों तक याद रखी जा सके। अपने इन भगवानों के सारे गुण किसी एक प्रजाति से नहीं मिलते बल्कि असुरों से लेकर जानवरों तक की समस्त प्रजातियों का कोई न कोई लक्षण इनमें जरूर विद्यमान रहता है।

अपने ये भगवान हर मामले में विलक्षण हैं। न इनमें मानवीय संवेदनाएं होती हैं, न नैतिक मूल्य या आदर्श चरित्र, न संस्कार और अनुशासन। पूरी तरह स्वच्छन्द, उन्मुक्त और मदमस्त भगवान सीधे मुँह किसी से बात नहीं करते, सीधी तरह कोई काम नहीं करते, गुणों की बजाय अपनी तृप्ति के विलासी साधनों से ही मतलब रखते हैं, अच्छे सलाहकार और मित्र उन्हें कभी नहीं सुहाते, कड़वी बात सुनना पसंद नहीं करते, अच्छे कामों से सायास परहेज रखते हैं।

उन्हीं लोगों को पसंद करते हैं जिनका इनके प्रति पूर्ण समर्पण हर स्तर तक का है, चापलुसी और जयगान करने वाले इनके सबसे निकटतम संबंधी हो जाते हैं। इन भगवानों के आस-पास ऎसे ही भक्तों की भीड़ और तमाशा बना रहता है जिनकी न अपने माता-पिता-गुरुओं और परिवारजनों में श्रद्धा है, न समाज और देश के प्रति कोई भावना। भगवानों में वैरागी भी शामिल हो गए हैं और संसारी भी। वे भी फन आजमा रहे हैं जो अद्र्ध वैरागी-अद्र्ध संसारी हैं।

कोई क्षेत्र ऎसा नहीं छूटा है जहाँ नए जमाने के इन भगवानों का वजूद न हो। इंसानियत और मानवता धर्म से कोसों दूर भगवानों की इस नई फसल से हर कोई परेशान है। सारे समाज का सत्यानाश कर रखा है इन भगवानों ने जैसे नील गाय पूरे खेत को चंद मिनटों में चट कर जाती है।

दुर्भाग्य से भगवानों की जनसंख्या का ग्राफ इतनी तेजी से बढ़ रहा है कि संभव है आने वाले दिनों में सभी जगह सैकड़ों-हजारों प्रजातियों के भगवान ही भगवान नज़र आएं, इंसान कहीं ढूँढ़े न मिले।

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