दशमेश गुरु का खालसा और भारत

विनोद बंसल
इतिहास इस बात का साक्षी है कि मुगलों के अत्याचारों से हिन्दू समाज को न सिफऱ् बचा कर बल्कि उसके संस्कार, संस्कृति व स्वाभिमान की रक्षा करने में गुरू गोविन्द सिंGURU GOBINDह जी का योगदान अविस्मरणीय है। वे शायद दुनिया के एक मात्र ऐसे महा पुरुष हैं जिनकी तीन पीढिय़ों ने देश व धर्म की रक्षार्थ न्योछावर कर दीं। वे बाल्यकाल की अल्पायु में ही इतने गंभीर व धीर-वीर थे कि पिता गुरु तेग बहादुर ने भी बलिदान की शिक्षा शायद उन्हीं से ली। उसके बाद क्या था, उन्होंने अपने चारों बेटों के साथ स्वयं को भी राष्ट्र पर आहूत कर दिया किन्तु वे हिन्दुओं के स्वाभिमान व देश की रक्षा से विमुख नहीं हुए। खालसा पंथ की स्थापना, गुरु ग्रंथ साहिब जैसा महा ग्रंथ, उनके द्वारा जलाई गई स्वतन्त्रता ज्योति तथा धर्म की रक्षार्थ अन्याय के विरूद्ध लडऩे की भावना आज भी विश्व भर के लिए प्रेरणा स्त्रोत है।
मात्र नौ वर्ष का एक छोटा सा बालक सन् 1675 में पिता के साथ आसाम से पंजाब आया। पिता (गुरू तेग बहादुर) का दिन-रात देश और समाज का चिन्तन तथा धर्म रक्षा का संकल्प बालक के मन को अन्दर तक छू रहा था। एक दिन गुरू तेग बहादुर कश्मीरी पंडितों पर हुए मुगलों के अमानवीय अत्याचारों की कथा सुनते-सुनते कहने लगे – इस समय धर्म रक्षा का एक ही उपाय है कि कोई बड़ा धर्मात्मा पुरूष बलिदान दे। यह बात बालक गोविन्द बड़े ध्यान से सुन रहा था। सभी लोग विषय की गम्भीरता को देख मौन थे। अचानक बालक गोविन्द बोल पड़ा – पिताजी, आज के समय में आप से बढ़कर दूसरा महात्मा व धर्मात्मा पुरूष और कौन हो सकता है। नौ वर्षीय बालक के इस उत्तर पर गुरू तेग बहादुर बहुत प्रसन्न हुए।
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी सन् 1675 को पिता के बलिदान के पश्चात् बालक गोविन्द नौ वर्ष तक आनन्द पुर में रहे जहाँ उन्होंने अपनी भावी जीवन की योजना बनाई। अपने बलिदान से पूर्व गुरू तेग बहादुर ने यहीं पर उन्हें गुरूता गद्दी प्रदान करते हुए देश, धर्म व दुखी जनता का उद्धार करने का आशीर्वाद दिया। बालक गोविन्द से गुरू गोविन्द बने गुरू गोविन्द सिंह जी ने सिख समुदाय को हुक्मनामे भेज-भेज कर अस्त्र, शस्त्र और धन एकत्रित किया तथा सामाजिक धारा को क्रांतिकारी रूप देने के लिए एक छोटी सेना भी बनाई।
भारत में मुगल शासकों के निरन्तर बढ़ते आक्रमणों से देश और धर्म को बचाने के लिए सन् 1699 में बैसाखी के दिन गुरू गोविन्द सिंह जी ने अपने अनुयाइयों की एक विशाल सभा बुलाई जिसे संबोधित करते हुए उन्होंने हाथ में नंगी तलवार लेकर प्रश्न किया कि है कोई, जो धर्म के लिए अपने प्राण दे सके? उनकी इस प्रेरणादायक ललकार को सुनकर बारी-बारी से दयाराम खत्री, धर्म दास जाट, मोहकम चंद धोबी, हिम्मत सिंह रसोइया तथा साहब चंद नाई अग्रसर हुए जिनके पश्चात् सारा निश्तेज समाज जोश में भर, उठ खड़ा हुआ। उन्होंने यहीं पर जात-पात के भेदभाव में बिखरे हिन्दू समाज को समन्वित कर खालसा के रूप में खड़ा किया और इस प्रकार खालसा पंथ की स्थापना हुई।
गुरू गोविन्द सिंह एक बड़े समाज सुधारक थे। सती प्रथा, कन्या वध, अस्पृश्यता (छुआ-छूत) इत्यादि सामाजिक बुराइयों से दूर समानता पर आधारित सामाजिक संरचना के वे पक्षधर थे। वीरता व पराक्रम में उनका मुकाबला नहीं था। चिडिय़ों के समान डरपोक भारतीय युवकों को वे कहा करते थे कि-
सवा लाख से एक खड़ाऊ,
चिडिय़ों से मैं बाज लड़ाऊं,
तबै गोविन्द सिंह नाम कहाऊँ।
औरंगजेब समर्थक, पंजाब के पर्वतीय नरेशों को, भंगाणी के युद्ध में पराजित किया और 1703 में उन्होंने चमकौर के युद्ध में केवल 40 सिखों की सहायता से मुगलों की विशाल सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। इसमें गुरू गोविन्द सिंह के दो बड़े पुत्रों अजीत सिंह व जुझार सिंह के साथ पांच प्यारों में से तीन प्यारे शहीद हो गये।
सन् 1703 में सरहिन्द के नवाब वजीर खाँ ने उनके दो छोटे पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को, इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवार में जीवित चिनवा दिया। चारों पुत्रों और पत्नी की क्रूर हत्या होने के बावजूद भी गुरूजी एक महान योगी की तरह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए 1706 में उन्होंने खिदराना का युद्ध लड़ा।
वे महान योद्धा तो थे ही, संगीत, साहित्य व कला के क्षेत्र में उनकी गहरी रूचि थी। वे रचनाकार कवि भी थे। उनके द्वारा रचित दशम ग्रन्थ हैं जिसमें – जापु साहब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चण्डी चरित्र, चण्डी दीवार, जफरनामा, चौबीस अवतार, ज्ञान प्रबोध आदि प्रमुख हैं। उनके दरबार में 52 कवि थे। इनमें दया सिंह, नंदलाल, सेनापति चन्दन, खानखाना आदि प्रमुख थे। उनकी रचनाओं में वीर रस की प्रधानता थी। उन्होंने अपने बाद श्री गुरू ग्रन्थ साहब को गुरू मानने का आदेश देकर गुरुता गद्दी पर आसीन किया। संवत् 1765 अर्थात् ईसवीं सन् 1708 में नांदेड़ में गोदावरी के तट पर गुरूजी ने देह त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। उनके द्वारा जलाई गई स्वतन्त्रता ज्योति तथा अन्याय के विरूद्ध लडऩे की भावना आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है।
गऊ रक्षा के लिए उनका मत था
‘यही दे हु आज्ञा तुरकन गहि खपाऊं,
गऊ घात का दोख जगसों मिटाऊं।
-उग्रदन्ती
अर्थात् हे मां भवानी, मुझे आशीर्वाद और आदेश दे कि धर्म विरोधी अत्याचारी तुर्कों को चुन-चुनकर समाप्त कर दूँ और इस जगत से गौ हत्या का कलंक मिटा दूँ। वे देवी दुर्गा भवानी के अनन्य उपासक थे। ‘खालसा’ सृजन से पहले उन्होंने शक्ति यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उनकी इच्छा थी कि-
सकल जगत मो खालसा पंथ गाजै,
जगै धरम हिन्दुक तुरक दुंद भाज
उग्रदन्ती
अर्थात्, सारे जगत में खालसा पंथ की गूंज हो, हिन्दू धर्म का उत्थान हो तथा तुर्कों द्वारा पैदा की गयी विपत्तियां समाप्त हों।
खालसा के लक्षण पूछने पर दशमेश गुरू ने एक बार कहा कि खालसा वह है जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर काबू पा लिया हो तथा अभिमान, परस्त्री गमन, पर-निन्दा तथा मिथ्या विश्वासों के भ्रमजाल से सदा दूर रहता हो। जो दीन दुखियों की सेवा व दुर्जन-दुष्टों का विनाश कर निरन्तर श्रद्धापूर्वक प्रभु नाम के जप में लीन रहता हो। खालसा को चरित्रवान व पराक्रमी बनाये रखने के लिए उन्होंने पांच ककार धारण करने के लिए कहा। ये हैं – 1. कृपाण 2. केश 3. कंघा, 4. कच्छा व 5. कड़ा।
यह बात सर्व विदित है कि गुरु गोविन्द सिंह जी महाराज की वीरता, पराक्रम, धैर्य, कर्तव्य निष्ठा, धर्म व राष्ट्र के प्रति समर्पण व त्याग तथा बलिदान की भावना ने ही हिन्दू समाज व भारत को जीवित रखा अन्यथा मुगल शासकों व लुटेरों के हाथों शायद हमारा नामो निशान मिट चुका होता। ऐसे महापुरुष को उनके प्रकाशोत्सव पर शत-शत नमन।

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