असली  अपराधी और पापी  वे हैं

जो झूठ बोलते-सुनते और लिखते हैं

– डॉ. दीपक आचार्य

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जीवन और परिवेश की तमाम समस्याओं का मूल कारण असत्य और दोहरा आचरण है। संसार का हर कर्म और व्यापार दिव्य और दैवीय हो सकता है यदि हम अपने पूरे जीवन से झूठ को निकाल दें, कथनी और करनी में समानता ले आएं। लेकिन यह तभी हो सकता है कि जब हम मामूली क्षुद्र इच्छाओं और भोग-विलासिता के लिए झूठ बोलने की आदत छोड़ें।

सत्य को अपना लेने पर हम  अपनी वाणी को संकल्पसिद्धि लायक बना सकते हैं लेकिन हमें अपनी वाणी, सत्य और अपने संकल्प पर भरोसा नहीं होकर दूसरों पर होता है और इस कारण हमें संसार के सामने वही व्यवहार करने को मजबूर रहना पड़ता है जैसा कि यह संसार चाहता है।

अपने आप हो जाने वाले कामों को भी जल्दी पूरा कराने के लिए हम अक्सर झूठ का सहारा लेते हैं और चाहते हैं कि ये कार्य जल्द पूरे हो जाएं। एक बार जब हम झूठ का इस्तेमाल करने में शुरू हो जाते हैं तब यह झूठ हमारी जिन्दगी में  घर करने लगता है।

यह झूठ अकेला नहीं होता बल्कि अपने साथ षड़यंत्रों, मलीनताओं, गोरखधंधों, संग्रह वृत्ति, संवेदनहीनता और स्वार्थ से लेकर उन तमाम बुराइयों को लेकर आता है जो अच्छे इंसान के लिए वज्र्य कही गई हैं। यहीं से शुरू होता है इंसानियत के पराभव और आसुरी वृत्तियों के उत्कर्ष का वह दौर जिसमें मरते दम तक हम अपनी लल्लो-चप्पो और झूठ को भुनाते हुए औरों को भ्रमित करते और  रखते हुए खुद भी भ्रम में ही जीते रहते हैं।

झूठ का आश्रय पाकर कोई भी इंसान समृद्ध , भोग-विलासिता सम्पन्न जरूर हो सकता है लेकिन सुखी और प्रसन्न कभी नहीं। जिन झूठे और मक्कारों के वैभव को देख कर हम सुखी मानते हैं वे सारे लोग भीतर से न प्रसन्न होते हैं न शांत या संतोषी।  इनके चेहरों की मुस्कराहट और प्रसन्नता दिखावे से अधिक कुछ नहीं हुआ करती। इस सत्य से ये लोग भी अच्छी तरह वाकिफ होते हैं मगर जमाने को दिखाने के लिए इन्हें ऎसे स्वाँग करने ही पड़ते हैं।

एक बार जो सत्य का आचरण छोड़ देता है उसे झूठ बोलने, लिखने और सुनने से कभी कोई परहेज नहीं होता बल्कि एक समय ऎसा आता है जब इन लोगों की जिन्दगी झूठ के बिना चल ही नहीं पाती। पग-पग पर झूठ का सहारा लेना ही पड़ता है।

झूठ की नींव इतनी मजबूत होती है कि फिर उस पर जो कुछ निर्माण होगा वह झूठा ही झूठा होगा। हमारे जीवन से लेकर देश और दुनिया सभी जगहों की तमाम समस्याओं का मूल कारण झूठ ही है। यह झूठ ही है जिसका सहारा लेने के बाद आदमी जो कुछ करता है वह अभिनय या बहुरुपिया आडम्बर-पाखण्ड के सिवा कुछ नहीं होता। फिर चाहे वह मुँह से बोले गए शब्द हों, कानों से सुने जाने वाले वाक्य हों या फिर लिखी जाने वाली कोई सी इबारत।

झूठ का किसी भी रूप में प्रयोग अपराध और पाप दोनों श्रेणियों में आता है और इनका परिणाम हर किसी को भुगतना ही पड़ता है। कोई न स्वीकारे, यह बात अलग है पर भीतर से महसूस जरूर करता ही है।

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