अफगानिस्तान की दुर्घटना का कारण

युद्घ आदमी की फितरत का तकाजा कहा जाता है। लेकिन ऐसा कहा जाना उतना ही गलत है जितना यह कहा जाना कि सूर्य पूर्व से ना निकलकर पश्चिम से निकलता है। युद्घ व्यक्ति के बौद्घिक कौशल और बौद्घिक चातुर्य के निष्फल हो जाने से जन्मी हताशा का परिणाम होता है। राजनीति की भाषा में इस स्थिति को कूटनीति की पराजय से जन्मी आस्था कहा जाता है। युद्घ व्यक्ति की फितरत का तकाजा नही है। यदि ऐसा होता तो हर व्यक्ति शांति की तलाश में नहीं रहता। व्यक्ति को तब उसकी अंतर्मन की गुप्त शक्तियां और उसकी अंतश्चेतना कभी भी शांति की खोज के लिए चौबीस घंटे परेशान न करती। आज आदमी चारों ओर मच रही लूटपाट, पैसे की हाय तौबा से परेशान हैं और भीतर से वह शांति की चाह में भटक रहा है। गलती हमारे कर्मों में है। अशांति भी हमारे कर्मों में है। हम गलत कार्य करके शुभ परिणामों की अपेक्षा करते हैं। हम पाप कर्म करके पुण्य फलों के रूप में चाहते हैं लेकिन परिणाम उल्टा आता देखकर घबराते हैं, क्रोधित होते हैं और दूसरों पर टूट पडते हैं-उसे मारने के लिए, उसे खत्म करने के लिए। युद्घ हमारे लिए तब एक अकस्मात होने वाली दुर्घटना बनकर रह जाता है। हम छानबीन नहंी कर पाते कि युद्घ का कारण क्या है? हम ऐसे ही कहने लगते हैं कि युद्घ व्यक्ति की फितरत का तकाजा है। बहुत से लोगों की महत्वाकांक्षाओं के कारण युद्घ हुए हैं या होते हैं और उनसे मानवता की भारी क्षति भी होती है, लेकिन इस सबके बावजूद एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों की हठ को, या निजी महत्वाकांक्षाओं को आप मानवता के मूल स्वभाव का विषय नहीं बता सकते। विश्व में अभी भी भारी उथल पुथल है। लगता है कि हम आतंकवाद के रूप में जन्मे एक विश्वव्यापी कुराफात के विरूद्घ जो  जंग लड़ रहे हैं वह अघोषित तीसरा विश्वयुद्घ है। ओसामा के मरने पर ही हमें यह नहीं समझना चाहिए था कि यह युद्घ समाप्त हो गया है। हमें उसी समय समझ लेना चाहिए था कि महत्वाकांक्षाओं का अभी पतन नहीं हुआ है अपितु उन्हें और भी अधिक वेग से एकत्र होकर आतंकी उत्पात मचाने की खुराक मिल गयी है। मनुष्य की अन्तश्चेतना ने तब हठ समझकर व्यक्ति को यही बताया था कि  अभी निश्चिंत होकर बैठने का समय नहंी आया है, बल्कि अभी तो पहले से भी अधिक जागरूक होने का वक्त है। उसी स्थिति से अर्थात ओसामा वध से ही प्रेरित होकर अफगानिस्तान की राजधानी में 15 अप्रैल को खूनी खेल खेला गया है। इस खेल पर कोई लगाम लगने वाली नहीं है। संधि ना करके लोग दुरभिसंधि कर रहे हैं। एक हाथ में खंजर लेकर लोग उसे पीछे छिपाते हुए दूसरे हाथ से हाथ मिला रहे हैं और शांति का नाटक कर रहे हैं। अभी शांति आती हुई सी लग रही है लेकिन भारी क्षति के साथ। उसका बहुत नुकसान हो चुका है। विश्वशांति को भारी खतरा इसलिए माना जा रहा है कि वह भीतर ही भीतर काफी खदक रही है। इसकी खदकन से धीरे धीरे गंभीर लोगों के सब्र का बांध टूटेगा और हम देंखेंगे कि कुछ गलत लोग शांति का सौदा करते करते उसे अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की कीमत पर नीलाम ही कर डालेंगे। निश्चय ही वह दिन मानवता के लिए बहुत ही दुखदायी होगा। लेकिन हमें अभी समय रहते चेतना चाहिए। कमियां तलाशनी चाहिए और हम स्वयं को ही भारी दण्ड देने के लिए आखिर क्यों अंधेरी गुफा में छुप गये हैं, इस पर चिंतन करना होगा। क्या हम अपने अस्तित्व को ही मिटाना चाहते हैं। ऐसे प्रश्नों पर गंभीर चिंतन करना चाहिए। कमी हमारी नजर और हमारे नजरिये दोनों में है। हमने विश्वशांति की बातें की हैं पर हमने विभिन्न राष्टï्रीयताओं को विभिन्न संप्रदायों विभिन्न महत्वाकांक्षाओं को और विभिन्न मताग्रहों केा जीवित रखकर ही ऐसा करने का प्रयास किया है। हमने इन राष्टï्रीयताओं को, संप्रदायों को, महत्वाकांक्षाओं को, तथा मताग्रहों को, कभी भी एक विश्व की परिकल्पना को साकार कर विश्वशांति की स्थापना में बाधक मानने की नहीं सोची। हमने आगे खड़े सच को झूठ साबित करने का प्रयास किया और अपनी मान्यताओं के आधार पर विश्वशांति की स्थापना करने का प्रयास किया। हमने समाधान को भी एक समस्या माना और समस्या को उलझन में रखने में ही अपना भला समझा। यह अहित कारी चिंतन ही अफगानिस्तान की वर्तमान दुर्घटना का कारण है।

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