राज्य, राजा और राजधानी के संदर्भ में श्रृंगी ऋषि महाराज और महानंद का संवाद

 

यहां पर हम यह स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे कि राष्ट्र का निर्माण किस प्रकार हुआ ? राष्ट्र जैसी संस्था के खड़े करने में वेद का क्या योगदान रहा ?
सरस्वती जी महाराज कहते हैं कि”जब स्वयंभूव मनु महाराज ने देखा कि सृष्टि में कुछ सूक्ष्मता आ गई है और लोगों के विचारों में गिरावट आ गई है तो उन्होंने वेद के आधार से राष्ट्र का निर्माण किया ।


जहां सृष्टि का निर्माण सम्यक ढंग से हुआ है अर्थात विचार पूर्वक वेद के विधान के अनुसार हुआ है , वहीं राष्ट्र का निर्माण भी वेद के मंत्रों में किए गए विधान के आधार पर होना स्वाभाविक था। इसलिए यहां पर यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि राष्ट्र जैसी संस्था को खड़ा करने का विचार जब ऋषियों के अंतर्मन में आया तो स्वायंभुव मनु ने उसे वेद के आधार पर खड़ा किया । जब हम कभी आपसी चर्चा में यह बात कहते हैं कि काम को विचार पूर्वक करो, तब हमें यह समझना चाहिए कि वेद के मंत्र को ही विचार कहते हैं तो काम को विचार पूर्वक करने का अर्थ हुआ कि वेद के मंत्र के विधान के अनुसार काम करो। ऐसे में हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि सृष्टि या राष्ट्र का निर्माण भी विचार पूर्वक अर्थात सम्यक ढंग से वेद के विधि विधान के माध्यम से हुआ ।
उस समय ऋषियों ने कहा कि आपने राष्ट्र का निर्माण तो किया परंतु हम यह जानना चाहते हैं कि इसका राजा कौन बनेगा ?
मनु महाराज ने कहा कि कोई भी राजा बन सकता है
ऋषियों ने कहा कि हम तो राजा बनने के लिए तैयार नहीं है ।तब उन्होंने कहा कि हम स्वयं राजा बनेंगे। तब स्वयंभूव मनु महाराज ने सबसे पहले राज्य के कर्म करने के लिए अयोध्या नगरी का निर्माण किया।
इस प्रसंग के उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि संसार की सबसे पहली राजधानी अयोध्या है। जिसका नाम हमारे ऋषियों ने उस समय अवध रखा। अवध का मतलब है कि जहां वध नहीं होता अर्थात वैचारिक मानसिक और कायिक किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होती। ऐसी पवित्र नगरी को हमारे ऋषियों ने अवधपुरी कहा और उसे विश्व की पहली राजधानी बनाने का सौभाग्य प्रदान किया।
तब महानंद जी ने श्रृंग ऋषि महाराज से प्रश्न किया कि हम यह जानना चाहते हैं कि जिस काल में प्रभु ने यह सृष्टि रची तो उस समय क्या दैत्य नहीं रचे थे जो आज पाप कर रहे हैं। क्या उस समय पाप नहीं होता था ?यदि पाप नहीं था तो यह पाप कहां से आया?
श्रृंगी ऋषि महाराज कहते हैं कि
अच्छा सुनो वास्तव में प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है हृदय को छूने वाला है यदि परमात्मा ने दैत्य उत्पन्न नहीं किए थे तो कर्म की महान क्रियाएं समाप्त हो जाती है। उस काल में दैत्य भी थे जो महान ऋषियों के विपरीत कार्य किया करते थे। ऋषि सत्य उच्चारण करते तो वह मिथ्या उच्चारण करते थे। इसी प्रकार आज भी वह कार्य चल रहा है, जब कोई महान आत्मा समाज में गुण ग्राही वाक्य प्रारंभ करता है तो विपरीत पक्षी जिद में विपरीत कार्य कर रहा होता है । वह उस महान आत्मा के विपरीत कार्य किया करते हैं। इसी प्रकार ऋषि समाज में भी दैत्य थे, क्योंकि जैसे कर्म थे उस कर्म के अनुकूल योनि तो प्राप्त होती थी। उनके कर्म एवं स्वभाव भी उसी के अनुसार होते थे। परंतु सृष्टि के प्रारंभ में दैत्य बहुत सूक्ष्म थे ,न कि बराबर थे ,पर थे अवश्य ।
देखो यदि इस महान परमात्मा की सृष्टि में मिथ्या वाक्य न होता तो सत्य की कोई महत्वता नहीं थी अर्थात सत्य की पहचान संभव नहीं थी, इस प्रकार सत्य न होता तो इस मिथ्या का निर्णय नहीं हो सकता था।
इसलिए हमें यह समझ लेना चाहिए कि सत्यवादी और मिथ्या वादी सृष्टि के प्रारंभ से ही हैं। वास्तव में मिथ्यावादी पापी लोगों से समाज के सत्यवादी अच्छे लोगों की रक्षा करने के लिए ही राज्य, राजधानी और राजा की स्थापना की गई। इस संदर्भ में हमें यह भी समझना चाहिए कि मध्य काल में जब ईसाई और इस्लाम को मानने वाले लोगों ने दूसरे देशों पर जबरन अधिकार स्थापित किए और वहां पर जबरन अपने क्रूर शासन स्थापित किए तो वह राज्य , राजा और राजधानी के वैदिक ऋषियों के दृष्टिकोण और चिंतन के सर्वथा विपरीत किया गया कार्य था । जिसे डकैत, आतंकी और हिंसक प्रवृत्ति के लोगों ने किया था। वहीं से संसार की वर्तमान दुर्दशा का प्रारंभ हुआ। वह अराजक तत्व थे जो समस्त संसार पर जबरन अपना शासन थोप रहे थे । उन्हें राजा नहीं कहा जा सकता।

देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत

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