बदलें अपनी कार्य संस्कृति दुहाई न दें रिश्तों या सिफारिश की

– डॉ. दीपक आचार्य
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इंसान वही है जो कुछ भी कर्म करे, तो अपने बूते पर ही। जो लोग औरों के इशारों पर कुत्ते के पिल्लों, बंदरों और भालुओं की तरह नाचते हैं, तोतों की तरह एक ही एक राग अलापते हैं, कैसेट्स की तरह बजते रहते हैं, रोबोट की तरह काम करते हैं और दुनिया में वे सारे काम बिना सोचे-समझे करते रहते हैं जो औरों द्वारा निर्देशित होते हैं और जिसमें अपनी बुद्घि या विवेक का इस्तेमाल नहीं करते हैं उन्हें मनुष्य नहीं माना जा सकता है
इन लोगों को पशुओं से भी गया बीता माना गया है क्योंकि पशु भी वे ही काम करते हैं जो उनकी प्रकृति के अनुकूल है। किसी शाकाहारी पशु को शराब, माँस या नोट खिलाओ तो वह खाएगा नहीं बल्कि हिकारत की दृष्टि से देखता हुआ त्याग कर देगा।
लेकिन आदमी के बारे में साफ-साफ दावा कोई नहीं कर सकता। आदमी वो सब कुछ कर सकता है जो पशु भी नहीं कर पाते। आदमी शाकाहारी और माँसाहारी दोनों प्रकार के व्यवहारों के दक्ष होता है और हर वस्तु या घटना को अपने स्वार्थ तथा लालची न$जरों से ही देखता है। उसे गिरगिट की तरह रंग बदलना भी आता है और साँप की तरह फुफकारना व काट खाना, अजगर की तरह मरोड़ना और पेट भरकर भी डकार नहीं लेना उसकी फितरत में है।
आदमी को सिर्फ अपने काम होने से मतलब है उसके लिए अपनाये जाने वाले साधन और व्यवहारों से उसे कोई सरोकार नहीं। लक्ष्य के प्रति समर्पण और सटीक निशानों के लिए साधनों के प्रयोग तथा मौके की तलाश में आदमी ने दुनिया भर के सारे जानवरों को भी पीछे छोड़ डाला है। यहाँ तक कि अपराध मनोविज्ञान और आपराधिक हुनरों तक को भी।
आदमियों की जात में इन दिनों खूब सारे लोग दूसरों के दम पर दम भर रहे हैं। ज्यादातर आदमियों में खुद के भरोसे काम-काज होने का दमखम नहीं रहा है और ऐसे में इनके लिए अपने कामों को करने या कराने के लिए रिश्तों या सिफारिशों में से एक की अथवा दोनों ही विधाओं का इस्तेमाल होने लगा है।
आदमी की कमजोरियों में जो चीजें शुमार हैं उनमें पंचमकार वाले वाम मार्गी कहे जाने वाले रास्तों का चलन तो हर कहीं है ही, लेकिन रिश्तों और सिफारिशों का जोर भी कोई कम नहीं है।
कई नालायक और प्रतिभाहीन लोग तो रिश्तों और सिफारिशों के दम पर ही पूरी जिन्दगी ऐश करते हुए निकाल देते हैं। इनसे न कोई काम हो पाता है, न मेहनत-मजूरी करने की ताकत। ऐसे लोगों के लिए किसी न किसी का रिश्ता या सिफारिश ही वह रामबाण नुस्खा होता है जिसके बल पर वे जमाने भर में अपनी अहमियत कायम रखते हुए वो हर काम कर गुजरते हैं जो सामान्य आदमी कर नहीं सकता अथवा करना नहीं चाहता।
दूसरों के भरोसे काम निकलवाना और करना मनुष्यता का अपमान तो है ही, उस विधाता का भी अपमान है जिसने मनुष्य के रूप में हमें पूर्णता देकर भेजा है। भरा-पूरा मस्तिष्क दिया है और स्वस्थ शरीर। इसके बावजूद हम दिल-दिमाग और शरीर का उपयोग करना नहीं चाहते और इसकी बजाय उन लोगों का उपयोग करना चाहते हैं जिन्हें हम अपना रिश्तेदार मानते हैं या आका। और इन्हीं के इशारों पर चलते हुए परायों से निर्देशित पाालतु जिन्दगी यों ही गुजार देते हैं और आदमी के रूप में बिना अपना कौशल दिखाये वापस वहाँ चले जाते हैं जहाँ से कोई लौट के आज तक वापस नहीं आ पाया है।
दुनिया में सबसे कमजोर आदमी वो है जो अपने रिश्तों और दूसरों के प्रभाव अर्थात सिफारिश की बात करता है। ऐसे लोग भले ही कुछ उपलब्धि हासिल कर लें मगर आम लोगों में इनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं होती।
इनका मूल्यांकन इन लोगों को देखकर नहीं होता बल्कि उन लोगों को देखकर होता है जो इनके रिमोट होते हैं। हालांकि सिफारिशी और रिश्ताई लोगों का अपना कोई धर्म भी नहीं होता। ये लोग पॉवर के पीछे पगलाए हुए होते हैं और ऐसे में ये कभी इसके तो कभी उसके आदमी हो जाते हैं और फिर इनकी निष्ठाएं और कर्म भी बदलते रहते हैं।
रिश्तों और सिफारिशों के भरोसे चलने वाली भैंसे और भेड़िये कभी वैतरणी पार नहीं कर पाते। इंसान की तरह जो लोग पैदा हुए हैं उन्हें इंसान की तरह रहना, व्यवहार करना और आगे बढ़ना चाहिए न कि पशुओं की तरह गले में पट्टे बाँधने और बदलने वालों की तरह।
जो कुछ करें अपने परिश्रम और प्रतिभाओं से करें, दूसरों के भरोसे जीने वाले मरे हुओं से भी ज्यादा गए बीते होते हैं। हमारे आस-पास, अपने क्षेत्र के कई सारे गलियारों में भी ऐसे खूब लोग हैं जो किसी न किसी आका के पालतु कहे जाते हैं और रिश्तों तथा सिफारिशों के दम पर किसी न किसी बाड़े में जमे हुए प्रदूषण फैला रहे हैं।
सिफारिशी टट्टूओं और रिश्तेदारों के दम पर अपना वजूद वे लोग ही कायम करते हैं जो नाकाबिल, निक मे और खुदगर्ज होते हैं। ऐसे लोग इंसानियत के नाम पर शर्मसार ही करते रहते हैं। बचें सिफारिशों और रिश्तों की दुहाई से, और इंसान के रूप में अपनी पहचान कायम करें।
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