नौटंकी हो गया है

गंगोद्यापन

– डॉ. दीपक आचार्य

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गंगा के नाम पर हम साल भर में कितना कुछ नहीं करते हैं। कभी कसमें खाते हैं, कभी खूब सारे पाप और अपराध कर डालते हैं, फिर गंगाजल पीकर अपने आपको शुद्ध होने का भ्रम पाल लिया करते हैं। जीवन में एकाध बार गंगा के मुहाने पहुंचकर हर-हर गंगे का जयघोष लगाकर अपने आपको जिन्दगी भर पावन बनाने का संकल्प लेते हैं और लौटने के बाद फिर वही हाल, जैसे थे।

यात्रा करते हुए धाम-धाम पहुंचकर गंगाजल जमा करते हुए घर ले आते हैं और फिर गंगा को छोटे से कलश में नज़रबंद कर घर के किसी कोने में या कि पूजागृहमें रख दिया करते हैं। फिर कभी सहूलियत हो तब, समाज के भय से गंगोद्यापन करने की जुगत में भिड़ जाते हैं और गंगोद्यापन के नाम पर विराट से विराट आयोजन कर अपने आपको कम से कम दो-चार दिन के लिए ही सही, पावन और धन्य महसूस करते हुए धरम के अहंकार में डूबे रहते हैं।

यही सब चलता आ रहा है सदियों से। हम गंगा को घर लाते हैं, सारे जगत के सामने गंगोपासक के रूप में ख्याति प्राप्त करते हैं और फिर एक दिन सब कुछ खाक होकर उसी गंगा की धाराओं में विलीन होकर अपना पता भुला देते हैं।

आजकल गंगा और गंगोद्यापन खूब चर्चाओं में है।  गौ, गंगा, गीता और गायत्री …. इन्हें धार्मिकता के बड़े सूत्र मानकर इन पर सत्संग और कथाएं करते आ रहे हैं, खूब सारे प्रोफेशनल पण्डे-पVaranasigangaण्डित, कथा वाचक और बाबाओं की भीड़ हर तरफ विद्यमान है जो धर्म और परंपराओं को भुनाने के सारे मैनेजमेंट और फण्डों में माहिर है। इस भीड़ को पता है कि धर्मभीरूओं की कमजोर नस कौन सी है जिसे दबाने पर टकसाल का मजा लिया जा सकता है।

गंगा को माँ माना गया है लेकिन हममें से कितने लोग हैं जो माँ के प्रति आदर, सम्मान और श्रद्धा रखते हैं और माँ की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकते हैं। बात गंगा की ही क्यों, हमारी अपनी माँ हो या भारतमाता, या फिर गौ माता। हम सारे के सारे सिर्फ बातें करना जानते हैं, इनके नाम पर आयोजन कर धन-दौलत और प्रतिष्ठा बटोरना चाहते हैं।

सदियों से हम यही कर रहे हैं। यदि हमारी सच्ची आस्था और श्रद्धा  होती तो आज हमें अपनी इन दिव्य माँओं के लिए किसी अभियान चलाने या माँ की रक्षा में जुटने का आवाहन करने की आवश्यकता नहीं होती।

बात गंगा की ही करें तो इसके लिए कौन लोग दोषी हैं, इस बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है।  जितने लोग गंगा के किनारे बैठ कर प्रदूषण फैलाने में लगे हैं उतने ही हम सभी लोेग भी दोषी हैं जो गंगा के नाम पर आयोजनों की भरमार किया करते हैं मगर गंगा के मूल संदेश को अभी तक आत्मसात नहीं कर पाए हैं।

गंगा पतितपावनी होने के साथ ही उस विराट जल तत्व का प्रतीक है जो  पंचतत्वों से बनी सृष्टि का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक है। गंगा के सामीप्य और गंगाजल को घर लाकर रखने, माथे पर उठाकर गंगोद्यापन करने और गंगा के नाम पर अनुष्ठानों तथा पूजा-पाठ को करने व कराने वालों के लिए यह जरूरी है कि गंगा के दिव्यत्व भरे महत्त्व को समझें और जीवन में उतारें।

गंगा और गंगाजल अपने आपमें कई संदेशों का संवाहक है। इनमें शुचिता, निरन्तर प्रवाहमयता, चरैवेति-चरैवेति का भाव, जल संरक्षण, जीव और जगत की प्यास बुझाने का समर्पित एवं निष्काम भाव तथा उन सभी के प्रति श्रद्धा और आदर का भाव जिन्हें माँ कहा  गया है।

जो लोग गंगा के संदेशों को जीवन में उतारना नहीं चाहते हैं उनके लिएनहीं है गंगा, इन लोगों को गंगाजल के स्पर्श का भी अधिकार नहीं है। गंगाजल के नाम पर आयोजनों, अनुष्ठानों तथा धूमधड़ाकों का अर्थ तभी है जब हम गंगा को समझें, गंगा के लिए कुछ करें और अपने जीवन को गंगा प्रदत्त संदेशों का माध्यम बनाएं।

हमारे आस-पास के सार्वजनिक जलस्रोतों, नालों, नदियों और दूसरे जलाशयों को बरबाद करने की मानसिकता पाले रहें, इन जल स्रोतों को समाप्त कर दें,सार्वजनिक नलों और हैण्डपंपों को खत्म  कर उनकी जगह पर अतिक्रमण कर लें, पशु-पक्षियों और सभी प्रकार के प्राणियों के लिए पानी का प्रबन्ध करने में नाकाबिल रहें, तब न हमारी गंगाभक्ति का कोई अर्थ है, न गंगोद्यापन उत्सवों का।

हमारे इलाके में, हमारे पास-पड़ोस में एक भी जीव-जन्तु पानी का अभाव महसूस करे, प्यासा रहने को विवश हो जाए, हम इनके लिए पानी का प्रबन्ध न कर पाएं, उल्टे इनके लिए बने सार्वजनिक नलों और हैण्डपंपों को समाप्त करते रहें, तब हमारा गंगोद्यापन किसी नौटंकी से कम नहीं है जहाँ गंगा के नाम पर होने वाले किसी भी अनुष्ठान, पूजा-पाठ और गंगोद्यापन का कोई अर्थ नहीं है बल्कि हम गंगा के नाम को कलंकित ही कर रहे हैं। और यही कारण है कि हमारे पापों के अप्रत्याशित भार के कारण गंगा सूखती जा रही है। हमारा यही पाखण्ड बना रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि जब गंगा हमें छोड़ कर फिर स्वर्ग लोक चली जाए।

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